श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
अपचारों से बचना
अपने पिछले लेख में हमने यह देखा कि श्रीवैष्णवों को अपने आंतरिक स्वरूप को कैसे विस्तार करना चाहिए। हमने यह भी देखा कि हमें इन महत्वपूर्ण गुणों से भरपूर श्रीवैष्णवों के सत्संग पाने में हमेशा प्रयत्न करना चाहिए। इस लेख में हम यह समझेंगे कि एक श्रीवैष्णव को किस तरह के अपचारों से बचना चाहिए।
हम श्रीवैष्णव के लिए शास्त्र ही आधार है और उसी शास्त्र के आधारित सभी कार्य करते हैं| शास्त्र हमें यह ज्ञान (निर्देश) देता है कि किस विधि को पालन करना चाहिए और क्या हमारे लिये निषेध है। मुख्यतया शास्त्र हमें अपने नित्य कर्म करने की आज्ञा करता है और चोरी, दूसरे के संपत्ति के प्रति लगाव, हिंसा, आदि करने से रोकता है। हमारे पूर्वाचार्यों ने शास्त्र के इन सारांश को हमारे लिए संग्रह किया है।
श्रीवचणभूषण में श्रीलोकाचार्य स्वामीजी ने सूत्र ३००–३०७ तक हम श्रीवैष्णवों को नीचे दिए गए इन चार प्रकार के अपचारों से दूर रहने को कहा है :-
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अकृत्य करणम् – शास्त्र में अस्वीकृत किये हुए कार्यों में लिप्त न होना।
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भगवद अपचार – भगवान की तरफ किये गये अपचार।
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भागवत अपचार – भागवतों के प्रति किये गये अपचार।
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असह्य अपचार – बिना वजह भगवत–भागवतों के प्रति किये गये अपचार।
इन अपचारों को हम एक एक करके देखेंगे:
अकृत्य कर्म:-
सामान्यतः शास्त्र हमसे यह उम्मीद करता है की हम इन नीचे दिए गए अपचारों से विरत रहे :-
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पर-हिंसा – किसी को कष्ट देना। किसी को बिना वजह तकलीफ देना, चाहे वह छोटे पौधा हो या चींटी, बिना कोई आवश्यकता उसे तकलीफ देना शास्त्र के विरुद्ध जाने का समान है।
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पर स्तोत्रं– भगवान श्रीमन्नारायण ने हमें यह बोलने की शक्ति उनके और उनके भक्तों के गुणों की प्रशंसा करने के लिए ही दिया है। इसे हमें अवैष्णवों की प्रशंसा करने में उपयोग नहीं करना चाहिए ।
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पर धारा परिग्रहं– हमें कभी भी दूसरे स्त्रीयों (जो हमसे विवाह नहीं की हो) के बारें में किसी गलत इरादे से नहीं सोचना चाहिए ।
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पर द्रव्य अपहारं– हमें कभी भी दूसरों के सम्पत्ति को ( उनके इच्छा के खिलाफ ) छीनना नहीं चाहिए।
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असत्य कथनं– सत्य तथा सच्चाई के विरूद्ध बोलना और जिससे किसी भी जीवित प्राणी को मदद न मिले।
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अपक्षय पक्षणं– वह भोजन खाना जिसमें जाति, आश्रय या निमित्त दोष हो – इसके बारे में और विस्तृत चर्चा के लिए आहार नियमम के इस लिंक को दबाएँ।
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ऎसे कई प्रतिबंध रोक मनु स्मृति में कहा गया है।
यह श्रीवैष्णवों के लिये बहुत मुख्य बात है कि वह सामान्य शास्त्र का पालन करें और निषेध विषयों का त्याग करें।
