श्री वैष्णव लक्षण – ४

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्री वैष्णव लक्षण

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गुरू परम्परा

अपने पिछले लेख में हमने आचार्य और शिष्य के रिश्ते के बारे में चर्चा की थी।

कोई अगर हमें पुछे कि, “हमें अपने और भगवान के बीच में आचार्य की क्या जरूरत है? क्या पहले ऎसे कोई स्थिति नहीं देखी जहाँ भगवान किसी को सीधा स्वीकार नहीं किया था जैसे शबरीजी, अक्रूरजी, त्रिविक्रमजी, मालाकार इत्यादि?” इसके लिये अपने पूर्वाचार्यों ने यह समझाया है कि भगवान तो स्वतंत्र हैं और वह अपनी कृपा हम जीवात्मा पर बरसाते हैं और वे हर एक के कर्मों के अनुसार फल भी देते हैं। यही पर अपने आचार्य हम दोनों के सम्बन्ध में आते हैं। भगवान जीवात्मा को सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये और अन्त में उनसे मिलने के लिये निरन्तर यह कोशिश करते रहते हैं कि सदाचार्य उन्हें मिले जो उन्हें यह सब कुछ सिखा सके। आचार्य को यह पूर्ण अधिकार है और वह भगवान से यह कहते हैं कि यह जीवात्मा इस लीला विभूति को छोडकर नित्य विभूति में जाने के लिये आपकी कृपा के उपर पूर्णता निर्भर है।

यह कहा गया है कि भगवान हमें हमारे कर्मानुसार मोक्ष दे देंगे। आचार्य यह निश्चित कर देते हैं कि जो जीवात्मा प्रभु को समर्पित हुआ है उस जीवात्मा को मोक्ष मिल जाये। यह भी समझाया गया है कि सीधे भगवत् प्राप्ति का मतलब है कि भगवान का हाथ पकडने के लिये वहाँ तक पहुँचना और आचार्य के माध्यम से भगवत् प्राप्ति पाने का अर्थ है कि भगवान के चरण कमल को पकड़ना (प्राप्ति करना), क्योंकि कि आचार्य भगवान के चरण कमलों को सम्बोधित करते हैं। भगवान सीधे जीवात्मा को मिलना यह बहुत कम देखा गया है और आचार्य के जरिये मिलना बहुत जगह देखा गया है और यही उचित भी है।

श्रीवैष्णव लक्षणम मे जाने के पहले, जब हम आचार्यों के बारे में चर्चा कर रहे हैं तो हमें अपने गुरू परम्परा के आचार्यों के बारे में भी जानना जरूरी है। यह हमें भगवान के बारे में पूर्ण ज्ञान देने में मदद करेगा। इस श्रेष्ठ गुरु परंपरा के बारे में तो सभी जानते ही होंगे फिर भी इस को दोहराना उचित है |

श्रीवैष्णव एक सनातन संप्रदाय/ सनातक धर्म है और इतिहास में बहुत से महानुभावों ने इसका प्रचार प्रसार किया। द्वापर युग के अंत में, भारत वर्ष के दक्षिण भाग में विभिन्न नदियों के किनारे आलवारों का अवतरण हुआ। अंतिम आलवार कलियुग के अग्र भाग में अवतरित हुए। श्रीभागवतजी में, व्यास ऋषि ने भविष्यवाणी की है कि भगवान श्रीमन्नारायण के उच्च/श्रेष्ठ भक्त विभिन्न नदियों के किनारों पर अवतरित होंगे और भगवान के विषय में इस दिव्य ज्ञान को सभी के मध्य समृद्ध करेंगे। आलवारों की संख्या दस है – श्रीसरोयोगी स्वामीजी, श्रीभूतयोगी स्वामीजी, श्रीमहद्योगी स्वामीजी, श्रीभक्तिसार स्वामीजी, श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीकुलशेखर स्वामीजी, श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी, श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी, श्रीयोगिवाहन स्वामीजी, श्रीपरकाल स्वामीजीश्रीमधुरकवि आलवार और श्रीआण्डाल आचार्य निष्ठ है और वे आलवारों में भी माने जाते है (जिससे संख्या 12 हो जाती है)। श्रीआण्डाल, भूमिदेवीजी का अवतार भी है। आलवार (आण्डाल के अतिरिक्त) भगवान द्वारा संसार से चुने हुए जीवात्मा है। भगवान ने इन १२ आल्वारों को तत्त्वत्रय (जीव, ईश्वर, माया) के बारें में पूर्ण ज्ञान दिया और यह सभी अपने संकल्प के द्वारा किया और इसी के जरिये भगवान ने भक्ति और प्रपत्ती मार्ग को फिर से स्थापित किया जब कि यह संसार उसे भुल रहा था। और भगवान ने उन्हें भूत, भविष्य और वर्तमान काल की सच्चाई को अच्छी तरह समझाया। आल्वारों ने करिब ४००० दिव्य प्रबन्ध पाठ की रचना की, जो उनके भगवद् अनुभव हैं।

