श्री वैष्णव लक्षण – ८

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्री वैष्णव लक्षण

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श्रीवैष्णवों की श्रेष्ठता को समझना – (भाग)

पिछले लेख में हमने कई विशय के अपचारों के बारें में चर्चा की थी| हर एक श्री वैष्णव को इन अपचारों से बचने में ध्यान देना चाहिए। उन सभी अपचरों में हमारे पूर्वाचार्यों, श्रीवैष्णवों को उनके जन्म के आधार पर भेद–भाव करना / अनादर करना, सबसे क्रूर अपचार मानते हैं|  हालाकि हमें जन्म के आधार पर भेद भाव नहीं करना चाहिए , परन्तु हमें वर्णाश्रम के धर्म को सम्मान देना चाहिए। यह एक पतली रस्सी पर चलने का समान है। एक उधाहरण इस बात को समझने में हमें मदद करेगा। एक बडे सन्स्थान में एक मालिक है और एक मजदूर है, दोनों इन्सान होने के कारण दोनों को बराबर सम्मान मिलना चाहिए, परन्तु अगर वह मजदूर उस मालिक की कुर्सी पर बैठे तो वह उस संस्थान में स्वीकार नहीं किया जायेगा हालाकि उस संस्थान में सभी को बराबर माना जाता है। इसी तरह की बात भागवत अपचार में समझायी गयी है कि एक श्रीवैष्णव को वर्णाश्रम का सम्मान करना चाहिए और वह उस में अच्छी तरह बंधा है।

हमारे पूर्वाचार्यों के शास्त्र के आधार पर इस विषय के तात्पर्य को, श्री पिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने अपने ग्रन्थ श्रीवचन भूषण में और अळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् ने अपने ग्रन्थ आचार्य हृदयं में समझाए हैं। उन्होंने सिर्फ आल्वारों और पूर्वाचार्यों के विचारों को दस्तावेज बनाया।

एक सामान्य गलत फहमी हैं कि, चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र) में ब्राम्हण ही सबसे उच्च वर्ण है और शूद्र ही सबसे नीच वर्ण है। परन्तु हमारे पूर्वाचार्यों के कुछ अलग ही सोच विचार थे। इसे हम अब कुछ विस्तार से देखेंगे।

हमारे पूर्वाचार्यों ने यह अच्छी तरह स्थापित कर दिया कि वैदीह (वह जिसने वेद और प्रमाण को स्वीकार किया) वो होते हैं जो विष्णु परत्व को समझते और मानते हैं (सिध्दान्त अलग भी हो सकते हैंअदवैत, द्वैत और विशिष्टाद्वैत) । परन्तु अगर वो वैदीह बिना शास्त्र के मूल तत्त्व को समझे उसे पड़े या जपे तो, पढनेवाला उस शास्त्र का सही उपयोग नहीं कर रहा है। इस तरह के व्यक्ति जो शास्त्र पढकर भी विष्णु परत्व को स्वीकार नहीं करते हैं उन्हें १) केसर को ले जाने वाली गधे ( गधे केसर का मूल्य कभी नहीं जानती) । २) शव के उपर सजावट (क्योंकि उसमें आत्मा नहीं होती हैं इसलिये वह काम कि नहीं हैं)। ३) विधवा को सजाना – इनके समान समझा जाता हैं।

एक श्रीवैष्णव को, उसका शारीरिक जन्म मोक्ष का आशीर्वाद देने के लिये एक तुच्छ मात्र भी नहीं है। यह मोक्ष तो हमें सिर्फ श्रीरामानुजाचार्यजी के सम्बन्ध मात्र से ही मिल सकता है। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने दो बातों को स्थापित की है – “उत्कृष्ठमाग ब्रमित जन्मं(गलत फैहमी से उच्च जात माना जाता है) और “अपकृष्ठमाग ब्रमित जन्मं(गलत फैहमी से तुच्छ जात माना जाता है)। वह आगे समझाते हैं कि ब्राम्हण/ क्षत्रीय/ वैश्य (जिने उच्च कुल समझा जाता है) असल में असुरक्षित कुल हैं क्योंकि इस जाती में पैदा होने वालों को उपायान्तर जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति योग में भाग लेने की शिक्षा दिया जाता है। और दूसरी कमी यह है कि यह जन्म हममे अहंकार पैदा करता है और हमें नैच्यानुसन्धान का अभ्यास करने नहीं देता है। परन्तु यह दो दुष्परिणाम गलती से नीच जाती माने गए कुल में देखने नहीं मिलता है। इसलिये अंत में यह निर्णय किया जाता है किवह जन्म जिसमें यह दोनों (उपायान्तर और अहंकार ) कमियाँ दूर होती है वही सर्वोत्तम है।

