विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ६

श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ यहाँ पर हिन्दी में देखे सकते है ।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ५

३०) विषय विरोधीभगवत विषय में बाधाएं

अपर्यामृत – आरावमुद भगवान्

विषय का अर्थ सामान्यत: भगवत विषय (भगवान से संबन्धित विषय) है । कुछ भी इससे विपरित विरोधी है।

  • विषय जैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, आदि जो सांसारिक खुशी प्रदान करते है वह भगवत विषय में बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जब कोई इंद्रियों के सुख में रहता है तो वह उसमें रजो और तमो गुण को बढाता है और स्वाभाविकता से उस व्यक्ति को भगवान से दूर कर देता है। आल्वार स्वयं कई पाशुर में यह कह चुके है कि यह सांसारिक खुशी बहुत शक्तिशाली है और वह निरन्तर उन्हें पीड़ा देती है।
  • भगवान का नाम सुनना जीवात्मा के लिये स्वाभाविकता से आनंददायक है। जब जीवात्मा भगवान का नाम सुनते या बोलते है तब भगवान स्वयं इसे जीवात्मा से किया हुआ सुकृत मानते है। भगवान का नाम नहीं सुनना या कुछ और सुनना बाधा है।
  • भगवान का अर्चा विग्रह बहुत आनन्द प्रदान करता है। सांसारिक वस्तु को देखना बाधा है।
  • भगवान का नाम छोड़ और दूसरे का नाम स्मरण करना बाधा है।
  • चरण जो हमें प्रदान किये गये है उन्हें भगवान के क्षेत्रों (दिव्य देश आदि) में जाने के लिये उपयोग करना चाहिये। उन्हें देवताओं के क्षेत्र में जाने के लिये उपयोग करना बाधा है।
  • श्रीशठकोप स्वामीजी भागवतों के स्तुति के बारें में श्रीसहस्त्रगीति में कहते है “पयिलुम् चुडरोळि” और “नेडुमार्कडिमै” । इससे सभी को समझना चाहिये की भगवान से भी भागवतों कि स्तुति अधिक बडी है। इसलिये बिना भगवातों कि सेवा किये केवल भगवान के अर्चा विग्रह कि सेवा करना बाधा है।
  • भागवतों का नाम स्मरण छोड़ भगवान का नाम स्मरण करना अपचार है। उदाहरण के लिये, हमारे पूर्वाचार्य कहते थे “नारायण” से बढ़कर “रामानुज” का नाम है और रामानुज का नाम लेना अधिक आकांक्षादायी है। श्रीआंध्रपूर्ण स्वामीजी एक बार सुनते है कोई “नारायण” का नाम ले रहा है और कहते है “सब को ‘रामानुज’ का नाम लेना चाहिये केवल ‘नारायण’ का नाम लेना अयोग्य है” और उस स्थान से चले गये।
  • भागवतों के चरण कमल को स्पर्श करना स्वयं में अच्छा है। परन्तु सांसारी को छुना या उनसे छुआ जाना बडी बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीपरशर भट्टर स्वामीजी के जीवन में एक घटना इस संदर्भ में दर्शायी गयी है। श्रीरंगम के गलियों में चलते समय एक कोई अन्य देवता का भक्त जिसने रंगीन धोती धारण कि स्वामीजी के समीप आया और वह उन्हें छु लेगा इससे घबड़ा कर स्वामीजी अपनी माता आण्डाल अम्माजी के पास जाकर इसका उपचार पूंछते है। वह उन्हें किसी उपविधि (जिसने यज्ञोपवित नहीं लिया) भागवात का श्रीपादतीर्थ लेने को कहती है। भट्टर स्वामीजी एक भागवत को समझाकर जो भगवान का श्रीपाद कैंकर्य कि सेवा करते है उनका श्रीपाद लेकर संतुष्ट हो जाते है। अगर श्रीपरशर भट्टर स्वामीजी जो नंपेरुमाल / नाचियार के गोद लिये हुए पुत्र केवल एक संसारी के छुने के सोच से घबड़ा गये तो हमें यह सोचना चाहिये की हमें कितना सावधान रहना चाहिये ।
  • भगवान को तुलसी बहुत प्रिय है। परन्तु हमें केवल भगवान को अर्पित तुलसी कि सुगन्ध हीं लेनी चाहिये। भगवान के चरण कमल में जो अर्पित तुलसी न हो उसे सूंघना अपचार है। अनुवादक टिप्पणी: सभी जीव और निर्जीव भगवान कि संपत्ति है और केवल भगवान के आनन्द के लिये उत्पन्न होते है। उसे पहिले भगवान को अर्पण करना फिर उसे प्रसाद रुप में स्वीकार करना चाहिये – स्वतंत्र रुप से हम कुछ भी रस नहीं ग्रहण कर सकते है।