आलवारों के पश्चात, आचार्यों का अवतार प्रारंभ हुआ। बहुत से आचार्यों जैसे श्रीनाथमुनि स्वामीजी, श्रीपुण्डरीकाक्ष स्वामीजी, श्रीराममिश्र स्वामीजी, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी, श्रीमहापूर्ण स्वामीजी, श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी, श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी,श्रीमालाधर स्वामीजी, श्रीवररंगाचार्य स्वामीजी, श्रीरामानुज स्वामीजी, श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी, श्रीकुरेश स्वामीजी,श्रीदाशरथी स्वामीजी, श्रीदेवराजमुनी, श्रीअनंतालवान, श्रीतिरुक्कुरुगै पिरान पिल्लन, श्रीएन्गलालवान, श्रीनदातुर अम्माल,श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी, श्रीवेदांती स्वामीजी, श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी, श्रीकृष्णपाद स्वामीजी, श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै,श्रीलोकाचार्य स्वामीजी, श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार्, श्रीकुरकुलोत्तम दासर, श्रीशैलेश स्वामीजी, श्रीवेदांताचार्य स्वामीजी और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने प्रकट होकर संप्रदाय का प्रचार प्रसार किया। यह आचार्य परंपरा 74 सिंहासनाधिपतियों (श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा नियुक्त आधिकारिक आचार्य) और श्रीरामानुज स्वामीजी व् श्री वरवरमुनि स्वामीजी द्वारा स्थापित जीयर मठों द्वारा आज के समय तक पहुंची है। इन आचार्यों ने पासूरों के अर्थों/ सार को गहनता से समझाने के लिए अरुलिच्चेयल पर बहुत से व्याख्यान लिखे। यही व्याख्यान आज हमारे लिए उनके द्वारा प्रदान की गयी अमूल्य निधि है – जिसे पढ़कर हम भगवत अनुभव में मग्न हो सके। सभी आचार्यगण, आलवारों की कृपा से उनके पसूरों के यथार्थ को स्पष्टता से और विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाने में समर्थ थे।

अपनी उपदेश रत्न माला में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते है कि इन आचार्यों और आलवारों के व्याख्यानों के आधार पर ही हम अरुलिच्चेयल (दिव्य प्रबंध) समझने में समर्थ है। इन व्याख्यानों के अभाव में, हमारे अरुलिच्चेयल भी तमिल के अन्य साहित्य के समान ही होते (जिन्हें कुछ उच्च श्रेणी के लोग ही गृहण कर पाते)। क्यूंकि हमारे पूर्वाचार्यों ने इसके अर्थों/ सार को जाना है, उन्होंने अरुलिच्चेयल को घरों और मंदिरों में नित्यानुसंधान के अंग के रूप में जोड़ दिया। उसे प्रत्यक्ष देखने के लिए, हम तिरुवल्लिकेणी दिव्य देश में शुक्रवार को होने वाली सिरीय तिरुमदल गोष्ठी में जा सकते है और वहां 5 से 6 वर्ष की आयु के बालकों को अपने से बड़े श्रीवैष्णवों से अधिक ऊँचे स्वर में पाठ करते हुए देख सकते है। और हम सभी तिरुपावै के विषय में भी जानते ही है – सभी स्थानों पर, मार्गशीर्ष मास में हम 3 से 4 वर्ष की आयु वाले छोटे बालकों कोआण्डाल नाच्चियार के गौरवशाली पासूर का गान करते हुए सुन सकते है।

इस प्रकार हम अपनी गुरु परंपरा के महत्त्व को समझ सकते है और प्रतिदिन उसका आनंदानुभव कर सकते है।

पूर्वाचार्यों के विषय में जानने के लिए https://acharyas.koyil.org पर देखे।

आलवार्गल वालि, अरुलिच्चेयल वालि, तालवातुमिल कुरवर ताम वालि (आलवारों का मंगल हो, दिव्यप्रबंध का मंगल हो, उन सभी आचार्यों का मंगल हो जिन्होंने दिव्य प्रबंध का अनुसरण किया और उनका प्रचार प्रसार किया)
– उपदेश रत्नमाला 3

अडियेंन  केशव रामानुज दासन

पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी  रामानुज दासी

आधार: https://granthams.koyil.org/2012/07/srivaishnava-lakshanam-4/

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