श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः
ऒरोरुवर (सबसे आदर्श आचार्य)
अपने पिछले लेख में हमने एक श्रीवैष्णव की दिनचर्या को देखा।
एऱुम्बि अप्पा (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अष्टदिग्गजों में से एक हैं) अपने शिष्यों को समझाते हैं कि कैसे एक श्रीवैष्णव को अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। यह वार्तालाप “विलक्षण मोक्ष अधिकारी निर्णय” ग्रन्थ में संग्रह की गयी है। यह एक उत्तम ग्रन्थ है जो श्रीवचन भूषण और अन्य पूर्वाचार्यों के श्रीसूक्ति के मूल तत्व पर रची गयी है। इसमें, एऱुम्बि अप्पा समझाते हैं कि हमारे सभी पूर्वाचार्य शिक्षित वैष्णव अधिकारी थे, जो उचित ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और आर्ति के साथ अपना जीवन काल बिता रहे थे। इस बात को नीचे दिए गए प्रमाणों से समझ सकते हैं :-
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वे सब पूरी तरह भगवद् विषय पर केंद्रित थे– कही भी हमें यह प्रमाण लिखित नहीं मिलेगा कि वे अपने जीवन में पैसे, शोहरत, आदि के पीछे भागे। अगर ऐसे भी कोई घटना मिले तो भी अंत में उन श्रीवैष्णव आचार्यों के महानता को स्पष्ट करने के लिए ही होगा। जैसे हीं उन्होंने यह अमूल्य ज्ञान अपने आचार्य से प्राप्त किया, उन्होंने अपने पास जो भी हो उन सब चीज़ों को त्याग कर आचार्य सेवा में लग गए।
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हालाकि इनमे बहुत से विवाधित थे, वे केवल यह सब लोक क्षेम के लिये किया – अपना वंश बढाने के लिये ताकि सम्प्रदाय की रक्षा और पालन पोषण हो सके।
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उन्होंने यह सब अपने शारीरिक सुख के लिये नहीं बल्कि सिर्फ संप्रदाय की उन्नति के लिए अच्छी सन्तान पैदा करने के लिये किया।
हालाकि हमारे सभी पूर्वाचार्य ऐसे ही थे उनमे से खास हैं श्रीकूरेश स्वामीजी, श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी, श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, पोन्नडिक्काल् जीयर् (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के खास शिष्यों में एक), आदि जो विहित भोग से पूरी तरह अलगाव प्रकट किया था। इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरे आचार्य विहित भोग से जुडे हुए थे। इसको इस तरह समझना चाहिए कि “ नही निन्दा न्यायं ”। इस विषय को एऱुम्बि अप्पा ने “विलक्षण मोक्ष अधिकारी निर्णय” में पूरे विस्तार से समझाया है। उन सभी आचार्यों से श्रेष्ठ थे श्रीवरवरमुनि स्वामी, जो उन सभी गुणों के भंडार थे – वे सारे गुण जिनके बारे में श्रीवचनभूषण में विस्तार से दिया गया है। अब हम देखेंगे कि इस साहसिक कथन को हम कैसे कह सकते कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन सभी वैष्णव अधिकारत्व गुणों को प्रकट करते हैं। यह सब हम आगे दिए गए पाशुर के मतलब को समझकर और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के जीवन चरित्र को पढकर जानेंगे।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने उपदेश रत्न माला में स्वामी पिल्लै लोकाचार्य और उनके ग्रन्थ श्रीवचन भूषन की बहुत ही तारीफ़ की है। ५५वें पाशुर में, श्रीवचन भूषण की स्तुति की गयी है। आइये हम उस पाशुर का अर्थ अब देखेंगे।
आर वचनभूडनथ्थीन आल पोरुल एल्लाम अरिवार
आर अतु चोल नेरिल अनुट्टीप्पार
ओरोरुवर उंडागिल अत्थनै कान उल्लमे
एल्लारक्कुम अंडाददन्ड्रो अदु
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं, “कौन श्रीवचन भूषण के आंतरिक भाव को समझ सकता है? कौन उनके मुताबिक जीवन व्यतीत कर सकता है? ऎसा एक भी व्यक्ति ढूंढना मुश्किल है क्योंकि उनमें बहुत से कठिन नियम हैं, जो हर कोई पालन नहीं कर सकता”। हलाकि श्री वरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं कि ऐसा कोई मिलना कठिन है हम यह समझना चाहिए कि कुछ लोग हैं जो उन सभी आचारों सहित अपना जीवन गुज़ारते हो | ऐसे लोग श्री वैष्णवों के कुल जनसंख्या में कम प्रतिशत होते हैं ।
इस पाशुर के व्याख्यान पर पिळ्ळै लोकम् जीयर् की टीका में वे यह स्पष्ट से कहते हैं कि, “केवल श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ही, जो कि श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के कृपा पात्र बने, श्रीवचनभूषण में कहे गए आचारों को समझ सकते हैं और उसका पालन भी कर सकते हैं”।