भगवद् अपचार:-
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी अगले निषेध विषय के बारे में समझाने शुरू करते हैं – भगवद अपचार और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसके बारें में सुन्दर टीका करते हैं।
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देवताओं को एम्बेरुमान श्रीमान नारायण के बराबर समझना– श्रीवैष्णवों को प्रधानतम यह बात समझना चाहिए कि भगवान श्रीमन्नारायण ही सर्वेश्वर हैं, यानि वे ही सभी के स्वामी हैं (ब्रम्ह, शिवजी, इन्द्र, वरूण, अग्नि, आदि) और वे ही सभी के अंतरयामी हैं (वह जो सभी के अंतरंग में होते हैं और हम सभी को वें ही नियंत्रण करते हैं)। उनके बराबर और उनके उपर कोई नहीं है। इसी सोच के साथ हमें कभी भी देवतांतर में नहीं पढना चाहिए और नाहीं उनको प्रसन्न करने की कोशिश करना चाहिए।
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भगवान के अवतारों जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि को साधारण मनुष्य समझना। हम सब को यह ज्ञात रहना चाहिए कि भगवान जब इस संसार में अवतार लेते हैं तो अपनी सारी गुणों के साथ ही अवतरित होते हैं। वह जब इस लीला विभूति में जन्म लेते हैं तो अपनी लीला के भाग के कारण वें गर्भ में प्रवेश करते हैं, किसी एक विशेष दिन जन्म भी लेते हैं, कठिनाईयाँ से भी गुज़रते हैं, आदि पर वें किसी कर्म से नहीं बन्धे हैं। बजाय यह सब तो उनकी इच्छा से हीं हो रहा है ताकि संसार के कष्ट पीडा से जीवात्मा निकल सके। इसलिये जब भगवान अपने संकल्प से इतनी सारी कठिनाईयाँ ले लेते हैं, हमें यह कभी भी विचार नहीं करना चाहिए कि वे भी हमारे तरह इनसान हैं।
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वर्णाश्रम के सीमा का उल्लंघन करना – हर एक को वर्ण के और आश्रम (सम्प्रदाय) के नियमों को सम्पूर्णता से पालन करना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, “श्रुति, स्मृति मम एवं अज्ञान…अज्ञान चेथि मम द्रोही, मद भक्तोपी न वैष्णवः”। श्रुति और स्मृति भगवान के नियम हैं और जो कोई इनका पालन नहीं करता, वे सभी उनके द्रोही हैं और वे भगवान के भक्त होने पर भी वैष्णव कहलाने योग्य नहीं हैं। इस विशेष स्थिति में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते हैं कि, चौथे वर्ण के श्रीवैष्णव तिरुआराधन के समय वेद मंत्रों के उच्चारण करना, सन्यासी सुपारी खाना इत्यादि शास्त्र में मना किया गया है।
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एक अर्चा विग्रह को उसे बनाने के लिए उपयोग किये गए पदार्थों के आधार पर उस विग्रह का मूल्य निणर्य करना – हमें यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि भगवान अपने भक्तों के सच्चे प्रेम को देखकर, भक्त जिस रुप में भगवान को देखना चाहते हैं उस रुप में अवतार लेते हैं। अगर हम भगवान के विग्रह को देखकर मन में भी यह भाव प्रकट कर दिया कि यह तो बहुमूल्य सोने से बना हुआ विग्रह है इसलिए यह अधिक सुन्दर हैं या यह तो एक साधारण पत्थर से बना हुआ विग्रह है या केवल कागज के उपर एक चित्र है तो इसे भगवद अपचार कहते हैं| इसे उतना तुच्छ माना जाता है जैसे हम खुद अपनी माँ की पवित्रता पर शंका कर रहे हो|
