श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
श्रीवैष्णव दिनचर्या (भाग–१)
अब तक हमने एक श्रीवैष्णव के बाह्य स्वरूप और आंतरिक स्वरूप के बारें में देखा है। यह भी देखा है कि हमें कौन से अपचारों से बचना चाहिए। अंत में हमने यह भी देखा कि कैसे हमें दूसरे श्रीवैष्णवों को उनके जन्म को बिना ख्याल किए उनको सम्मान देना चाहिए।
एक बार अगर हम यह सब कुछ समझ जायेंगे, तब हमें यह देखना चाहिए कि कैसे एक श्रीवैष्णव इस संसार में रहकर अपना जीवन काल बिताये। श्रीरामानुजाचार्यजी, आल्वारों और आचार्यों ने अपने लेख और ग्रन्थों में यह बहुत ही अच्छी तरह समझाया है। इन में से कुछ बहुमुल्य बातें हम अपने पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों से देखेंगे :-
श्रीकृष्ण भगवान श्रीभगवद् गीता के १०.९ श्लोक में कहते हैं :-
मद् – चित्त मद् गत प्राण बोधयन्त परस्परं
कथयनतस् च माम नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति चमेरे भक्त केवल मेरे बारें में हीं सोचते रहते हैं, मुझे अपना जीवन मानते हैं, मेरे बारें में चर्चा करने से वक्ता और श्रोता दोनो को हीं बहुत आनन्द आता है।
वेदान्तं में (बृहदारण्यक उपनिषद), यह कहा गया है कि:
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यः मन्तव्यः निधिद्यासितव्यः
निरन्तर परमात्मा के बारें में सुनने से, जो भी सुना हो, उसके बारें में विचार करने से, परमात्मा पर ध्यान करने से, अंत में जीवात्मा परमात्मा से मिलेगा।
श्रीभागवत पुराण में श्रीप्रल्हादजी सभी को यह ९ कार्य में लगे रहने का निर्देश देते हैं:
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद -सेवनम
अर्चनं वन्दनं सख्यं दास्यं आत्म -निवेधनमभगवान के बारें में सुनना, भगवान पर भजन करना, उनके बारें में ही सोचना/विचार करना, उनके चरण कमल की सेवा करते रहना, उनकी पूजा करना, उनकी प्रशंसा करना, उनके दोस्त बनकर रहना, उनके दास बनकर रहना और पूरी तरह उनके चरण कमल पर आत्मसमर्पण करना, यही एक भक्त के मुख्य कार्य हैं।
श्रीशठकोप स्वामीजी, जिनको आळवन्दार श्रीवैष्णव कुलपति कहते थे, पेरिय तिरुवन्दादि के ८६वें पाशुर में पूछते हैं कि:
हम इस संसार में, जो कि पूरी तरह दुखों से भरा है, बिना भगवान के बारें में सोचे, कैसे अपना समय बितायेंगे? जो कि सुन्दर सावंले वर्ण लिए हुए , एक हाथ में पांचजन्य लेते हुए , सबको अपने जठर में रखे सबकी रक्षा करते हुए , आदिशेष में लेटे हुए उस पुरुषोत्तम के बारे में बिना सोचे कैसे जीवन काल बिता सकते हैं ? ऎसी ही दशा आल्वारों की है, जो कि एक पल के लिए भी , भगवान के बारें में न सोचने का खयाल नहीं कर सकते हैं और दूसरी तरफ, हम सांसारिक लोग यह सोचते हैं कि, हम बहुत से काम कर सकते हैं, परन्तु कोई हर वक्त भगवान के बारें में ही कैसे सोच सकता हैं?