श्रीकांची प्रतिवादी भयंकर अण्णा स्वामीजी जो बहुत से ग्रन्थ, श्रीवैष्णव सम्प्रदाय पर आधारित लिखे हैं, इस पाशुर पर अपने टीका में कहते हैं कि हमें अपने जीवन को श्रीवचनभूषण के सिद्धान्तों के अनुसार चलना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि उसमें एसे सिद्धांत हैं जैसे:
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सूत्र ४५५–
वैवाहिक जीवन में विषय भोग लेना (जैसे शास्त्रों में इसके लिये कुछ नियम हैं कि कब और कैसे यह प्राप्त करें) शास्त्रों ने मना नहीं किया है और वह किसी को नरक ले जाने के लिये मार्गदायी नहीं है। परन्तु यह आत्म स्वरूप विरोधी है (कोई भी शारिरिक विषय भोग त्यागना) और क्योंकि हमारे पूर्वाचार्यों ने इसे केंन्द्रित नहीं किया और क्योंकि वह हमारे अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) के लिये विरोधी है, इसे त्यागना चाहिए।
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सूत्रं ३६५–
जब कोई हमारे खिलाफ अन्याय करे तो उनपर हमें यह सारी भावनाएँ होना चाहिए:
- सहनशीलता – उसी क्षण जैसे को तैसा नहीं करना।
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कृपा – भगवान की प्रतिक्रिया पर चिंता करना, क्योंकि भगवान भागवत अपचार के लिये योग्य शिक्षा देंगे, यानि, भगवान से, दोषी के लिये, क्षमा मांगते प्रार्थना करना।
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हँसी– क्योंकि वो हमारे सांसारिक लाभ में बाधा डाल सकता है मगर उन लाभों में हमारा केंद्र नहीं है ( आत्मा का हित ही हमारा सर्वत्र केंद्र है ) | इन सांसारिक लाभों से हमें कुछ लेना देना नहीं है | इसलिए उनके होशियारी पर हंसकर शत्रुता को समाप्त करना चाहिए।
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आनन्द– दोषी केवल हमारे शरीर को दुख पहुँचाता है, जिस शरीर को हम अपना दुश्मन समझते हैं, इसीलिये हमें यह सोचकर खुश होना चाहिए कि वह हमारे उपर कृपा ही कर रहा हैं।
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कृतज्ञ– हमें हमारे दोष को याद दिलाने के लिए और यह याद दिलाने के लिए कि इस लीला विभूति से हम अलग होना निश्चय है कृतज्ञता प्रकट करना चाहिए।
उनके इस जीवन काल के आधार पर, हम यह देख सकते हैं कि कैसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इन गुणों के सारसंग्रह थे। उनके जीवन के अनमोल चरित्र के कुछ उदाहरण अब हम देखेंगे :-
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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो कि श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के अवतार थे, हमें यह बताये कि हमें अपने आप को कैसे श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के चरण कमलों पर समर्पित करना चाहिए| आलवार तिरुनगरी में भविष्यत् आचार्य सन्निधी में उनकी पूजा करते, यतिराज विंशति, आर्ति प्रबंध, आदि लिखकर हमें यह सिखाया कि निरन्तर श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के बारें में चिन्तन करते रहना चाहिए।
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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी को अपना आचार्य स्वीकार किये और अपना पूरा जीवन उनके आचार्य के निर्देशानुसार ही रहे। वह श्रीभाष्य केवल एक बार उनसे पढ़े परन्तु अपना सारा जीवन अरुलिचेयल पड़ने और उसके मतलब समझने में ख़र्च किया। वह एक अद्वितीय संस्कृत और वेदों के विद्वान थे परन्तु उन्होंने वेदों को हमेशाअरुलिचेयल के जरिये ही समझाया।
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उनकी दिनचर्या जो एऱुम्बि अप्पा ने बनायी, उसमे कहा है कि, “श्रीवरवरमुनि स्वामीजी हर समय द्वय मंत्र का अनुसंधान करते रहते थे और उनका हृदय हमेशा तिरुवायमोली के बारे में ही सोचता रहता था”।
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एक बार आल्वार तिरूनगरी में जब कुछ दुरात्मा लोगों ने उनके मठ में आग लगाया था, तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने राजा को उन्हें माफ करने के लिये कहा और उन लोगों पर भी कृपा किये जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपना दुश्मन समझते थे।
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एक बार जब ऊत्तम नम्बी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति अपराध किया तो, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी वहाँ से चुप–चाप निकल गये– वह ऊत्तम नम्बी को एक शब्द भी नहीं बोले।तब श्रीरंगनाथ भगवान ने ऊत्तम नम्बी को यह दिखाया कि, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और कोई नहीं बल्कि साक्षात आदिशेष हैं।