३१) विश्वास विरोधी – उपाय में हमारे विश्वास में बाधा

सबसे बुरे समय में भी माता सीता श्रीराम पर पूर्ण विश्वास प्रगट करती है

विश्वास यानि दृढ़ विश्वास। यहाँ हम मोक्ष के लिये उपाय में दृढ़ विश्वास को देख रहे है। हमारे पूर्वाचार्य शास्त्र के आधार पर यह समझाये हैं कि मुमुक्षु के लिये भगवान हीं योग्य उपाय है। अनुवादक टिप्पणी: यही तत्त्व श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी कि मुमुक्षुपडि पर व्याख्या में समझाये है। यह समझाते समय “पेरु तप्पातेन्रु तुणिन्तिरुक्कैयुम्” – सभी को यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि हमारा लक्ष्य जो भगवद कैंकर्य वह प्राप्त होगा।

  • प्रपत्ति भगवान को प्रार्थना करने का कार्य है कि वह हमारे उपाय बने। वह केवल भगवान को उपाय रूप में अपनाने की मन कि अवस्था है। यह बहुत सरल कदम है। तदापि हमारे तरफ से यही प्राप्त होना है। किसिकों यह नहीं समझना चाहिये कि “ओ! यह बहुत सरल कदम है। यह सरल कदम कैसे भगवान को उपाय बनायेगा?”। ऐसे विचार रखना बाधा है।
  • उपेय उपाय खोज करने का परिणाम है। श्रीवैष्णवों के लिये परमपदधाम में कैंकर्य हीं अन्तिम लक्ष्य है। और परमपदधाम में यह कैंकर्य स्वयं के प्रयत्न से बहुत आश्चर्यजनक और अकाल्पनिक है। श्रीसहस्त्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “अम्मान् आळिप्पिरान् अवन् एव्विडत्तान् यानार्” – मेरे भगवान वह है जिन्होने अपने हाथो में सुदर्शन चक्र धारण किया है – वह कितने महान है और मैं कितना नीच हूँ। इसलिये किसी को अपनी बढाई के बारें में नहीं सोचना चाहिये और हमारे विनम्रता के कारण भगवान के प्रति हमें कैंकर्य भी प्राप्त नहीं होगा – यह बाधा है।
  • संसार में कई बाधाएं है। इन बाधाओं से डर कर रहना भी बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: मुमुक्षुप्पडि में चरम श्लोक के प्रकरणम को समझाते समय श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी बहुत सुन्दरता से भगवान के वचन “सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुच:” को बताते है जहां वह सभी बाधा को मिटाने का वचन देते है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस तथ्य को अपनी व्याख्यान में समझाते है।
  • चरमोपाय में निष्ठा न होना भी बाधा है। प्रपत्ति और आचार्य अभिमान दोनों हीं चरमोपाय में समझाया गया है। प्रपत्ति को सरल कार्य नहीं समझना चाहिये और कैसे यह सरल कार्य हमारे लिये नित्य कैंकर्य में उपार्जन करता है? आचार्य अभिमान के लिये हमें आचार्य को हमारे जैसे साधारण मनुष्य नहीं समझना चाहिये, वह कैसे हमें मोक्ष प्राप्ति के लिये मदद करते है? दोनों से बचना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पडि में चरम श्लोक के प्रकरणम में समझाते है “सर्व धर्मान् परित्यज्य”, इस गीता के श्लोक को चरम श्लोक कहते है क्योंकि वह शरणागति समझाता है। श्रीनायनाराचान पिल्लै द्वारा रचित चरमोपाय निर्णयं में श्रीरामानुज स्वामीजी कि कीर्ति को समझाया है।

