विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १७

 श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १

आगे बढ़ने से पहले, श्रीवैष्णव तिरुवाराधन के विषय में भली प्रकार से जानने के लिए https://granthams.koyil.org/2012/07/srivaishnava-thiruvaaraadhanam/ पर देखें क्यूंकि यह लेख इसी तत्व से सम्बंधित है।

४८) वन्दन विरोधी अभिवादन (साष्टांग दण्डवत) करने में बाधाएं

वन्दन का अर्थ है साष्टांग दण्डवत करना – पूर्ण दण्डवत आठ अंग (२ पैर, २ घूटने, पेट, २ कन्धे, २ हाथ और ललाट) इस सन्दर्भ में धरती को छुना। शास्त्र में आदेश हुआ है कि “वैष्णवो वैष्णवं दृष्टवा दण्डवत प्रणमेत पुवी” – जब एक श्रीवैष्णव दूसरे श्रीवैष्णव को देखता है, तो उसे उसी क्षण एक लकड़ी के जैसे धरती पर गिरकर साष्टांग दण्डवत करना चाहिये। पूर्ण अभिवादन अर्थात तमील में दण्डम समरप्पित्तल, दण्डनिडुदल कहते है – यहाँ दण्डम लकड़ी को दर्शाता है और अभिवादन एक लकड़ी धरती पर गिरने के जैसे होनी चाहिये (एक क्षण भी कुछ दूसरा सोचे बिना)। इस भाग में भगवद, भागवत और आचार्य के सन्मुख किये जाने वाले कई अभिवादन को स्पष्टता से समझाया गया है। यहाँ एक तत्व को अच्छी तरह समझना चाहिये। हमारे पूर्वाचार्य केवल एक बार अभिवादन करते थे – सिर्फ सकृत (एक) प्रणाम ही। एक वैष्णव अंश बारबार अभिवादन करते है – यहाँ इस विषय कि पर चर्चा नहीं करेंगे। परन्तु दण्डदनिदुतल का अर्थ एक लकड़ी के समान गिर जाना। एक लकड़ी एक बार गिर जाने के पश्चात फिर नहीं उठती – इस तरह हम इसे याद रख सकते है।

अनुवादक टिप्पणी: सामान्यत: अभिवादन दूसरे के प्रति सम्मान दिखाना है। हम भगवान, अम्माजी, नित्यसूरी (अनन्त, गरुड, विष्वक्सेन आदि) आल्वार, आचार्य और भागवतों के प्रति अभिवादन करते है। हमें सांसारिक जीवों के प्रति अभिवादन नहीं करना चाहिये जो हमारे साथ लौकिक सम्बन्ध रखते है, वह जो देवतान्तर सम्बन्ध रखते है, सामान्य आचार्य (जो कला,विज्ञान आदि पढ़ाते है) जो भगवान के प्रति थोड़ा भी झुकाव नहीं रखते हो आदि के प्रति भी अभिवादन नहीं करना चाहिये। इस विषय मे यहाँ चर्चा हो रही है। श्रीवैष्णवों में एक और मुख्य विषय है कि आयु अभिवादन के लिये खण्ड नहीं है। हमारे पूर्वाचार्य के जीवनी द्वारा हम देख सकते है कि किस प्रकार आयु में बड़े श्रीवैष्णव छोटे श्रीवैष्णवों का अभिवादन किया करते है। श्रीपरकाल स्वामीजी तिरुमौली में कहते है “कणपुरम कैतोलुम पिल्लैयैप पिल्लै एनरेण्णप पेरुवरे” – जो भगवान तिरुक्कण्णपुरम को पूजता है और वो चाहे एक छोटा बच्चा हो तो भी हम उन्हें एक बच्चे जैसे नहीं सोच सकते है – उसे श्रीवैष्णव ही समझना चाहिये। वो तिरुनेडुन्दाण्डगम के 14वें पाशुर में कहते है “वलरत्तदनाल पयन पेट्रेन वरुग ! एन्रु मडक्किलियैक्कै कूप्पि वणग्ङिनाले” – यद्यपि परकाल नायकी ने एक तोते को उठाया था (श्रीपरकाल स्वामीजी स्त्री भावना में) परंतु जब उन्होने तोते को बड़ी सुन्दरता से भगवान का नाम स्मरण करते हुए सुना तो वह बहुत आनन्दित हो गयी और अपने तोते को अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। श्रीकुरेश स्वामीजी कि पत्नी आण्डाल अम्माजी अपने पुत्र श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी, जो बहुत बड़े विद्वान थे और श्रीरंगम में सत सम्प्रदाय के मार्गदर्शक थे, उनका नित्य श्रीपादतीर्थ लेती थी। इसलिये युवा हो या वृद्ध श्रीवैष्णवों को अभिवादन करना बहुत आवश्यक है।