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जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को श्रीरंगम में यह पता चला कि, उनके कुछ शिष्य दूसरे आचार्यों का सम्मान नहीं कर रहे हैं, तब उन्होंने कालक्षेप करना छोड दिया और उन्होंने अपने शिष्य से कहा, पहले अन्य आचार्यों का सम्मान करें फिर उनसे कालक्षेप सुनें।
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एक बार कुछ किसान श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को कच्चा पदार्थ दे रहे थे, तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी यह जानकर कि वे किसान अवैष्णव हैं, तुरन्त हीं उस भोजन को लौटा दिया। वह अवैष्णवों के साथ सम्बन्ध नहीं रखते थें।
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एक बार एक बूढ़ी औरत एक रात के लिये उनके मठ में ठहरने की अनुमति माँगी तो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उसे साफ मना कर दिया, कि यह उनको स्वीकारनीय नहीं है। कुछ ऐसा था सांसारिक विषयों के प्रति उनका वैराग्य |
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श्रीकांची प्रतिवादी भयंकर अण्णा स्वामीजी जो एक बहुत बडे विद्वान थे, एक बार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से मिलने आये | उस समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति पर व्याख्यान कर रहे थे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का वेदों, अरुलिचेयल और पूर्वाचार्यों के व्याख्यान पर विशेष ज्ञान और अद्वितीय पकड को देखकर अण्णा चकित रह गये और उसी समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य बन गये।
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श्रीरंगम में बहुत से आचार्य पुरूष, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को ही अपना आचार्य मान लिये, हालकि वह पहले से ही आचार्य वंश में जन्म लिये हो।
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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपना सारा जीवन पूर्वाचार्यों के व्याख्यान ढूंढने में बिताया, उनका लेख तैयार किया, उनको अनुसंधान किया और अपने शिष्यों को सिखाया। अपने वृद्धावस्था में भी ताड के पत्तों पर, दूसरों की भलाई के लिये लिखते थे।
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उनकी सच्चाई बेमिसाल थी, जिसके कारण उन्हें यह नाम मिला– पोय इल्लाद मनवाल मामुनि ।
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उनकी शास्त्र और भाषा पर पकड बेमिसाल थी, जिसके कारण उन्हें यह नाम मिला– विसद वाक् शिकामनी। रहस्य ग्रन्थों पर उनके टीका बहुत ही विशेष थी और उन टीकाओं के बिना उन रहस्य ग्रन्थों के मतलब को समझना नामुमकिन है।
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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के श्रीसहस्त्रगीति के प्रचार के बिना, श्रीसहस्त्रगीति के तत्त्व को जानना और समझना नामुमकिन है।
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उन्होंने कभी भी पूर्वाचार्यों की निन्दा नहीं की, हालकि जब एक ग्रन्थ में दुसरे ग्रन्थ के विरुद्ध विचार होते फिर भी वे कभी भी एक पर प्रकाश डालकर दूसरे विचार को नीचे नहीं दिखाया | वे ज्यों का त्यों लिख देते हैं।
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उनमें इतना नैच्य अनुसन्धान था कि, उन्होंने श्रीरंगम और आलवार तिरूनगरी दोनों जगह में कभी भी अपने अर्चाविग्रह का उत्सव मनाने की आज्ञा नहीं दी, ताकि सभी भागवतों का ध्यान, भगवान श्रीमन्नारायण और श्रीशठकोप स्वामीजी पर ही केंद्रीत रहें। उन्होंने बहुत हीं छोटे अर्चा विग्रह बनाने की आज्ञा दी और यह निश्चय किया कि उनके अर्चाविग्रह का कोई शोभायात्रा न हो।
इसके साथ साथ, भगवान श्रीमन्नारायण जो अपने पिछले अवतार के आचार्यों से संतुष्ट नहीं थे (रामावतार में वशिष्ठ / विश्वामित्र , कृष्ण अवतार में संदीपानी, आदि) यह स्थापित किया कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ही सबसे उत्तम और निपुण आचार्य हैं। नमपेरुमाल की यही श्रेष्ठ इच्छा/उपाय थी कि उनको भी उनके आचार्य का ही नाम मिले। इसीलिए उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को यह आज्ञा दी कि, वह एक वर्ष तक तिरुवरंगम में उनके सन्निधी के सामने, श्रीशठकोप स्वामीजी से विरचित श्रीसहस्त्रगीति का प्रवचन करें। और तब तक उन्होंने अपने नित्य समस्त उत्सवों को रोक दिया और वह दिव्य पत्नियों (श्रीदेवी और भूदेवी) सहित एक वर्ष तक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का प्रवचन सुनें।