३२) प्रवृत्ति विरोधी – हमारे कैंकर्य के लिये बाधाएं

 श्रीलक्ष्मणजी – भगवान के सेवकों में सबसे पहिले जगमगाते हुए दास

  • हमे यह समझना चाहिये कि भगवान के प्रति कैंकर्य हमारे स्वभाव के लिये सबसे उत्तम कार्य है। कैंकर्य हीं कर्तव्य है – स्वाभाविकता से उसके पीछे जाना। केवल नियम पालन हेतु कैंकर्य करना बाधा है।
  • कैंकर्य को अति प्रेम से करना चाहिये। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में कहते है “उगन्तु पणि चेय्तु” (प्रेम से सेवा करना)। ऐसे प्रेम के बिना कैंकर्य करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हमने कैंकर्य का सही स्वभाव पिछले उल्लेख में देखा है – “भगवद अनुभव जनिता प्रिती कारिता कैंकर्य” – कोई भी भगवद गुण आदि का अनुभव करता है जो प्रेम लगाव कि ओर ले जाता है और जो कैंकर्य कि ओर ले चलता है। अगर वों लगाव के विरुद्ध करते तो वह जीवात्मा के स्वरूप के विरुद्ध होता है।
  • कैंकर्य के समय किसीके पारतंत्रिय को बताना विरोधी है। सभी को इसे “भगवान का कैंकर्य समझना चाहिये, उसे अच्छी तरह सम्पूर्ण करना चाहिये, हमें गलतियाँ नहीं करनी चाहिये, आदि” – ऐसे विचार व्याकुलता कि ओर ले जाता है। हमारे नित्य तिरुआराधन में अन्त में सभी गाते है “उपचारापदेशेन क्रुतान् – अपचारानिमाम् सर्वाम् क्षमस्व पुरुशोत्तम” मैंने आप के प्रति कैंकर्य से प्रारम्भ किया परन्तु राह में कई गलतियाँ करते हुए समाप्त किया, पुरुषों में आप सबसे उत्तम है कृपया मुझे क्षमा करें। बिना व्याकुलता के आराम से रहना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जब भगवान कृष्ण श्रीविदुरजी के महल में पधारे तो विदुरजी पूर्ण व्याकुलता से भगवान को केले के छिलके प्रसाद रूप में प्रदान किया। फिर भी भगवान कृष्ण विदुरजी के प्रेम सेवा को मान दिया। इसलिये महात्मा विदुर को “महामति” के नाम से बुलाया जाता है – जो बहुत बड़ा ज्ञानी हो – भागवन कि सेवा हेतु जिसे व्याकुलता है।
  • किसीके अनुष्ठान को साधन (उपाय) मानना विरोधी है। स्वनुष्ठान जैसे कर्म जो भगवान कि आज्ञा है वह जरूरी है। ऐसे कर्मों को नहीं करना पापों कि संख्या को बढ़ाता है। परन्तु ऐसे कर्मों को करने से उसे बढ़ाता नहीं है – वह जरूरी है। किसी को ऐसे अनुष्ठान को उपाय नहीं मानना चाहिये जो भगवान को हमें मोक्ष देने के लिए मजबूर करें। विहित कर्म जैसे संध्या वंधन दिन में तीन बार, तिरुमाली के अर्चा विग्रह के लिये तिरुआराधन, पितृ तर्पण, आदि।

 

३३) निवृत्ति विरोधी – अस्वीकारता में बाधाएं

श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी और श्रीवरवर मुनि स्वामीजी (श्रीपेरुंबूतुर) – मुमुक्षुपड्डी में से त्याग के तत्त्व को स्पष्ट रूप से समझाया