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आदर्शस्वरूप उदाहरण – श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए

  • साष्टांग दण्डवत करने से पूर्व धरती को देखना बाधा है। चाहे जमीन गीली, कीचड़ आदि हो सभी को अपने कपड़े, शरीर कि ओर न देखते हुए अभिवादन करना चाहिये।
  • पूर्णत: अभिवादन न करना बाधा है। केवल झुक कर और जमीन को हाथों से छुना नहीं चाहिये। यह सुनिश्चित करना चाहिये कि सभी आठ अंग धरती को छु रहे है। एक लकड़ी के समान गिरना इसमें समझाया गया है।
  • पूर्ण ध्यान के बिना अभिवादन करना बाधा है। हमें साष्टांग करते समय पूर्णत: भगवद/ भागवत/ आचार्य कि ओर अपना ध्यान केन्द्रीत करना चाहिये।
  • द्वयमन्त्र को स्मरण और अनुसन्धान किये बिना साष्टांग करना बाधा है। भगवान को साष्टांग करते समय द्वयमन्त्र का अनुसन्धान करना चाहिये। हमारे पूर्वज सामान्यत: आलवन्दार स्तोत्र के २२वा श्लोक “न धर्म निष्ठो …” का अनुसन्धान करते थे – “मेरे पास कोई कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि नहीं है; मेरे हाथों में अर्पण करने के लिये कुछ नहीं है और मुझे जाने के लिये कोई और स्थान भी नहीं है; मैं आपके चरण कमलों में अपने आपको समर्पित करता हूँ”। इस सन्दर्भ में हमें एक मुख्य विषय को जानना चाहिये। साष्टांग के पश्चात अभिवादन नहीं करना है (जो गोत्र, सूत्र, नाम आदि को बताता है) क्योंकि अभिवादन वैधिक कर्मानुष्ठान तक ही सीमित रहता है। अन्य श्रीवैष्णवों से बात करते समय हमें केवल “अडियेन् रामानुजदास” ऐसा कहना चाहिये – जैसे “अडियेन् श्रीवैष्णवदास” प्रतिवादी भयंकर अण्णा स्वामीजी के शिष्यगण कहते है, “अडियेन् मधुरकविदास” – श्रीअनन्ताल्वान स्वामीजी के शिष्य कहते है आदि। यह श्रीवैष्णवों को स्पष्टता से समझना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: अभिवादन (किसी को गोत्र, सूत्र, वेद आदि द्वारा पहचान) शरीर से सम्बन्ध रखता है। जब हम आत्मा पर केन्द्रीत कर रहे है और जब हम आत्मबन्धु (श्रीवैष्णव – वो जो हमसे भगवान के दास होने से सम्बन्ध रखते है) से मिलते है, हमें स्वयं की आत्मा द्वारा पहचान करानी चाहिये। आचार्य हृदयम में अळगिय मणवाल पेरुमाल नायनार ३६वें चूर्णिका में बहुत सुन्दरता से समझाते है “विप्रर्क्कु गोत्र चरण सूत्र कूटस्त्तर पराशर पाराशर्य बोधायनाधिगल; प्रपन्न जन कूटस्त्तर परांगुश परकाल यतिवराधिगल” – ब्राह्मणों के लिये (जो केवल शारीरिक वेदिका के बारें में सोचते है), गोत्र (वंश), चरणा (वेद का एक भाग), सूत्र (वेद के भाग को कर्मानुष्ठान पर केंद्र करता है) ऋषी है जैसे पराशर, व्यास, बोध्याना क्रमश: में। प्रपन्नों के लिये (जिन्होंने यह जान लिया कि वे भगवद्दास है उन्हें समर्पण कर दिया है) उनकी पहचान आल्वारों से सम्बन्ध से है जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीपरकाल स्वामीजी आदि और आचार्य जैसे श्रीरामानुज स्वामीजी आदि। यहाँ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी इस व्याख्यान में एक विशेष बात पर ज़ोर देते है – प्रपन्न अपने आपको आल्वार और आचार्य के सम्बन्ध से पहचानते है, क्योंकि आल्वार और आचार्य अपने उपदेश और अनुष्ठान से उन तत्वों को स्थापित किये जिसे हम प्रपन्नों को पालन करना है।
