श्री वैष्णव लक्षण – ६

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्री वैष्णव लक्षण

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उन श्रीवैष्णवों की स्तुति करना जिनके पास श्रीवैष्णव गुण/ ज्ञान/अनुष्ठान है

पिछले लेख में हम श्रीवैष्णव अधिकारियों के गुणों के बारे में देखा था | अब हम फिर से नीचे दिए गए इस तर्क को देखेंगे:

5.IMG_0460 पिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजीश्रीवरवरमुनि स्वामीजी

इप्पड़ी इरुक्कुम श्रीवैष्णवर्गाल येत्रम अरिन्दु उगन्दु इरुक्कैयुम – एक बार उपर के पाँच गुण अगर हम अच्छी तरह समझ जायेंगे तो हम अपने आप ही एसे गुणों से भरपूर श्रीवैष्णवों को ढूंढेंगे। हमारे पूर्वाचार्य कहते हैं कि जब हम उन्हें मिलेंगे तो हमें इतनी खुशी होनी चाहिए जैसे हम एक चंद्रमा (सभी को बचपन से ही चंद्रमा देखने की इच्छा होती है), टंडी हवा, चंदन की लकडी की लेई को देखा है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं कि, “अगर इस संसार में रहकर हमें ऎसे भी कोई मिल जाए तो वो एक कमल के पुष्प भट्टी में खिलने की समान है (जो कि नामुमकिन है)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आगे कहते हैं कि शायद हमें यह पहले के पाँच गुण मिल भी जाये तो भी आखिरी गुण मिलना बहुत ही कठिन है परन्तु हमारे सभी पूर्वाचार्य दूसरे श्रीवैष्णवों के स्तुति करते थे और इसी तरह एक उदाहरणात्मक जीवन व्यतीत करते थे।

ऊपर लिखे हुए गुणों को पाना कठिन है, कारण , हमारा बढ़ता हुआ अहंकार | हम इन श्रीवैष्णवों को “सजातीय बुद्धि” से देखते हैं यानि हम इन श्रीवैष्णवों को देखकर यह सोच लेते हैं कि वे हमारी ही तरह स्नान कर रहे हैं, हमारी तरह भोजन खाते हैं और हमारी तरह ही सभी अन्य कामों में लगे हैं तो इनमे और हममे क्या बेध है? हम यह बात भूल जाते हैं कि पूर्वाचार्यों के अनुसार ऐसे श्रीवैष्णव खुद से और भगवान से भी ऊंचे हैं | भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवत गीता में यह कहते हैं कि, “जो मेरे बारें में सोचते हैं, जो मुझे अपनी जिन्दगी समझते हैं, जो मेरे बारें में हमेशा बातें करते रहते हैं और उन पलों का आनन्द लेते हैं ऐसे श्रीवैष्णव मुझे बहुत पसंद हैं”। यह संसार जो कि पूरा निर्दयी है, ऎसे संसार में एक व्यक्ति ढूंढना जो कि भगवद विषय के बारें में चर्चा करे वैसे ही हैं जैसे रेगीस्थान में सरसब्ज ढूंढना। इसलिये हमें हर एक मौके पर अन्य श्रीवैष्णवों के साथ भगवद् विषय के बारे में चर्चा करना चाहिए। श्रीशठकोपस्वामीजी इस संसार के श्रीवैष्णवों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, “श्रीवैष्णव नित्य और मुक्त जीवों से भी बढकर हैं क्योंकि हर वक्त इस अनित्य संसार में रहकर भी सदा भगवान का चिन्तन करते हैं। ” श्रीवैष्णव इस संसार के नित्यसूरी हैं। हमें अहंकार छोडना होगा और नैच्य अनुसंधान (खुद को नीच समझना) में रहना होगा तभी श्रीवैष्णवों की तरफ हमारे हृदय में सम्मान बढ़ेगा।

आचार्य अभिमानमे उत्तारकम ” – इस तात्पर्य को मुमुक्षुपडी में ११६ सूत्र और श्रीवचन भूषण में ४४७ सुत्र से समझाया गया है।

हम यह सोचते हैं कि एक शिष्य जिसे अपने आचार्य पर अभिमान है उसे अपने आप ही मोक्ष मिल जायेगा| अपने गुरू परम्परा में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, एक श्रेष्ठ टीकाकार ,यह कहते हैं कि, “अगर आचार्य को (जो अपने असीम कृपा से सारतम ज्ञान अपने शिष्य को प्रदान करते हैं) अपने शिष्य पर ‘यह मेरा शिष्य हैं’ ऎसा अभिमान हो, वही शिष्य संसार के भवसागर से आराम से छूट पा सकता है।” यही सम्प्रदाय का सार है। मुमुक्षुपडी सूत्र ११६ के पत पर कहा गया है कि, श्रीवैष्णव सत्संग का मूल्य समझने से हम भी ऐसे श्रेष्ठ श्रीवैष्णवों के अभिमान प्राप्त करके सत-पात्र बन सकते हैं. यही श्री वचन भूषन सूत्र ४४७ में भी समझाया गया है 

