श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
श्रीवैष्णवों की श्रेष्ठता को समझना – (भाग–२)
पिछले लेख में हमने श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यजी के काम (जो कि आचार्य और पूर्वाचार्य के काम पर आधारित है) से यह देखा कि, किसी के जन्म के आधार पर एक श्रीवैष्णव महान नहीं बनता है। परन्तु भगवान के प्रति उसके ज्ञान और भक्ति पर ही उसकी महानता निर्भर करता है| यही तात्पर्य अपने आचार्यों के द्वारा भी सम्मानित किया गया है।
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के छोटे भाई श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी हमारे सम्प्रदाय के एक बहुत ही महान आचार्य थे। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी और श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् दोनो वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै (श्री कृष्णपाद स्वामीजी) (श्रीकलिवेरिदास स्वामीजी के खास शिष्य) के पुत्र हैं। दोनो भाई बचपन से ही श्रीरंगम के गलियों में घूमते थे जैसे श्रीरामजी और श्रीलक्षमणजी (इलयाल्वार) अयोध्या में और बलरामजी और श्रीकृष्ण गोकुल में घूमते थे। दोनों भाइयों ने नैष्टिक ब्रह्मचर्य का पालन करने की शपत ली थी ताकि वे पूरी तरह से श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के लिए प्रतिबद्ध हो जाए| श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी श्रीकलिवेरिदास स्वामीजी के कृपा से जन्म लिये और और अळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् नमपेरुमाल की कृपा से जन्म लिये। श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने मुख्यता “अष्टादश रहस्य” (१८ रहस्य ग्रन्थों की रचना की) और श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् ने बहुत सुन्दर और विस्तार रूप से तिरूप्पावै, कन्नीणु चिरूताम्भु, अमल आदि पिराण, आदि ग्रन्थों पर टीका लिखी। उन्होंने “आचार्य हृदयं” (श्रीवचनभूषण को समझाती ग्रन्थ) और अरुळिचेयाल रहस्यं (बहुत हीं सुन्दर तरीखे से आल्वारों के पाशुरों से सही मतलब लेकर रहस्यत्रय पर टीका) लिखी।
आचार्य हृदयं (आचार्य= श्रीशठकोप स्वामीजी, हृदयं= तिरूवुल्लम) के आगमन के पहले का इतिहास हमें समझना चाहिए जैसे यतिन्द्र प्रवण प्रभावं (एक दस्तावेज जो ५०० साल पुराना है– जो श्रीकलिवेरिदास स्वामीजी से लेकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तक सबका जीवन चरित्र देता हैं में समझाया गया है। जब श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने श्रीवचनभूषण को पढाना शुरू किया जो हमें सहस्त्रगीति के मूल तत्त्व के बारे में समझाता है, कुछ लोग श्रीरंगम में श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी की सफलता सहन नहीं कर पाये, उन्होंने नम्पेरुमाल से शिकायत की, तब नम्पेरुमाल ने अपने प्रतिनिधि को भेझकर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी को अपनी सन्निधी में बुलाया– लेकिन तब श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी स्नान कर रहे थे तो श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् ने उनके निमित्त मंदिर में गये। और जब नम्पेरुमाल ने श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी से पूछा कि क्या बात है, तब श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी उनके सामने आचार्य हृदय गाना शुरू कर दिया, (उसी तरह जैसे श्रीभक्तांगिरेणु स्वामीजी ने श्रीरंगनाथ भगवान के सामने तिरूमालै गाया) जो आगे श्रीवचनभूषण के अन्दर के मतलबो को और मज़बूती प्रदान किया। यह सुनकर भगवान इतने आनन्दित हुए कि उन्होंने आज्ञा दिया कि श्रीअळगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी को उनके तिरुमालिगै (घर) तक ब्रम्ह रथ में ले जाए। यह सारी बातें सुनकर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी भी बहुत खुश हुए कि भगवान ना ही ग्रन्थ को सुनकर आनन्दित हुए बलकि ग्रन्थ को पुष्टता के साथ अंगीकार किया। जब नम्पेरुमाल ने स्वीकार कर लिया तो और कौन उसे बदल सकता है?