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जीवात्मा को स्वतंत्र समझना– हमारी स्वतंत्रीय बुद्धी ही हमारे सभी पापों का मुख्य कारण है और यह शास्त्र में सबसे बडी चोरी माना जाता है। हमें यह समझना चाहिए कि जीवात्मा भगवान के आधीन है और हमें उनके कहे अनुसार ही चलना चाहिए।
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भगवद द्रव्यों को चुराना (द्रव्य जो भगवान के हैं)- इस में सब शामिल हैं जैसे भगवान का भोग चुराना, तिरुवाबरन, वस्त्र, आदि। और स्थावर संपत्ति जैसे जमीन चुराना जो आजकल सामान्य हो गया है।
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उन लोगों की मदद करना जो उपर बताये गये कार्यों में दुसरों की मदद करते हैं।
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जो भगवान कि सम्पत्ति है, जो चोरी की गयी हो या दुसरों को चोरी के लिये मदद करके लायी गयी हो वह सम्पत्ति ग्रहण करना। यह भी खयाल मन में आ जाये कि, “मैंने तो खुद नहीं माँगा परन्तु अगर वो मुझे दे रहा है तो स्वीकार करने में क्या गलती है? ” – ऐसा सोचना भी भगवान को अस्वीकारनिय है।
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ऎसे बहुत से आचरणों का निंदा शास्त्र में किया गया है।
भागवत अपचार:-
सबसे पहले हमें यह बात समझना चाहिए कि अन्य श्रीवैष्णवों को अपने बराबर समझना ही सबसे बडा अपचार है। हमें हमेशा खुद को उनसे नीचे समझना चाहिए , हमको नैच्चानुसंधान भाव रखना चाहिए। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी बहुत ही स्पष्ट रूप से इस सिद्धान को समझाते हैं कि, “भागवत अपचार, वो बैर की भावना है जो हमारे मन में दूसरे श्रीवैष्णवों के प्रति , लालच और लालसा के कारण बढ़ता है”। भागवत अपचार के बारें में विस्तार से श्रीवचणभूषण के सूत्र १९०–२०७ में समझाया गया है।
पहले हम भागवत अपचार के प्रसंग को देखते हैं:
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जो भी श्रीवैष्णव वेश भूषा (वस्त्र, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक, आदि) धारण करता है लेकिन भागवत अपचार में लगा रहता है वह उस वस्त्र के समान है जो बाहर से देखने में इस्त्री की गयी शुद्ध और निष्कलंक वस्त्र के समान दिखे मगर अंदर से जला हुआ है | ऐसे वस्त्र जब ज़ोर से आंधी या तूफ़ान आये तो चूर-चूर होकर उड़ जाएगा।
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हमें यह बात भी समझना चाहिए कि भगवान के अवतार जैसे वराह, नरसिंह, राम, कृष्ण आदि का का रहस्य, उनके अवतारों का मूल कारण और हिरण्यकशिपु , रावण जैसे राक्षसों को दण्ड देने का कारण भागवद अपचार ही था| भगवान कभी भी अपने भक्तों की पीड़ा और कष्ट सह नहीं पा सकेंगे| इसी कारण उन्हें इस सन्सार में अवतार लेना पडा। श्रीकृष्ण के अवतार रहस्य को हम श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से कहे गये श्रीभगवत गीता के चौथे अध्याय के – “यदा यदा…”, “परित्राणायाम साधुनाम…” , “…जन्म कर्मा च मे…” आदि श्लोकों से अच्छी तरह जान सकते हैं।एम्बेरुमानार और वेदांताचार्यार ने अपने गीता भाष्य और तात्पर्य चन्द्रिका में इन श्लोकों के बारे में विस्तार से चर्चा की है|