यह सब हम अपने पूर्वाचार्यों के जीवन चरित्र में देख सकते हैं

  • श्रीराममिश्र स्वामीजी (मनक्काल नम्बी) श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी (आळवन्दार) को फिर से सम्प्रदाय में लाने के लिये बहुत प्रयत्न किया (क्यों कि यही श्रीनाथमुनी स्वामीजी की इच्छा थी)

  • श्रीरामानुजाचार्य श्रीरड्गं से गोष्ठीपूर्ण स्वामी से मिलने के लिए १८ बार चलते गये और अंत में श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी ने उन्हें उनके कार्य के लिये उन्हें “यतिराज” से सम्बोधित किया।

  • श्रीरामानुजाचार्य और श्रीमहापूर्ण स्वामीजी में एक आदर युक्त अच्छा सम्बन्ध और आपसी लगाव था।

  • श्रीकूरेशस्वामीजी अपने सारे धन सम्पत्ति दान करके श्रीरामानुजाचार्य के शरण हुए और उनके प्रति श्रीरामानुज स्वामीजी को भी आदर और प्रेम था।

  • पिळै पिळै स्वामीजी (श्रीकुरेशस्वामीजी के शिष्य) सदैव श्रीवैष्णव अपचार करते रहते थे। एक दिन श्रीकुरेश स्वामीजी उनके पास गये और कहे कि आप से भागवत अपचार से मिले पापों को भेंट के रूप में उनको प्रधान करें। अपने आचार्य कि कृपा देखकर पिळै पिळै स्वामीजी ने उस दिन से किसी के भी प्रति एक भी अपराध नहीं किया।

  • श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी, श्रीभट्टर स्वामीजी से, परमपद जाते समय कहा कि, “आप में यह गर्व नहीं आना चाहिए कि आप कोई बडे विद्वान या श्रीकूरेश स्वामीजी के पुत्र हो, हमेशा इसी में ध्यान करते रहें – एम्बेरुमानार तिरुवडिगले शरणम |

  • श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी और श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के बीच में काफी लगाव था और एक बार श्रीरामानुजाचार्यजी ने श्रीअनन्ताल्वार स्वामीजी से कहें कि श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के साथ उनके समान हीं व्यवहार करना चाहिए |

  • श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और श्रीवेदान्ती स्वामीजी दोनों में काफी लगाव था। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी परमपद जाते समय श्रीवेदान्ती स्वामीजी को यह उपदेश करते हैं कि, “तुम यह नहीं सोचना कि तुम वेदान्ती हो, आप ने भट्टर आदि को इतना धन दिया है| हमेशा इसी में ध्यान करते रहें – एम्बेरुमानार तिरुवडिगले शरणम |

  • श्रीवेदान्ती स्वामीजी और श्रीकलिवैरदास स्वामीजी में काफी लगाव था। जब श्रीकलिवैरदास स्वामीजी ने श्रीवेदान्ती स्वामीजी से पूछा कि, श्रीवैष्णवों का सर्वोत्तम गुण क्या होना चाहिए, तब श्रीवेदान्ती स्वामीजी ने कहा कि, “जब भी हमें ऎसे कोई श्रीवैष्णव मिले जिनको हम से कोई परेशानी हैं तो ऎसा समझना चाहिए कि गलती हम में हैं उन श्रीवैष्णवों में नहीं ”। यह पंक्ति – ” नाने तान आईडुग” – तिरुप्पावै के १५ पाशुर में है।

  • श्रीकलिवेरिदास स्वामीजी कंदाडै तोलपपर के पास क्षमा मांगने के लिये गये हालाकि कंदाडै तोलपपर ही थे जिन्होंने श्रीकलिवेरिदास स्वामीजी के प्रति रोष समर्पण किया।

  • कूरकुलोत्तुम दासर ने श्रीशैलेश स्वामीजी फिर से सम्प्रदाय में लाने के लिये बहुत प्रयत्न किया, यह श्रीलोकाचार्य स्वामीजी कि इच्छा थी।

  • श्रीशैलेश स्वामीजी और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के बीच में काफी लगाव था।

हमारे पूर्वाचार्यों ने सिर्फ भगवदभागवत कैंकर्य पर हीं अपना पूरा ध्यान केंद्रित किया और कहीं नहीं। उनके लिये उनके शारीरिक आराम कुछ भी नहीं था। अगर हम इसे अच्छी तरह समझ जायेंगे और भागवत कैंकर्य में लग जायें जैसे अपने पूर्वाचार्य चाहते थे तो हमारा स्वरूप सुधर जायेगा।

इसलिये जब भी हम दूसरे श्रीवैष्णवों में दोष डूंडते हैं तो हमें यह सोचना चाहिए कि हमने सबसे बडी गलती की है। हमें सीता माता के चरित्र को निरन्तर सोचना चाहिए उन्होंने राक्षसो द्वारा किया गया अत्याचार भगवान श्रीराम को भी नहीं बताया।

इसको ध्यान में रखते हुए अगले लेख में श्रीवैष्णव अपचार पर चर्चा करेंगे।

अडियेंन  केशव रामानुज दासन

पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी  रामानुज दासी

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