  • केवल शास्त्र में लिखा है इसलिये अभिवादन करना और प्रेम और भक्ति से न करना बाधा है।
  • जैसे भगवान को साष्टांग करते है, वैसे भागवतों को करने में हिचकिचाना। अनुवादक टिप्पणी: भगवान को श्रेष्ठ मानना, भगवान को कोई भी प्रेम से आसानी से अभिवादन कर सकता है। परन्तु भागवतों को भी वहीं प्रेम और सन्मान मिलना चाहिये। भगवान स्वयं जब अपने भक्तों से जो आठ गुणों कि आशा करते है वो समझाते हुए यह दर्शाते है कि उनके भक्तों के साथ बड़े सन्मान और प्रेम के साथ व्यवहार करना चाहिये। भक्त कहलाने को योग्य होने के लिए पहिले हमें भगवान के भक्तों से सम्मान और सावधानी से व्यवहार करना चाहिये।
  • आचार्य के प्रति अभिवादन करने से पूर्व हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारा सिर आचार्य के चरण कमलों कि तरफ होना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हालाकि ऐसा कहा गया है फिर भी आचार्य को स्पर्श करने से पूर्व हमें ध्यान रखना चाहिये – विशेषकर सन्यासी जो कड़े नियमों का पालन करते है और किसी को भी शारीरिक स्पर्श नहीं करते है। इसलिये हमें सहीं शिष्टाचार का पालन करना चाहिये और हमें ऐसी स्थिति में आचार्य को शारीरिक स्पर्श करने से बचना चाहिये।
  • हमें कभी भी एक बार में अभिवादन से संतुष्ट नहीं होना चाहिये। यह असकृत प्रणाम को नहीं दर्शाता है – हमारे आचार्य द्वारा बाद में प्रणाम करने के लिए कहे जाने पर या किसी विशेष कारण की वजह से या एक बार भगवान /आचार्य की सन्निधि से जाकर वापिस आने पर। ऐसे समय में हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि “मैंने पहिले अभिवादन किया है और यह पूरे दिन के लिये काफी है”।
  • हमें तब तक साष्टांग कर उठना नहीं चाहिये जब तक आचार्य न कहे “पर्याप्त है! कृपया अब उठिये”। हम यहाँ एक घटना को स्मरण कर सकते है: श्रीरामानुज स्वामीजी जब श्रीरंगम पधारे तब वे मन्दिर के शासन प्रबन्ध को सुधार रहे थे। उस समय कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगा और वे श्रीरामानुज स्वामीजी के भिक्षा में जहर मिलाने कि सोचे (सन्यासी होने के कारण वें भिक्षा ग्रहण करते इसलिये वे उस खाने में जहर मिलाने का सोचे)। श्रीरामानुज स्वामीजी को इस बात का पता चल गया और वे एक दो दिन के लिये उपवास कर लिये। यह सुनकर श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी तुरन्त श्रीरंगम पधारे। श्रीरामानुज स्वामीजी अपने आचार्य के आने का संदेश सुनकर उनके स्वागत हेतु स्वयं कड़ी धूप में कावेरी नदी के किनारे गये। श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी को देखते ही उन्होंने लम्बी साष्टांग दण्डवत किया। परंतु आचार्य आज्ञा न होने के कारण वह उस तप्त भूमि से नहीं उठे। यह देख किडाम्बी आच्चान (श्रीरामानुज स्वामीजी के एक प्रिय शिष्य) श्रीरामानुज स्वामीजी को उठाने को जाते है और श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी से कहते है कि “शिष्य और आचार्य के मध्य यह कैसा व्यवहार है? आप श्रीरामानुज स्वामीजी जैसे को क्यों इस कडक धूप में तड़पने को रखे हो? क्या कभी कोई एक नाजुक फूल को कडक धूप में जलने के लिये छोड़ता है?”