  • निवृत्ति यानि अस्वीकारता। जिसने केवल भगवान को हीं उपाय माना है उसे अन्य सभी उपाय का त्याग करना है। भगवान गीता के चरम श्लोक में कहते है “सर्वधर्मान परित्यज्य” पहिले सभी उपायों का त्याग करो उसके पश्चात “मामेकं शरणं व्रज ” मेरी शरण में आवों। अत: इसके मुताबिक हमें दूसरे धर्मों के प्रति लगाव को त्यागना है (जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति योग) और केवल भगवान को श्रेष्ठ धर्म माने। अनुवादक टिप्पणी: हमारे आचार्य ने यह स्थापित किया कि केवल भगवान श्रीमन्नारायण हीं श्रेष्ठ धर्म है जैसे महाभारत में दिखाया है “कृष्णम् दर्मम् सनातनम्” भगवान कृष्ण हीं अनन्त धर्म है और श्रीरामायण में “रामो विग्रहवान् दर्म:”  श्रीराम धर्म के मूर्ति रुप है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पडि के २१३ सूत्र में समझाते है “दर्म सम्स्थापनम् पण्णप् पिरन्तवन् ताने ‘सर्व दर्मन्गळैयुम् विट्टु एन्नैप्पऱ्ऱु’ एन्गैयाले साक्षात् दर्मम् ताने एन्गिऱतु” – धर्म को स्थापित करने हेतु भगवान कृष्ण रुप में अवतार लेते है – जब वह कहते है ‘सब धर्मों को छोड़ मुझे स्वीकार करों’ इसका अर्थ वह सत्य / नित्य धर्म है।
  • यह सब समझने के पश्चात अगर कोई यह विचार करता है कि “क्या यह सब उपायों को छोड़ने से मुझे पाप लगेगा?” तो यह बाधा है। यह केवल भगवान में निष्ठा का अभाव दर्शाता है। इस शंका के कारण लक्ष्य पूर्ण नहीं होगा।
  • भगवान पर शंका कर ऐसे कार्य करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: किसी को यह विचार नहीं करना चाहिये कि “क्या अगर मेरी प्रपत्ति टूट जायेगी? मुझे शायद थोड़ा कर्म, ज्ञान और भक्ति करना है ताकि मेरे पापों को कम कर सके”। यह समझाया जा चुका है कि भगवान ब्रम्हास्त्र के जैसे है। जब ब्रम्हास्त्र का उपयोग होता है तो वह अपने विरुद्ध को आसानी से बंधीश में कर लेगा। परन्तु अगर कोई ब्रम्हास्त्र के शक्ति पर संदेह करता है और विरोधीयों को अधीक शक्ति से बांधना चाहता है तो ब्रम्हास्त्र अपने आप पीछे हट जायेगा। यही हुआ जब श्रीहनुमानजी ब्रम्हास्त्र से बन्ध गये और जब राक्षस उन्हें साधारण रस्सी से बाँधे तो ब्रह्मास्त्र ने उन्हें अपने शक्ति से मुक्त कर दिया। श्रीहनुमानजी रावण के दरबार में जाते है, धमकी देते है और लंका में आग लगा देते है।
  • अन्य उपायों को केवल अपनी आसक्ति के कारण त्याग करना बाधा है। हमें यह विचार करना चाहिये कि अन्य उपाय हमारे स्वरूप के लिये योग्य नहीं है और अत: उसका त्याग कर देना।
  • अन्य उपायों का त्याग करना क्योंकि वह समर्थ है बाधा है। उन्हें सहीं स्वभाव को पूर्ण करने हेतु त्याग करना चाहिये – और कोई कारण नहीं होना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: उदाहरण के तौर पर कोई कर्म योग का त्याग करने में सुशक्त है और यह विचार कर “मैं नियंत्रण में हूँ इसलिये कर्म योग का त्याग कर रहा हूँ” – यह भी अच्छा नहीं है।
  • हमें इस बात का अभिमान नहीं होना चाहिये कि हमने उपायों के प्रति लगाव का त्याग कर दिया है – यह बाधा है। अगर कोई ऐसा कर सकता है तो वह जीवात्मा के लिये स्वाभाविक है और यह भगवान और आचार्य के निर्हेतुक कृपा से सम्भव है – हमें स्वयं कि बढाई नहीं करनी चाहिये कि मैंने यह कार्य किया है और यह विचार करना चाहिये कि “मैंने यह सब का त्याग कर दिया है?”।

हमें निरन्तर श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पडि के २७१ सूत्र को याद करना चाहिये – “कर्मम् कैन्कर्यत्तिले पुगुम्; ज्ञानम् – स्वरूप प्रकाशत्तिले पुगुम्; भक्ति प्राप्य रुचियिले पुगुम्; प्रपत्ति – स्वरूप यातात्म्य ज्ञानत्तिले पुगुम्”. श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सभी संप्रदाय पर दया दिखाते हुए इन सब कार्य कि करने कि आवश्यकता बहुत सुन्दर तरिके से समझाते है– फिर हमें उसे उपाय नहीं समझना चाहिये – वह कैंकर्य रुप में किया जाता है। जो भी कर्म किया जाता है (जैसे संध्या वन्दन, आदि ) – वह सभी भगवान के प्रति कैंकर्य का एक अंश है। जो भी ज्ञान योग द्वारा प्राप्त होगा वह आत्मा को उज्जीवन बनायेगा। जो भी भक्ति द्वारा किया जायेगा वह हमें भगवान के प्रति हमारा प्रेम को बढायेगा। और अन्त में प्रपत्ति केवल भगवान को उपाय रुप में स्वीकार करने हेतु जीवात्मा के अंतस्थ स्वभाव को जोड़ेगा ।

अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2013/12/virodhi-pariharangal-6/

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