श्रीभक्तिसार स्वामीजी, नान्मुगन तिरुवन्दादि के ६३वें पाशुर में यह कहते हैं:
वह कहते हैं कि वह अपना समय भगवान के बारें सोचने और विचार करने में, उनके बारें में लिखने में, उनके बारें में पढ़ने में, दूसरों से उनके बारें में सुनने में , बिना घमण्ड के उनकी पूजा करने में और उनकी तिरुआराधन करने में लगाते हैं।
श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण के २७४वें सुत्र में कहते हैं कि एक सच्चे शिष्य जो अपने आचार्य पर पूरी तरह निर्भर है, उसके लिए :-
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रहने कि जगह वह है जहाँ उसके आचार्य रहते हैं (अगर वह सम्भव नहीं हैं तो जहाँ भगवान रहते हैं) ।
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बोलने का विषय केवल अपने आचार्य की महिमा और अपना दोष।
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अनुसन्धान करना – गुरू परम्परा और द्वय महामंत्र के वाक्य को गाना और अनुसन्धान करना।
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अपने पूर्वाचार्यों के निर्देश और इतिहास को अपनाना।
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अवैष्णवों के सहवास का परित्याग करना और ना ही किसी भी गतिविधि प्रदर्शन करें जिससे अवैष्णवों को यह विचार प्रकट हो जाए कि हम उनमे से एक हैं।
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“कर्तव्यं आचार्य कैंकर्यं भगवद् कैकर्यं” – आचार्य, भगवान और उनके भक्तों की सेवा करना।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, अपने आर्तिप्रबंध में (श्रीरामानुजाचार्यजी से रोते हुए तुरन्त उन्हें इस संसार के दुखों से मुक्त करने के लिये कहते हैं), विस्तार से अपने कर्तव्यों को २८वें पाशुर में बताते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी हालाकि श्रीरामानुजाचार्यजी के हीं पुनरवतार हैं, परन्तु वें हमेशा श्रीरामानुजाचार्यजी की प्रशंसा करते रहते थे ताकि हम भी उनसे सीख लें। जिस तरह त्रेता युग में श्रीरामजी ने श्रीरंगनाथ भगवान कि पूजा करके हमें तिरुवाराधन का क्रम सिखाया था उसी तरह सिर्फ श्रीरामानुजाचार्यजी पर निर्भर रहकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने हमें सिखाया कि कैसे कोई श्री रामानुजाचार्य के चरण कमलों में निःसन्देह भरोसा रख सकते हैं।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते हैं कि, उन्होंने पूर्वाचार्यों के सभी ग्रन्थों को ढूढा जो मुसलमान शासन के दोरान घुम गयी या दुसरों में बांट दी गयी थी और एकत्रित किया। इन ग्रन्थों को हमारे पूर्वाचार्यों ने अपार करूणय से हमारे ही हित के लिये लिखा है। जो भी ग्रन्थ उन्हें मिल गयी, उसको उन्होनें ताड के पेड के पत्तों पर लिखा, अपने आचार्य तिरुवाइमोळि पिळ्ळै (श्रीशैलेश स्वामीजी) से वह सब सीखे और उनके ही निर्देशानुसार अपना जीवन बिताया और अपने शिष्यों को भी एसे हीं जीवन बिताने का आदेश दिया।
आगे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं कि, अपने आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी के द्वारा श्रीरामानुजाचार्यजी कि कृपा मिलने के पहले, उन्हें परमपद जाने कि कोई इच्छा नहीं थी, परन्तु एक बार जब उन पर कृपा हो गयी तब कभी भी एक क्षण भी परमपद जाने के सिवा और कोई इच्छा नहीं है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि हमें अपना जीवन कैसे बिताना चाहिए। हालाकि यह सब साधारण तत्व हैं, आगे हम श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यजी के श्रीवचन भूषण में से एक विशिष्ट सूत्र देखेंगे जिसमे श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यजी संक्षिप्त रूप से वर्णन देते हैं कि एक श्रीवैष्णव को किस ढंग से रहना चाहिए।
अडियेंन केशव रामानुज दासन
पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी रामानुज दासी
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