इस सुन्दर ग्रन्थ आचार्य हृदय में, ८५वें चुर्णिका में, नायनार् समझाते हैं कि कौन अच्छी तरह श्रीवैष्णवों का महत्व समझ सकता है। यह चुर्णिका इस तरह रची गयी हैं कि बहुत सी घटनाये दिखायी गयी है और नायनार् स्वामीजी कहते हैं कि जो इन घटनाओं के तत्व को समझ सकता है वही अच्छी तरह श्रीवैष्णवों का महिमा समझ सकता है (कि उच्च जन्म और नीच जन्म क्या हैं) ।
इसी अर्थ को समझने के लिए आगे और कुछ उदहारण देखेंगे :-
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भगवान कहते हैं कि उनके सच्चे भक्तों में आठ गुण होना चाहिए और अगर हम देखते हैं कि एक मलेच्छ जाती के आदमी (वह जो कि वर्णाश्रम धर्म में नहीं आता) में भी अगर वह आठ गुण हैं तो उसे हमें भगवान के समान समझना चाहिए (हमें उन्हें भगवान से भी ज्यादा सम्मान और उनकी सेवा करना चाहिए) यानि उनकी पूजा करनी चाहिए, उनका श्रीपादतीर्थ और उनका शेष प्रसाद लेना चाहिए। आठ गुण हैं:
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भगवान के भक्तों में बेशर्त प्रेम।
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भगवान की पूजा का आनन्द लेना।
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भगवान की पूजा खुद करना।
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अहंकार रहित रहना।
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हमेशा भगवान के बारें में सुनने में लगाव रहना।
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जब भी भगवान के बारें में सुनते, सोचते, बोलते हैं शारीरिक बदलाव लाना (गद्गद् होना)।
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हमेशा भगवान के बारें में हीं सोचना चाहिए ।
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भगवान से पूजा और भक्ति के बदले में कुछ भी सांसारिक वस्तु नहीं मांगना।
जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
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नमपाडुवान (जिन्होंने तिरूक्कुरुन्गुडी के मलैनम्बी के लिये कैसिका राग गाया और तोन्डरडिप्पोडि आळ्वार (श्री भक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी) और श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी से तुलना की क्योंकि दोनों ने भगवान के लिये तिरुपल्लीएलुच्ची गाया ) जिन्होंने एक उच्च कुल में जन्म नहीं लिया, एक ब्राम्हण को केवल अपने गानों से ब्रम्ह राक्षस (एक ब्राम्हण जिसने यज्ञ के दोरान अपने अव्यवहारिक तरिके से मंत्र का उच्चारण किया और वह राक्षस बन गया) के शाप से मुक्त किया। जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
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निषाध (गुहन) एक किरात के घर में जन्म लिया परन्तु वह भगवान श्रीराम से बहुत स्नेह करता था जब भगवान श्रीराम रात्री में शयन कर रहे थे तब भगवान श्रीराम के प्रति प्रेम भावना के कारण उसने श्रीलक्ष्मणजी पर शंका की। इसलिये उसने पूरी रात जागकर लक्ष्मणजी पर निग्रानी रखी। और जब श्रीभरतजी (उन्हें श्रीराम और श्रीलक्ष्मणजी के गुणों के बारें में पहले ही पता है ) गुहन से मिलते हैं, तब गुहन उन्हें लक्ष्मणजी की श्रेष्ठता समझाते हैं, जैसे कि श्रीभरतजी को कुछ मालुम ही नहीं है। और यह सुनकर श्रीभरतजी इतने खुश होते हैं कि वह भी उन्हें श्रीराम कि तरह अपना भाई मान लेते हैं। जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
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भगवान श्रीराम ने शबरी माता (जिसने एक किरात के घर में जन्म लिया) जो श्रीराम से बहुत लगाव रखती थी और एक आचार्य निष्ठावान थी, उनके दिये हुए जूठे फल खाते हैं; भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीविदुरजी के घर प्रसाद पाया ना कि भीष्म, द्रोण, आदि के घर; जब भगवान श्रीरामजी को पता चला कि श्रीहनुमानजी (जो एक पशु हैं) सीता माता से मिलकर आये हैं तब उन्होंने श्रीहनुमानजी को आलिंगन किया। जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