और जो उच्च कुल (माने गए) में जन्म लेते हैं उनके भी यह दो (उपायान्तर संबंध और अहंकार) कमियाँ एक श्रेष्ठ श्रीवैष्णव अधिकारी के सत-संबंध से ही दूर होता है। श्रीरंगनाथ भगवान ने श्रीलोकसारंगमुनि से श्रीयोगीवाहान स्वामीजी को अपने कन्धों पर उठाने को कहे और इस विचार को स्थापित किया है।

नीचे दिए गए पासुरों से आलवारों ने उन श्रेष्ठ श्रीवैष्णवों के निर्मल गुणों की स्तुति की है –

  • पयिलुं चुडरोळि (तिरुवैमोलि २.)

  • नेडुमार्कु अड़ीमै (तिरुमोलि ८.१०)

  • नण्णाथ वलावरुणर (तिरुमोलि २.)

  • कन्सोरा वेंगुरुति (तिरुमोलि ७.)

  • तेट्टरुम तिरल तेन (पेरूमाल तिरुमोलि २)

  • तिरूमालै (पाशुरं ३९४३)

बहुत से पौराणिक प्रमाण श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने दिया, यह स्थापित करने के लिये कि किसी का जन्म महत्त्व नहीं है सिर्फ उनके भगवान के प्रति भक्ति ही महत्त्व है।

  • रावण विभीषण को कुल द्रोही समझता था परन्तु भगवान श्रीराम उन्हें इक्ष्वाकु वंश का अवयव समझते थे (क्योंकि वें उन्हें अपने भाई समझते थे)

  • भगवान श्रीराम ने श्रीजटायुजी (पेरिया उडयार) की चरण सेवा की।

  • धर्मपुत्र (श्रीयुधिष्टिर) ने श्रीविदुरजी की चरण सेवा की।

  • बहुत से ऋषि नियमित रुप से धर्मव्याथनजी (वह एक कसाई था) से शास्त्र की बहुत सी शंकायें दूर करने के लिये  भेंट या प्रतिक्षा किया करते थे क्योंकि धर्मव्याथनजी बहुत ज्ञानी थे।

  • श्रीकृष्ण भगवान श्रीविदुरजी (भक्ति की योग्यता) के घर गये नाकि भीष्म (उम्र और ज्ञान की योग्यता), द्रोण (जन्म और ज्ञान की योग्यता) या दुर्योंधन (अधिकार की योग्यता) के घर।

  • भगवान श्रीरामजी ने शबरीजी (वह एक किरात के घर में जन्म ली थी) के जुटे फल खाये। हमारे पूर्वाचार्यों ने उनको एक पूर्ण आचार्य निष्ठावली कहा है।

  • पेरिय नम्बि (श्री महापूर्ण  स्वामीजी/ श्री परांकुशदास)  ने मारनेर नम्बी, जो कि श्रीयामुनाचर्यजी के शिष्य थे और बहुत बडे श्रीवैष्णव थे, की चरण सेवा की । जब श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी ने (जिन्होंने सत्य जानते हुए भी अपने आचार्य के मुख से उस बात को दुनिया वालों को समझाने के लिए) उन्हें प्रश्न किया तब पेरिय नम्बि ने बहुत से प्रमाण दिए और यह स्थापित किये कि उनका कार्य सही है और शास्त्र के अनुसार है।

और कई स्थितियों में आलवारों ने बहुत स्पष्ट रूप से यह स्थापित किया की उनको उन जगहों में जन्म लेने की उत्साहता है जहाँ भगवान खुद लीलाएँ की थी, जैसे:

  • व्यास और शुक वृन्दावन में धूल बनना चाहते थे जिस पर भगवान कृष्ण और गोपियों के चरण स्पर्श हुआ था।
  • श्रीकुलशेखर आल्वार तिरुमाला में कोई भी वस्तु बनना चाहते थे (मछली, पक्षी, फूल, रास्ता, दरवाजा, आदि )
  • श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी और महारानी गोदम्बाजी ने वृन्दावन के ग्वालों के घर में जन्म लेने की इच्छा प्रकट की।
  • श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी ने कहा कि ब्रह्मा होने से बेहतर तो यह है की वे एक श्रीवैष्णव के घर में कीड़ा बने|

अळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी आचार्य हृदयं में चूर्णिका के रुप में बहुत सुन्दर तरीके से इस तात्पर्य को समझाया है। हम अपने अगले लेख में इसी चूर्णिका के बारे में और विस्तार से चर्चा करेंगे|

अडियेंन  केशव रामानुज दासन

पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी  रामानुज दासी

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