श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका – दैनिक जीवन के लिए कुछ महत्वपूर्ण बिंदु

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका

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thiruvaradhanam

श्रीवैष्णवों के लिए, निम्नलिखित बिंदु समझना और अपने दैनिक अनुष्ठान/ अभ्यास में उसका अनुसरण करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

  1. सभी श्रीवैष्णवों का सम्मान करना चाहिए, उनके वर्ण, आश्रम, ज्ञान आदि के आधार पर मूल्यांकन नहीं करना चाहिए। अपने सह-भागवतों का सम्मान करना, यही भगवान की अपने भक्तों से प्रथम अपेक्षा है।
  2. अहंकार और आसक्ति से परे सदा जीवन यापन करना। एक बार आत्मा के सूक्ष्म रूप और भगवान के विराट स्वरुप को समझने के पश्चाद, हम कभी भी स्वयं को महान नहीं समझ सकते।
  3. अपने श्रीआचार्य की सेवा नियमित रूप से करना एक महत्वपूर्ण तत्व है। एक शिष्य के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि वे अपने आचार्य की भौतिक और वित्तीय आवश्यकताओं की यथासंभव पूर्ति करें।
  4. स्नान, उर्ध्व-पुण्ड्र धारण करना, संध्यावंदन, आदि नित्य कर्मानुष्ठानों को अपने वर्ण और आश्रम धर्म के अनुसार पूर्ण करे। इन विधिकर कार्यों को करने से, हमारी आतंरिक और बाह्य पवित्रता विकसित होगी, जो सच्चे ज्ञान को पोषित करेगी।
  5. सदा तिरुमण और श्रीचुर्ण (तिलक) को धारण करना – यह भगवान के प्रति हमारे दासत्व की प्रमुख पहचान है। यह बहुत आवश्यक है कि उसे सभी स्थितियों में द्रढता से धारण करना चाहिए और उसे धारण करने में लज्जा का अनुभव नहीं करना चहिये।
  6. पञ्चकच्चं, मदिसार आदि वैधानिक वस्त्रों को अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार धारण करना चाहिए। हम क्या है और हमारी संस्कृति क्या है, इसमें शर्म करने की कोई बात नहीं है– विशेषतः आचार्यों के वंश में उत्पन्न होने वालों के लिए।
  7. सदा श्रीमन्नारायण भगवान, आलवारों और आचार्यों की आराधना करनी चाहिए। इसके साथ ही, देवान्तारों (देवी- देवता, देवता जैसे रूद्र परिवार, इंद्र, वरुण, अग्नि, नवग्रह, आदि) का पूजन श्रीवैष्णवों को कभी नहीं करना चाहिए। हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा प्रदर्शित यह एक बहुत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। भगवान और जीवात्मा में एक मुख्य संबंध भर्त्रू- भार्या (पति-पत्नी) का है। क्यूंकि सभी जीवात्मायें स्वभाव से नारी है और भगवान एक मात्र पुरुष है, सभी जीवात्माओं का भगवान से यह नैसर्गिक संबंध है। इसलिए, भगवान के प्रति सम्पूर्ण श्रद्धा प्रकट करना और देवान्तारों से संबंध त्याग, हमारे लिए अत्योचित है।
  8. अपने घर में किया जाने वाला तिरुवाराधन श्रीवैष्णव के दैनिक अनुष्ठान का अत्यंत महाव्त्पूर्ण तत्व है। भगवान निर्हेतुक कृपापूर्वक हमारी पूजा स्वीकार करने हेतु हमारे घरों में विराजे है। उनकी उपेक्षा करना घोर अपराध है और घर में विराजे भगवान की उपेक्षा हमारे अध्यात्मिक प्रगति के लिए अहितकर है। यहाँ तक कि यात्रा में भी अपने तिरुवाराधन भगवान को अपने साथ रखना ही उत्तम है। यदि वह संभव नहीं है तो उनकी सेवा के लिए अपने घर में अथवा उन्हें किसी अन्य श्रीवैष्णव के घर उन्हें विराजित करा करके, उनके लिए पर्याप्त व्यवस्था करनी चाहिए। दैनिक तिरुवाराधन न करके, उन्हें घर में छोड़ देना अत्यंत निंदनीय है। तिरुवाराधन के विषय में विस्तार से https://granthams.koyil.org/2012/07/srivaishnava-thiruvaaraadhanam/ पर बताया गया है।
  9. अपने वर्ण और आश्रम के अनुरूप शास्त्रों में बताये गई खाद्य सामग्री का ही सेवन करना चहिये। ऐसे भोजन को प्रथम भगवान, आलवार और आचार्य को अर्पण कर, फिर सेवन करना चाहिए। हमें वह भोजन कभी नहीं पाना चाहिए जो भगवान को अर्पण नहीं किया गया हो। https://granthams.koyil.org/2012/07/srivaishnava-aahaara-niyamam_28/ और https://granthams.koyil.org/2012/08/srivaishnava-ahara-niyamam-q-a/ पर आहार निर्णय के विषय में विस्तार से चर्चा की गयी है।
  10. सदा श्रीवैष्णवों का संग करना चहिये। यह महत्वपूर्ण है कि हम तार्किक अध्यात्मिक चर्चाओं में संलग्न हो, जिसके द्वारा हमारा कल्याण होगा और हमारी आध्यात्मिक प्रगति होगी।