। श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी, किदाम्बी आच्चान का श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति प्रेम देख प्रसन्न हो गये और कहते है “मैं ऐसे ही व्यक्ति कि तलाश कर रहा हूँ जिसे श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति इतना लगाव हो। अब से आप इन्हीं से भिक्षा लेना और कहीं जाने कि जरूरत नहीं है”। इससे हम यह देख सकते है कि साष्टांग करने हेतु स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी सही शिष्टाचार बता रहे है।
  • केवल साष्टांग करना और आचार्य के चरण कमलों को अपने माथे से नहीं छुना। यह पहिले चर्चा किये गए पहलू जैसा ही है।
  • जब हम भगवान कि आराधना के लिए जाते है, और उस समय हम आचार्य को वहां उपस्थित देखे, तो सबसे पहिले उन्हीं को साष्टांग करना चाहिये और तत्पश्चात भगवान को। अगर आचार्य स्वयं न हो तो मानसिक रूप से उन्हें अभिवादन कर फिर भगवान को साष्टांग करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: हम भगवान के पास अपने आचार्य के माध्यम से ही जा सकते है। इसलिये अगर वे मौजुद हो तो पहिले उन्हें साष्टांग कर फिर भगवान को के पास जाना चाहिये। यह हम तिरुवाराधन में भी देखे है। हम पहिले आचार्य के पास जा कर उनकी पूजा कर, उनकी आज्ञा लेकर फिर उनके निमित्त तिरुवाराधन करते है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने “जीयर पडी तिरुवाराधन क्रमं” में यह समझाते है कि हम तिरुवाराधन श्रीरामानुज स्वामीजी, आल्वार, नित्यसूरी और अन्त में भगवान का इस क्रम से करते है।
  • भगवान कि सन्निधी में भागवतों को साष्टांग करने में हिचकिचाना बाधा है। यद्यपि यह आजकल अभ्यास में नहीं है। साधारणत: आजकल मन्दिर के अन्दर भगवान, अम्माजी, आल्वार और आचार्य को छोड़ और किसी को भी साष्टांग नहीं करते है।
  • पहिले दूसरे श्रीवैष्णवों का साष्टांग करने का इंतजार करना और पश्चात हमारा साष्टांग करना बाधा है। श्रीराम की इस तरह स्तुति हुई है “मृदु पुर्वंच भाषते”, पूर्व भाषी – वह जो पहिले किसी से भी मिलने पर नम्र शब्दों से विचार करता है। उसी तरह दूसरे श्रीवैष्णवों के साष्टांग करने से पूर्व हमें स्वयं उनको साष्टांग करना चाहिये।
  • जब कोई श्रीवैष्णव साष्टांग करता है, तब यह सोचना कि “वह मेरी पूजा कर रहा है” और उसका उलट सोचना भी बाधा है। इससे सम्बंधित एक घटना अळगिय मणवाल पेरुमाल नायानार तिरुपावै के पहिले पाशुर पर व्याख्यान में बताते है। एक बार श्रीरामानुज स्वामीजी अपने शिष्यों के साथ घुम रहे थे। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी, जो श्रीरामानुज स्वामीजी के आचार्य है, उनके सामने आते है और वे उन्हें साष्टांग दण्डवत करते है। यह देख सभी चकित हो जाते है। यद्यपि श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीमहापूर्ण स्वामीजी कि हृदय कि बात की जानकारी थी फिर भी सभी के भ्रम को दूर करने हेतु वे श्रीमहापूर्ण स्वामीजी से पूछँते है कि उन्होंने अपने शिष्य को ही साष्टांग क्यों किया? श्रीमहापूर्ण स्वामीजी कहते है कि उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी में श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी (श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के आचार्य) को देखकर साष्टांग किया। अत: श्रीरामानुज स्वामीजी यह स्पष्ट करते है कि अपने आचार्य के हृदय को स्पष्टता से समझ कर उन पर आश्रित होना चाहिये और यह सोचना चाहिए कि अभिवादन स्वयं के लिये नहीं था। अनुवादक टिप्पणी: हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिये कि अभिवादन हमें कर रहे है यह तो हृदय में विराजमान अंतर्यामी भगवान के लिये और भागवत सम्बन्ध जो हमारा अपने आचार्य और आल्वारों के साथ है उनके लिए है। अभिवादन स्वीकार करने का और दूसरों को अभिवादन करने का यही सही तरीका है।
  • अगर कोई श्रीवैष्णव उनका हमारे प्रति प्रेम के कारण साष्टांग करना चाहे, तो किसी का अनादर नहीं करना चाहिए और अलग ठहर जाए। अनुवादक टिप्पणी: पहिले बताये गये उदाहरण के समान। सभी को श्रीवैष्णवों का आदर कैसे करे इसे और उनके वास्तविक अभीष्ट को समझना चाहिये। अगर उनका अभीष्ट हमे साष्टांग करने में हो जो हमे उनसे भी उच्च स्थान पर पहुंचा रहा है, तो हमें भी बड़ी नम्रतापूर्वक दयालुता से उस स्थान को अपनाना चाहिये।
  • पूर्ण तिरुवाराधन करने के पश्चात हमें पूर्ण साष्टांग दण्डवत करना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: तिरुवाराधन के अन्त में “उपचारपदेशेन…” श्लोक का अनुसन्धान करना चाहिये और पूर्ण साष्टांग दण्डवत करना चाहिये और तिरुवाराधन के समय अपनी गलतियों के लिये क्षमा मांगना चाहिये। यह पहलू इधर दर्शाया गया है।
  • इयल गोष्ठी सेवाकालम (पुरप्पाडु/सवारी के समय मिलकर पाशुरों को गाना) को सम्पूर्ण करने के पश्चात सभी श्रीवैष्णव एक दूसरे का अभिवादन करते है। अभिवादन किये बिना वहाँ से जाना गलत है। हालाकि यहाँ “ईयल साट्रु” का वर्णन किया गया है जो स्तुति करने के पद के संग्रह है, इसे अन्य इयल गोष्ठी के संदर्भ में भी लिया जा सकता है। अनुवादक टिप्पणी: यह अभी भी सभी स्थानों पर अभ्यास में है। पुरप्पाडु के समाप्ति के पश्चात एकत्रीत श्रीवैष्णव अभिवादन करते है और तिरुवंधिक काप्पु (बुरी नजर से बचने हेतु आरती) किया जाता है।
  • श्रीवैष्णव गोष्ठी में प्रवेश करते समय और वहाँ से बाहर निकलते समय सभी को अभिवादन करना चाहिये और आज्ञा लेना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है।
  • अगर कोई आचार्य के समीप रहता हो तो उसे प्रतिदिन आचार्य के सन्मुख होना चाहिये और अभिवादन कर और उनका श्रीपादतीर्थ ग्रहण करना चाहिये। परन्तु अगर वो उनके निकट नहीं रहता है तो आचार्य के तिरुमाली के दिशा में प्रतिदिन साष्टांग करना चाहिये।
  • पुरोदासा का अर्थ यज्ञ (भगवान) का शेष – इसे कुत्ते आदि को नहीं देना चाहिये। उसी तरह एक बार भगवान के शरण होने के पश्चात सांसारिक संबंधियों को (जो श्रीवैष्णव नहीं है) अभिवादन नहीं करना चाहिये।
  • केवल किसी के जन्म के आधार पर हमें किसी को साष्टांग नहीं करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य हृदय में अळगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् सुन्दरता और स्पष्टता से श्रीवैष्णव और अन्य वर्णों में भेद बताते है। ब्राम्हण्यम अर्थात जो भगवान की तरफ लेके जाए परन्तु कोई ब्राम्हण अगर इसे न समझे और वाद ,वेदान्त में निपुण होने का दावा करे तो ऐसा कीमती ज्ञान व्यर्थ है।
