श्री:
श्रीमते शठकोपाये नम:
श्रीमते रामानुजाये नम:
श्रीमदवरवरमुनये नम:
श्री वानाचल महामुनये नम:
तुला मास के पावन माह में अवतरित हुए आलवारों/आचार्यों की दिव्य महिमा का आनंद लेते हुए हम इस माह के मध्य में आ पहुंचे है। इस माह की सम्पूर्ण गौरव के विषय में पढने के लिए कृपया https://granthams.koyil.org/thula-masa-anubhavam-hindi/ पर देखें।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुंदर “व्याख्यान अवतारिका”(व्याख्यान पर परिचय) के माध्यम से अब हम अत्यंत कृपालु पिल्लै लोकाचार्य और उनकी दिव्य रचना श्री वचन भूषण के विषय में चर्चा करेंगे। इस प्रबंध के संक्षिप्त परिचय और तनियन के विषय में https://granthams.koyil.org/2015/11/16/thula-anubhavam-pillai-lokacharyar-srivachana-bhushanam-thanians-hindi/ पर देखा जा सकता है। हम इस प्रबंध के लिए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित अवतारिका के प्रथम भाग को https://granthams.koyil.org/2016/01/03/thula-anubhavam-pillai-lokacharyar-sri-vachana-bhushanam-1-hindi/ और द्वितीय भाग को https://granthams.koyil.org/2016/01/04/thula-anubhavam-pillai-lokacharyar-sri-vachana-bhushanam-2-hindi/ पर देख सकते है।
आईये अब हम अवतारिका के तृतीय और अंतिम भाग की और अग्रसर होते है। परिचय के इस भाग में, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बताते है कि श्रीवचन भूषण ग्रंथ, द्वय महामंत्र का उसी प्रकार विस्तार से विवरण करता है जिसप्रकार तिरुवाय्मौली में किया गया है।
तिरुवाय्मौली, जो दीर्घ शरणागति के नाम से प्रसिद्ध है, उसी के समान ही यह प्रबंध भी द्वय का विस्तार है। तिरुवाय्मौली में, द्वय महामंत्र को विस्तार से समझाया गया है:
- प्रथम 3 शतको में (1 – 3), द्वयं के द्वितीय खंड (उपेय) को विस्तार से समझाया गया है।
- अगले 3 शतकों में (4 – 6), द्वयं के प्रथम खंड (उपाय) को विस्तार से बताया गया है।
- उसके अगले 4 शतकों में, निम्न सिद्धांतों को विस्तार से समझाया गया है:
- भगवान के ऐसे दिव्य गुण जिसके द्वारा वे सभी पर एक समान कृपा करते है
- श्रीशठकोप आलवार की आत्मा (स्वयं) और आत्मा से सम्बंधित सभी तत्वों जैसे देह, इन्द्रियां आदि के प्रति सम्पूर्ण विरक्ति
- उनके (श्रीशठकोप आलवार) और भगवान का नित्य संबंध
- श्रीशठकोप आलवार द्वारा चरम लक्ष्य की प्राप्ति स्मरण
उसीप्रकार, श्रीवचन भूषण में भी, इन्हीं सिद्धांतो को समझाया गया है:
पिल्लै लोकाचार्य – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – भूतपुरी
6 प्रकरण वाले वर्गीकरण के अनुसार:
- द्वयं का प्रथम भाग, प्रथम 3 प्रकरणों में समझाया गया है:
- पहले श्रीमहालक्ष्मीजी के पुरुष्कार को समझाया गया है
- तद्पश्चाद भगवान ही एकमात्र उपाय है, इसे समझाया गया है
- भगवान को ही अपना एकमात्र उपाय स्वीकार करने वालों की निष्ठा के विषय में समझाया गया है
- भगवत कैंकर्य की ही नित्य निरंतर चाहना करने वालों की दशा को समझाते हुए, द्वयं का द्वितीय भाग समझाया गया है।
- शेष 3 प्रकरणों में,