बहुत प्रकार के भागवत अपचार हैं जैसे– श्रीवैष्णवों को उनके जन्म, ज्ञान, कर्म, खान–पान, रिश्तेदारी, रहने की जगह आदि के आधार पर भेद–भाव करना / अनादर करना।
इनमें श्रीवैष्णवों कौ उनके जन्म के आधार पर भेद–भाव करना / अनादर करना सबसे क्रूर अपचार है। यह अपचार, एक अर्चा विग्रह को उसे बनाने के लिए उपयोग किये गए पदार्थों के आधार पर उस विग्रह का मूल्य निणर्य करने के अपचार से भी बडा माना जाता है| अर्चा विग्रह का मूल्य निणर्य करना भगवद अपचार के नीचे आता है और हमने यह भी देखा है कि वो अपचार अपनी माँ की पवित्रता पर शंका करने की समान है | इससे भी तुच्छ है भागवतों ( श्रीवैष्णवों ) को उनके जन्म के आधार पर भेद-भाव करना / अनादर करना |
हमारे पूर्वाचार्यों ने अन्य श्रीवैष्णवों के प्रति व्यवहार करते समय बहुत कडक नियम का पालन किया है। वह हर समय सर्तक रहते थे। उधारण के तौर पर एक आचार्य भी अपने शिष्य के प्रति सम्मान जनक भाव रखते थे । परन्तु आज कल जो हम देख रहे हैं वो बिलकुल विपरीत है | शिष्य आचार्य का सम्मान नहीं करता है और कारण भी कहता है की ” वे भी धन के पीछे पड़े हैं और उनको अधिक ज्ञान नहीं है | अगर वे ऐसे हो तो मैं कैसे मर्यादा दे सकता ?” आदि।
भागवत अपचार के परिणामों को विस्तार से आगे समझाया गया है –
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त्रित्सन्गुजी का उधारण यहाँ पर समझाया गया है – वह अपने आचार्य (महर्षि वशिष्ट) से अड गये और बाद में महर्षि वशिष्ट के पुत्रों से यह विनती की कि इसी शरीर के साथ उन्हें स्वर्ग भेजे लेकिन जब वें मना किये तो त्रीसन्गुजी उन ऋषिपुत्रों को फिर से विवश करने की कोशिश की और महर्षि वशिष्ट के पुत्रों ने त्रिशंकु को चाण्डाल बनने का शाप दिया। ब्रम्ह ज्ञान के जरिये उन्होंने जो यज्ञोपवीत धारण किया था वही उनके लिये चाण्डाल का कमर पट्टा हो गया। उसी तरह शास्त्र के विरुद्ध अगर एक श्रीवैष्णव भागवद अपचार करे तो उसका दण्ड बहुत ही कठोर होगी इसलिए क्योंकि एक श्रीवैष्णव होने के नाते हम पर उम्मीद और उत्तरदायित्व अधिक होता है | एक श्रीवैष्णव को शास्त्र के अनुसार ही अपना जीवनकाल बिताना चाहिए हालाकि शास्त्र के विरुद्ध नहीं| जब एक देश का प्रधान मंत्री जब किसी भ्रष्टाचार में फस जाए तो उसे सभी इतने नीचे देखेंगे परन्तु अगर कोई सामान्य आदमी भ्रष्टाचार में फस जाए तो कोई उसकी इतनी परवाह नहीं करते कारण उस व्यक्ति की स्थिति |
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तोन्डरडिप्पोडि आळ्वार (श्री भक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी) कहते हैं कि, “अगर कोई ब्राम्हण कुल में पैदा होकर, ब्रह्मोपदेश प्राप्त किया हो और वेद में पूर्ण निपुण हो परन्तु अगर वह श्रीवैष्णवों (जो केवल अपने और भगवान के सम्बन्ध के बारे में जानता हो और जिसको कोई ज्ञान और अनुष्टान नहीं हो) के प्रति अपचार करता है तो वह तक्षण चण्डाल बन जाता है”। हमें कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि जो कोई भी इतने श्रीवैष्णवों के प्रति अपचार करने के बावजुद भी उसमे कोई बदलाव नहीं देख सकते हैं, यह बदलाव बाह्य होना जरूरी नहीं है। गरूडजी एक बार एक चण्डाली (वह भगवान की अनन्य भक्त थी) के बारें में यह सोचा कि, यह दिव्यदेश छोडकर क्यों इतने एकांतिक जगह में रहती है, उनके पंख तुरन्त अलोप हो गये।