  • अगर कोई श्रीवैष्णव पधारते है, तो उन्हें एक उच्च स्थान देना चाहिये और तत्पश्चात उन्हें साष्टांग करना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जब अतिथी पधारते है तो उन्हें हाथ, पैर धोने के लिये और मुँह के कुल्ली के लिये जल देना चाहिये। अगर वह एक कठीन यात्रा से आये है तो उन्हें आराम महसूस हो ऐसा करवाना चाहिये।
  • देवतान्तर के मन्दिर में साष्टांग करना और पाखण्डी के सामने भी अभिवादन करना बाधा है। इस तत्व की पहिले भी चर्चा की जा चुकी है।
  • तिरुपति में प्रवेश करते समय (सामान्यत: तिरुपति अर्थात दिव्यदेश, परंतु इस शब्द का अर्थ मन्दिर भी हो सकता है) मन्दिर में प्रवेश करने के पूर्व ही साष्टांग करना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है।
  • सार्वजनिक स्थान में आचार्य और आचार्य के समान श्रीवैष्णवों को साष्टांग करने से हिचकिचाना बाधा है। जब भी हम उन्हें देखे तुरन्त हमें उनका अभिवादन करना चाहिये।
  • जो अध्यात्म विद्या (भगवान का रहस्यमय ज्ञान) में पूर्णत: निपुण न हो, उनके प्रति भी पूर्ण अभिवादन प्रकट करना बाधा है, यद्यपि वो अन्य सांसारिक विषयों में निपुण हो। जैसे समझाया गया है “तत कर्म यन्न बंधाय सा विद्या या विमुक्ते, आयासायापरं कर्म विध्यान्या सिल्पनैपूणम” – वह कार्य जो बन्धन से मुक्त करे, वह ज्ञान, जो बन्धन से मुक्त करे, वह सच्चा ज्ञान है; अन्य कार्य केवल हमें थकायेंगे और अन्य ज्ञान केवल व्यवसाय के लिये है, गुरु जो सांसारिक ज्ञान सिखाता है वो अभिवादन का सच्चा लक्ष्य नहीं है। हमारे पूर्वाचार्य ऐसे ज्ञान को चप्पल सीने के ज्ञान के समान मानते है और वेदों के अर्थ को समझे बिना जो व्यक्ति उसका उच्चारण करते है वह केसर को ढोने वाले गधे के समान है (केसर का मोल जाने बिना उसे ढोते है)
  • उनका अभिवादन करना, जो मन्त्र रत्न (द्वय महामन्त्र और उसका अर्थ) के गुरु नहीं है, अपितु अन्य मंत्रों को सिखानेवाले है, यह एक बाधा है। यहाँ मात्र द्वय मन्त्र को दर्शाया गया है, परंतु इसका आशय तीनों मन्त्रों से है – तिरुमन्त्र, द्वय मन्त्र, चरम श्लोक, एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुये है। यहाँ अन्य मन्त्र का सामान्यत: अर्थ है, अवैष्णव मन्त्र और ऐसे मन्त्र जो साँप, आदि काटने पर देते है।
  • कठिन परिस्थितियों में भी हमें सांसारिक जनों के आगे नहीं झुकना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: हमें भगवान पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये जो हमारी हर समय हर परिस्थिति में चिन्ता करेंगे। जब यह विश्वास है तो और किसी भी सहायता को देखने कि जरूरत नहीं है।
  • आलस्य में भगवान को साष्टांग करना टालना नहीं चाहिये। यहीं विषय आचार्य और भागवतों के लिये भी लागू है।
  • भगवान की सन्निधी में अवैष्णवों को साष्टांग करना ओर भागवतों को नहीं करना बाधा है। यह विषय हम पहिले चर्चा कर चुके है कि अवैष्णवों को साष्टांग करने से बचना चाहिये।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2014/03/virodhi-pariharangal-17/

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