- चतुर्थ प्रकरण में शिष्य का आचार्य के प्रति व्यवहार और कैंकर्य के विषय में बताया गया है। आचार्य ही द्वय महा मंत्र का ज्ञान प्रदान करते है।
- पंचम प्रकरण, भगवान की निर्हेतुक कृपा, जो शिष्य के महा विश्वास (सम्पूर्ण समर्पण) का कारण है, उसे समझाता है।
- षष्ठं प्रकरण में द्वय महा मंत्र के दो खंडो (उपाय और उपेय) में समझाए गए सिद्धांतो की चरम स्थिति अर्थात आचार्य चरण में सम्पूर्ण समर्पण के विषय में बताया गया है।
9 प्रकरण वाले वर्गीकरण के अनुसार:
द्वयं के प्रथम खंड के “प्रपद्ये” शब्द के द्वारा भगवान को ही उपाय स्वीकार करने का बोध होता है और इस शब्द में निहित अर्थ है कि कर्म, ज्ञान, भक्ति योग आदि अन्य उपायों को मूल से त्यागना अवश्यक है। प्रपन्न दिनचर्या (दैनिक कार्य, प्रपन्न का व्यवहार) उनके लिए है, जो प्रपत्ति करते है। और एक सच्चे आचार्य वह है जो द्वय महामंत्र का ज्ञान प्रदान करे। इसप्रकार, उपरोक्त सभी के अनुसार, यह समझा जा सकता है कि 9 प्रकरणों वाले वर्गीकरण में भी, तिरुवाय्मौली (द्वय महामंत्र का विवरण) और श्रीवचन भूषण एक समान सिद्धांतों को समझाते है।
द्वय महामंत्र को विस्तार से समझाने वाला इस प्रबंध में तिरुमंत्र और चरम श्लोक में समझाए गए सिद्धांत भी निहित है। अब हम उन्हें देखते है:
प्रथमतय तिरुमंत्र के विवरण को प्रदर्शित किया गया है।
- (सूत्र 73) “अहमर्थतत्तुक्कू” से (सूत्र 77) “अडियानेन्रिरे” तक और (सूत्र 111) “स्वरुप प्रयुक्तमान दास्यमिरे प्रधानं” में “प्रणवं” को समझाया गया है।
- (सूत्र 71) “स्वयत्न निवृत्ति” से और (सूत्र 180) “तन्नैत ताने मुडिक्कैयावतु” तक और (सूत्र 243) “इप्पडि सर्व प्रकारत्तालुम” से पहले, “नमः” पद को समझाया गया है।
- (सूत्र 72) “परप्रयोजन प्रवृत्ति”, (सूत्र 80) “उपेयत्तुक्कू इलैय पेरुमालैयुम” और (सूत्र 281) “कैंकर्यम् तान भक्ति मुलं अल्लात पोतु” में, “नारायण” पद को समझाया गया है।
तद्पश्चाद चरम श्लोक के व्याख्यान को समझाया गया है।
- (सूत्र 43) “अज्ञानत्ताले” और (सूत्र 115) “प्रापकांतर परित्यागत्तुक्कुम” में, अन्य उपायों को त्यागने और उन्हें त्यागने के साधन के विषय में चर्चा की गयी है। यह चरम श्लोक के सर्व “धर्मान परित्यज्य” को समझाता है।
- (सूत्र 55) “इतु तनक्कू स्वरूपं” और (सूत्र 66) “प्राप्तिक्कू उपायं निनैवु” में भगवान ही एकमात्र आश्रय और उपाय है, इसे समझाया गया है। यह “मामेकं शरणं” को समझाता है।
- (सूत्र 134) “प्रपत्ति उपायत्तुक्कू” से शरणागति के विशेष गुण के विषय में बताया गया है। यह “व्रज” को समझाता है।
- (सूत्र 143) “अवनिवनै” से (सूत्र 148) “स्वातन्त्रियत्ताले वरुम पारतन्त्रियम प्रबलं” तक, यह बताया गया है कि भगवान परम स्वतंत्र है और वे शरणागत जीवात्मा के सभी पापों को क्षमा करते है। यह “अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामी” को समझाता है।
- (सूत्र 402) “कृपा पलमुम अनुबवित्ते अरवेनुम” बताता है कि भगवान की कृपा प्राप्त करने पर चरम लक्ष्य की प्राप्ति निश्चित है और जीवात्मा को इस संबंध में कोई संशय अथवा चिंता करने की आवश्यकता नहीं। यह “मा सुच:” को समझाता है।