  11. दिव्य देश, आलवार/ आचार्य अवतार स्थल और अभिमान स्थल हमारे जीवन के महत्वपूर्ण अंग है। हमें दिव्य देशों आदि में सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चहिये। यदि ऐसा कैंकर्य करने के लिए वर्तमान में परिस्थिति ठीक नहीं है तो, ऐसे दिव्य स्थानों की यथासंभव यात्रा करें और भविष्य के लिए भी ऐसे किसी उपक्रम की योजना बनाये।
  12. श्रीवैष्णवों के लिए दिव्य प्रबंध अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। पासुरों को कंठस्थ करना, उनके अर्थों को जानना (पूर्वाचार्यों के व्याख्यान के अनुसार) और उन सिद्धांतों का जीवन में अभ्यास करना, तीन अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्व है जो एक श्रीवैष्णव को परिभाषित करते है। दिव्य प्रबंध संसार के प्रति वैराग्य और भगवान और भागवतों के प्रति प्रीति उत्पन्न करने में सहायक है।
  13. हमारे पूर्वाचार्यों के जीवन ही हमारे लिए शिक्षा और प्रेरणा स्त्रोत है। उन्होंने सभी जीवात्माओं के प्रति दया और सम्मान को दर्शाया है और आज के जीवन में आने वाली हमारी सभी परेशानियों/ दुविधाओं का निवारण उनके जीवन से प्राप्त होता है।
  14. पूर्वाचार्यों द्वारा कृत साहित्य का पठन महत्वपूर्ण है। हमें प्रतिदिवस कुछ समय आज उपलब्ध इस महान संपदा को पढने के लिए अवश्य निकालना चाहिए, अर्थात वेदांत, दिव्य प्रबंध, स्तोत्र ग्रंथ, व्याख्यान, ऐतिहासिक चित्रलेखन आदि स्वरूपों में उपलब्ध पूर्वाचार्यों के दिव्य ग्रंथ। हमारी वेबसाइट (https://koyil.org/index.php/portal/) पर ऐसी अनेकों साहित्यों में बताई गयी जानकारी पढने के लिए उपलब्ध है।
  15. मूलभूत सिद्धांतों के गहन अर्थों को जानने के लिए विद्वानों के सानिध्य में उनके कालक्षेप (मूल पंक्ति का व्याख्यात्मक विवरण) को अवश्य श्रवण करना चाहिए। आजकल अनेकों प्रकार से अर्थात सी.डी. अथवा वेबसाइट के द्वारा यह कालक्षेप उपलब्ध है। जो व्यक्तिगत रूप से इन कालक्षेप को श्रवण नहीं कर पाते वे लोग इन उपलब्ध संसाधनों का उपयोग कर सकते है। घर में भी, हमें उचित वेश भूषा और ध्यानपूर्वक इसका श्रवण करना चाहिए जैसा कि हम वास्तविकता में वहां होने पर करते।
  16. किसी यथार्थ कैंकर्य में संलग्न होना। शास्त्र कहते है “बिना कैंकर्य के हमारा दासत्व निरर्थक है” – भगवान श्रीमन्नारायण, आलवारों और आचार्यों के दास होने के कारण, हमें सदा किसी कैंकर्य में रत रहना चाहिए। कैंकर्य कैसा भी हो सकता है, शारीरिक, वित्तीय, मानसिक, आदि। कैंकर्य में संलग्न होने के लिए बहुत से साधन है। कैंकर्य चाहने वालों की मांग सदा रहती है। हमें नियमित रूप से किसी कैंकर्य करने का विचार करना चाहिए और उसे पूर्ण भी करना चाहिए। इस प्रकार, भगवान और भागवतों के साथ निरंतर/सतत संलग्नता रहेगी।
  17. भगवान, आलवारों और आचार्यों के विषय में अद्भुत ज्ञान प्राप्त करने में भागवातों और अन्य लोगों की सहायता करना। इस ज्ञान को निरंतर सभी के साथ साझा करना सभी के लिए हितकारी है और वक्ता और श्रोता दोनों के लिए आनंददाई है। हमारे पूर्वाचार्यों ने इस दिव्य साहित्य से अनेकों अद्भुत द्रष्टांत हमारे कल्याण हेतु प्रस्तुत किये है। हमारा भी यह कर्तव्य है कि हम उचित मार्गदर्शन में उनका अध्ययन करे और फिर उसे अपने परिवार, संबंधियों, दोस्तों और जो भी उसे प्राप्त करना चाहे उनसे साझा करें।
  18. अंततः, जीवात्मा के सच्चे स्वभाव के अनुरूप हमें परमपद में अनंत आनंद प्राप्त करने की सतत चाहना करनी चाहिए। एक सच्चा श्रीवैष्णव कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता, क्यूंकि उसके पश्चाद ही अत्यंत वैभवशाली श्रीवैकुंठ में भगवान की नित्य सेवा प्राप्त होगी। हमारे आलवारों और अचार्यों ने यहाँ रहते हुए सदा भगवान और भागवतों की सेवा की और सदा चाहा कि परमपद में पहुंचकर भी सदा भगवान का कैंकर्य प्राप्त हो।

-अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – https://granthams.koyil.org/2016/01/simple-guide-to-srivaishnavam-important-points/

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