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धर्मपुत्र भगवान श्रीकृष्ण (जो एक ब्राह्मण कुल से नहीं थे) को सबसे पहले मर्यादा देते हैं, पेरुमबुलियूर अडिगल ने सबसे पहले श्रीभक्तिसार स्वामीजी को मर्यादा दिया, जो एक लकडी काटने वाले के यहाँ बडे हुए। जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
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धर्मपुत्र श्रीविदुरजी की चरण सेवा करते हैं; भगवान श्रीजटायुजी की चरण सेवा करते हैं; श्रीमहापूर्ण स्वामीजी श्रीमारनॆरि नम्बी स्वामीजी कि चरण सेवा करते हैं। जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
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जो भी अच्छी तरह यह तीन चरित्रों को समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा:
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श्रीवेंकटेश भगवान ने तिरुमाला के पुष्प मण्डप में कुरुंबरुथ्था नम्बि से मिट्टी के पुष्प स्वीकार किये जो चक्रवर्ती राजा थोन्डैमान से पूजे जाते थे।
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कांचीपूरम के त्याग मण्डप में पॆरारुळळन तिरुक्कचि नम्बि (श्री कान्चिपूर्ण स्वामीजी) से पंखी का कैंकर्य स्वीकार किये जो कि श्रीरामानुजाचार्य द्वारा पूजे जाते थे।
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श्रीरंगं के भोग मण्डप में श्री स्वामी रंगनाथभगवान श्रीयोगीवाहन स्वामीजी से वीणा का कैंकर्य स्वीकार किये जो कि श्रीलोकसारंग मुनि द्वारा पूजे जाते थे।
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श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी तिरुआराधन करते समय खुद पवित्र और शुद्ध होने के बावजूद भी पिळ्ळै उऱन्गाविल्लिदासर् (श्री धनुर्दास स्वामीजी) को पवित्रता के लिए छुआ करते थे; श्रीकलिवेरिदास स्वामीजी प्रसाद पाने से पहले पिळ्ळै यॆरु तिरुवुदैयार दासर को प्रसाद छूने के लिये कहते थे; नडुविल् तिरुवीदि पिल्लै भट्टर् , पिळ्ळै वानमामलै दासर को अपने नवीन निर्मित घर के चारो ओर परिक्रमा करने को कहा ताकि वह सारा जगह शुद्ध हो जाए। जो भी यह सब कुछ समझ सकेगा वह अच्छी तरह उच्च और नीच जन्म के बारें में समझ सकेगा।
उपर बताये गये उधाहरण से, नायनार् स्वामीजी ने यह स्थापित किया कि, अगर किसी व्यक्ति में ज्ञान, भक्ति और अनुष्ठान हो तो उस व्यक्ति को सम्मानीत करना चाहिए, यह नहीं देखना चाहिए कि वह किस कुल में जन्म लिया है।
अगर हम अपने पूर्वाचार्यों के इतिहास को देखे, १५०–२०० साल पहले भी, तो हमें यह ज्ञात होता है कि उनके नियत भाव उच्च था। और यह केवल काल्पनिक नहीं बल्कि यह सब उन्होंने अपने जीवन में उतारा भी था और यह सब हम इतने बहुत से उधाहरण में देख भी सकते हैं और उनके ग्रन्थों में भी चर्चा किया गया है। अगर हम में भी यह इच्छा हो तो, हम भी अपने जीवन में थोडा तो पालन कर सकते हैं। और यह हमेशा दो रास्ते कि गलिया हैं। यह नहीं कि एक वर्ण के लोग दूसरे पर हावि हो गये हैं। हमारे पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में ऎसे बहुत से घटानाएँ देखी जा सकती है। सभी को अपनी जगह पता थी और सभी एक दूसरे को सम्मान भी किया करते थे। और अगर हम भी यह सदाचार हमारे जीवन में उतारेंगे या पालन करेंगे तो हमारा भविष्य भी उज्जवल हो जायेगा। हम यह सब होने के लिये भगवान, आल्वारों और आचार्यों के सामने रोकर या प्रार्थना करके कर सकते हैं।
अब जब कि हम यह सब कुछ देख चुके हैं और एक मुख्य विषय की ओर चलते हैं– श्रीवैष्णव दिनचर्या। कैसे एक श्रीवैष्णव अपनी रोज कि जिन्दगी में आचरण करें? वह अगले लेख में चर्चा करेंगे।
अडियेंन केशव रामानुज दासन
पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी रामानुज दासी
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