इसप्रकार हमने पिल्लै लोकाचार्य के श्रीवचन भूषण के लिए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा रचित महान परिचय में उस भाग को देखा जहाँ तिरुवाय्मौली और श्रीवचन भूषण के मध्य समानताएं बताई गयी है और श्रीवचन भूषण में प्रदर्शित रहस्य त्रय के सिद्धांतों को विस्तार से समझाया गया है।
इसप्रकार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा पिल्लै लोकाचार्य के श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के लिए रचित परिचय समाप्त होता है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्न माला में अद्घोषित करते है कि श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के समान वैभवशाली अन्य और कोई ग्रंथ नहीं है।
उपरोक्त के द्वारा, हमें पिल्लै लोकाचार्य, श्रीवचन भूषण और विशेषतः श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव की झलक मिलती है, जिन्होंने इस अद्भुत ग्रंथ की व्याख्यान प्रदान कर हम पर कृपा की।
श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के पाठ के पश्चाद निम्न पसूरो का गान किया जाता है।
कोदिल उलगासिरियन कुरकुलोत्तम तातर
तीदिल तिरुमलैयाल्वार चेलुन्गुरवै मणवालर
ओदरिय पुगल्त तिरुनावुडैय पिरान तातरुडन
पोत मणवाल मुनि पोन्नादीगल पोट्रूवने
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की ईडु कालक्षेप गोष्ठी श्रीरंगनाथ भगवान के सामने
शब्दार्थ: मैं श्रेष्ठ विद्वान श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरण कमलों के साथ दोषरहित श्री पिल्लै लोकाचार्य, कुर कुलोत्तम दासर, अवगुण रहित तिरुमलै आलवार/ तिरुवाय्मौली पिल्लै, कुरुवै वंश के अलगिय मणवाल पेरुमाल पिल्लै (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दादाजी), और अत्यंत प्रसिद्ध तिरुनावीरूदैय पिरान तातरण्णर (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पिताश्री) को प्रणाम करता हूँ।
वालि उलगासिरियन वालि अवन मन्नू कुलं
वालि मुडुम्बै एन्नुम मानगरम
वालि मनम चुलन्त पेरिन्बम मिगु नल्लार
इनम चुलन्तु इरुक्कुम इरुप्पू
पिल्लै लोकाचार्य कालक्षेप गोष्ठी
शब्दार्थ: पिल्लै लोकाचार्य का मंगल हो! उनके यशस्वी कुल का मंगल हो! महान मुदुम्बै देश की जय हो (उनका पैतृक गाँव)! पिल्लै लोकाचार्य की आनंदमयी सभा का मंगल हो, जो सदा अत्यंत पवित्र और शुद्ध भक्तों से परिपूर्ण है।
ओतुम मुडुम्बै उलगासिरियन अरुल
एतुम मरवात एम्पेरुमान
निधि वलुवाच चिरुनल्लुर मामरैयोन पादम तोलुवार्क्कू वारा तुयर
कुर कुलोत्तम दासर – चित्रपट
शब्दार्थ: चिरुनल्लुर के कुर कुलोत्तम दासर, जो महान वेदों के ज्ञाता है, शास्त्रों के सिद्धांतों को गंभीरता से पालन करनेवाले है और जो निरंतर पिल्लै लोकाचार्य की कृपा का स्मरण करते है, उनके चरणकमलों की आराधना करने वाले मनुष्यों को कोई दुःख नहीं सताता।
-अदियेन भगवती रामानुजदासी
आधार – https://granthams.koyil.org/2013/11/aippasi-anubhavam-pillai-lokacharyar-sri-vachana-bhushanam-3/
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Jai srimannarayan.