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जब पिळ्ळै पिळ्ळै स्वामीजी निरन्तर भागवत अपचार करते थे, तब श्रीकूरेशस्वामीजी उनके अपचारों को कई तरीके से सही करते थे और ध्यान से उस अपचार से बचने की विशेषता समझाते थे।
अंत में यह बात समझना अत्यन्त आवश्यक है कि जैसे हमें यह पूर्ण विश्वास है कि, “जिस प्रकार मोक्ष प्राप्ति ज्ञान और अनुष्ठान के निरपेक्ष सिर्फ आचार्य संभंध पर निर्भर है उसी तरह पूरे ज्ञान और अनुष्ठान से भरपूर होने के नाते भी अगर हम भागवत अपचार करते रहे तो निरपेक्ष पाताल में गिर जाना सत्य है”।
असह्य अपचार:-
असह्य यानि बिना कोई कारण। यह वह अपचार है जो बिना कारण हम भगवद, आचार्य और भागवतों के प्रति करते हैं।
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भगवद विषयं में– हिरण्यकशिपु भगवान का नाम भी सुनना नहीं चाहता था। जबकि भगवान ने उसको विशेष रूप से कोई नुकसान नहीं पहुंचाई।
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आचार्य विषयं में– आचार्य कि आज्ञा का पालन नहीं करना, उनसे प्राप्त ज्ञान को अप्रतिबंध लोगों को, धन, सम्पत्ति, वैभव, आदि प्राप्त करने के लिए, समझाना।
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भागवत विषयं में– अन्य श्रीवैष्णवों के प्रति ईर्ष्या भाव रखना, आदि।
यह बात समझायी गयी है कि यह सभी अपचार (क्रम से) पहले अपचार से कठोर है। भगवद अपचार अकृत्य कर्म से ज्यादा क्रूर है, भागवत अपचार भगवद अपचार से ज्यादा क्रूर है और असह्य अपचार भागवत अपचार से ज्यादा क्रूर है।
हमारे पूर्वाचार्य शास्त्र के प्रति बहुत आदर भाव रखते थे और कोई भी अपचार करने से बहुत डरते थे। अपने गुरू परम्परा के आचार्य (इतिहास से हम सब देख सकते हैं), अपने इस सांसारिक जीवन के अंत समय में अपने सभी शिष्य और श्रीवैष्णवों को बुलाकर उनसे क्षमा माँगते थे, हालाकि उनसे कोई अपचार ही नहीं होता था। एसी थी उनकी नम्रता ।
हमारे लिये भी यह बातें अच्छी तरह समझना बहुत जरूरी है, और इसे अपने जीवन में लागू करना चाहिए। ज्ञान का अंत जब अनुष्ठान में होता है और जब अनुष्ठान प्रारंभ होता है तभी ज्ञान का प्रबुद्ध होता है | अगर इस प्रकार नहीं होता तो ज्ञान और अज्ञान में कोई अंतर नहीं है|
यह बात भी हमें अच्छी तरह समझना चाहिए कि, असह्य अपचारों में जब हमने यह देखा कि अप्रतिबंध लोगों को ज्ञान और शिक्षा देना अपचार माना जाता है , इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे पूर्वाचार्यों ने किसी को भी कुछ नहीं सिखाया था | अगर ऐसा हो तो इतने सारे ग्रन्थ हमारे पूर्वाचार्यों ने लिखा नहीं होगा और आज के समकालीन आचार्य पुरुष भी हमें सांप्रदायिक विषयों के ज्ञान प्रदान नहीं करते | जीवन में इन ग्रंथों को पढ़कर उच्च गुण प्राप्त करना और संतुष्ट रहना ही इन ग्रंथों का लक्ष्य है|
अगले लेख में उत्कृष्ट जन्म और निकृष्ट जन्म के बारें में चर्चा करेंगे।
अडियेंन केशव रामानुज दासन
पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी रामानुज दासी
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