आणि तिरुमूलम के दिन [ कालक्षेप के अंतिम दिन ], साटृमुरै के समय, भगवान एक छोटे बालक के रूप में प्रकट होकर, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सामने आकर उनके लिये यह तनियन अर्पण किया (जैसे एक शिष्य अपने आचार्य के लिये करता है) ।
श्रीशैलेश दयापात्रं धीभकथ्यादि गुणार्णवम् ।
यतींद्र प्रवणं वन्दे रम्यजामातरं मुनिम् ॥
यहाँ, भगवान कहतें हैं कि, “मैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की पूजा करता हूँ जो कि अ) श्रीशैलेश स्वामीजी के कृपा पात्र हैं, आ) ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, आदि के सागर हैं और इ) जिन्हें श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के प्रति असीम प्रेम है”।
उन्होंने यह आज्ञा की कि अरुलिचेयाल अनुसंधान के शुरू और अंत में, इस तनियन को सभी दिव्यदेशों के मंदिरों में, अन्य दिव्य क्षेत्रों में, मठों में और तिरूमाली में अनुसंधान करना चाहिए। और यह आज भी देखा जा सकता है, जहाँ भी हम जाये अरुलिचेयाल अनुसंधान के समय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की स्तुतियाँ सुन सकते हैं।
इस तरह श्रीरंगनाथ भगवान नें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शन किया, जो उनके अपने ही ओरोरुवर पसुरम के उचित उदाहरण माना जा सकता है, इसिलिये उन्होंने
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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपना आचार्य चुना।
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उन्होंने अपने आचार्य का नाम रखा क्योंकि हर एक शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने आचार्य का नाम रखे।
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उन्होंने सब कुछ छोडकर अपने आचार्य से भगवद् विषय सीखा।
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उन्होंने सारे लोगों के सामने अपने आचार्य को एक तनियन प्रस्तुत किया और यह आज्ञा दिया कि यह तनियन सभी जगह गाया जाये (यह कहा गया है कि एक शिष्य अपने आचार्य की स्तुति सभी के सामने करें)।
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उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को शेष पर्यंकम आचार्य सम्भावना के रूप में प्रदान किये। (आज भी हम यह देख सकते हैं कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ही एक ऎसे आचार्य हैं जिनके अर्चा विग्रह में शेष पर्यंकम है )।
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नमपेरुमाल तिरुवरंगम में, (आज भी) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का तिरूवध्यायन महोत्सव करते हैं (क्योंकि यह एक शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने आचार्य का तीर्थ उत्सव करें)। इस दिन (माघ महीने कृष्ण पक्ष द्वादशी) श्रीरंगनाथ भगवान के अर्चक, परिचरक, आदि श्रीरंगनाथ भगवान के सामाग्रि (चमर, वट्टिल, कुदै, आदि) के साथ आते हैं और श्रीरंगम के श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सन्निधी में उत्सव मनाते हैं। भगवान खुद भी उस दिन अपने आचार्य के प्रति सम्मान के कारण भोग्य वस्तु जैसे सुपारी, पान आदि नहीं पाते।
इस तरह हम अपने पूर्वाचार्यों के जीवन से यह समझ सकते हैं कि यह सिध्दान्त काल्पनिक नहीं है। हम यह भी देख सकते हैं कि उन्होंने कैसे अपना जीवन गौरव, प्रामाणिकता और सम्पूर्णता के साथ बिताया। उन्होंने यह सब कुछ हमारे भविष्य की पीढ़ी के लाभ के लिए और उनको समझकर उनका पालन करने के लिये दस्तावेज बना कर रखा है। यह भगवान की निर्हेतुक कृपा ही है कि हम मनुष्य योनि में जन्म लिये हैं और उसमें भी श्रीवैष्णव परिवार में, और वह भी थोडी सी बुद्धि के साथ इनकी मूल्यता समझ सके और इस ज्ञान रूपी धन, जो अपने पूर्वाचार्यों से प्राप्त किये, को सराह सके। हमें भगवान का सदैव ही कृतज्ञता प्रकट करना चाहिए कि उन्होंने हमें यह मौका प्रदान किया और इसी उत्साह के साथ हमें तुरन्त ही उनके इच्छाओं को अमल में लाना चाहिए और अपना समय उनके और उनके सेवकों की सेवा में व्यतीत करना चाहिए।
यह श्रृंख्ला अब समाप्त हो रहा है | अगले लेख में हम , अब तक किये गए चर्चाओं की सारांश देखेंगे और इस श्रृंख्ला को समाप्त करेंगे |
अडियेंन केशव रामानुज दासन
पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी रामानुज दासी
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