श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः
लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां
नम्पिळ्ळै तिरुवल्लिकेणि
६१) एम्पेरुमानार् दर्शनस्तरिल् एत्तनैयेणुम् कल्वियिल्लात स्त्रीप्रायरुम् देवतान्तरगळै अडुप्पिडु कल्लोपादियाग निनैत्तिरुक्कुम्
श्रीरामानुज दर्शनान्तर्गत अनुयायियों मे, एक अशिक्षित स्त्री (जिसको प्राथमिक शिक्षा भी अप्राप्त हो वह) भी जानती है कि परतत्त्व, परमेश्वर, परब्रह्म श्रीमन्नारायण ही है और अन्य देवतान्तर (देवी-देवता) उस पत्थर (ईंट) की भाँति है जिसका प्रयोग व्यन्जन बनाने मे होता है ।
अनुवादक टिप्पणी :
भगवान् श्रीमन्नारायण ही परतत्त्व परमेश्वर परब्रह्म है । ब्रह्मा,रुद्रादि देवी-देवता गण श्रीमन्नारायण के सेवक हैं । वह सभी कर्म से लिप्त (कर्म से बन्धित) हैं और रजो तमो गुण से पूरित हैं । तोण्डरडिप्पोडि आल्वार तिरुमालै दिव्य-प्रबन्ध के दसवे पासुर मे कहते हैं ” भगवान् श्रीमन्नारायण अकारणकरुणालय अहैतुकी कृपा से, अन्य देवी-देवताओं को उन सभी के लिए स्थापित करते हैं जो पूर्ण रूप से भगवान् के प्रति शरणागत नहीं हो सकते ” । ऐसे सामान्य जन इन देवी-देवताओं के प्रति समर्पित होकर भक्ति भावना मे प्रगतिशील होते हैं और अन्ततः विष्णु भक्ति का बीज उगता है । अगर ये भी नही होते तो सामान्य जन सभी नास्तिक हो जाते और उनका पूर्णतः पतन हो जायेगा । अतः श्रीरामानुज दर्शन के अनुयायी जन उपरोक्त कथन तत्त्व ” देवतान्तर गण विशेष कार्यार्थ रत (अन्यकों के हितकारी) हैं ” को भलीभाँति जानकर इनके प्रति कोई विशेष लगाव (रुचि) नही होता जैसे व्यंजन बनाने मे ईंट का केवल मात्र उपयोग होता है और उसके प्रति कोई आसक्ति (रति) नहीं होती ।
६२) मोक्षपलम् (मोक्षफलम्) सिद्दिक (सिद्धिक) वेणुम् एन्रिरुक्किरवर्गल् क्षुद्र देवतैगलैप् पिन् चेल्लार्गलिरे
वह (जो) मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रतिक्षण स्थिरचित्त है (वह) क्षुद्र देवी देवताओं के शरणागत नहीं होता ।
परमपद – नित्य आनंद का निवास और मुमुक्षुयों का परम लक्ष्य
अनुवादक टिप्पणी :
उपेय (लक्ष्य) पुरुषार्थ है – – पुरुष की इच्छा (कामना) है । पुरुषार्थ चतुष्टय 1) धर्म [शास्त्र वचन का पालन] 2) अर्थ [लक्ष्मी – धन] 3) काम [विपर्य लिंग के प्रति आकर्षण (काम वासना) ] 4) मोक्ष (मुक्ति) है । श्रीमन्नारायण को मुकुन्द कहते हैं – – जो मोक्ष दाता है । अन्य देवी देवता स्व अनुयायियों के लौकिक तुच्छ इच्छापूर्ति कर सकते हैं लेकिन मोक्ष प्रदान करना केवल श्रीमुकुन्द ही कर सकता है । अतः मुमुक्षु जन भगवान् श्रीमन्नारायण का ही शरण लेते हैं । ऐसे अन्य कर्म बन्धित देवतान्तरों के प्रति कोई आसक्ति नहीं होती ।
६३) गरुड़ध्वज, गरुड़वाहन एन्रु चोल्लप्पडुमवनायित्तु मोक्ष प्रदनावान्
मोक्ष प्रदाता (वह) भगवान् है (जिसका) वाहन गरुड़ (जी) है और (जिसके) विजय पताका पर गरुड़ (जी) विद्यमान हैं । वह भगवान् श्रीमन्नारायण (विष्णु) हैं ।
गरुड़ वाहन में श्रीरंगनाथ
अनुवादक टिप्पणी : गरुड़ जी वेदात्मा के नाम से जाने जाते हैं । भगवान् श्रीमन्नारायण को वहन करने के कारण वेदुद्देश्य परमात्मा भी वह ही है ।
६४) ” कारणन्तु ध्येयः ” एङ्गिरपडिये जगत्कारण वस्तुवेयिरे उपास्यमावतु
शास्त्र कहता है “कारणम् तु ध्येयः”। वह जो इस सृष्टि का मूल कारक, सृष्टि संहारक, सृष्टि पोषक है (सृष्टि, स्थिति, संहार कारक है) (वह) ही ध्येय वस्तु है ।
अनुवादक टिप्पणी :
तैत्रीय उपनिषद् कहता है – -” यतो वा इमानि भूतानि, येन जातानि जीवन्ति, तद् विजिज्ञास्य, यत् प्रयन्त्याभिसम्विसन्ति, तद् ब्रह्मेति ” अर्थात् (वह) जिससे सकल चित-अचित पदार्थ प्रकट होते हैं, जो सकल पदार्थ का निवास स्थान है, अन्ततः सकल पदार्थ समा जाते हैं – – वह सदा अनुसन्ध्येय ब्रह्म है । श्रीमन्नारायण ही सर्व सृष्टि कारण कारक है (पंच भूत निर्माण तक) तदुपरांत ब्रह्मा को निर्दिष्ट शक्ति से व्यष्टि सृष्टि का निर्माता बनाते हैं । वह परब्रह्म ही महाविष्णु रूप मे सकल पदार्थों मे स्वयं विद्यमान होकर पोषण धर्ता के रूप मे विराजमान है । वह ही रुद्रादि देवतान्तरों को यथा शक्ति प्रदान कर सृष्टि संहारेत्यादि संपन्न कर अन्ततः सभी का संहार करते हैं । अतः भगवान् श्रीमन्नारायण ही परतत्त्व और सर्व कारण कारक हैं ।
६५) मोक्ष प्रदानुमाय सर्वनियन्तावुमान सर्वेस्वरनुक्कु अडिमै पुगुवाते कर्त्तव्यम्
जीवात्मा का कर्तव्य है कि वह उस सर्वेश्वरेश्वर की सेवा करें जो मोक्ष प्रदाता है ।
आदिशेष जो निरंतर भगवदकैंकर्य में तल्लीन हैं – जीवात्मा की स्वरूप का प्रधान उदाहरण
अनुवादक टिप्पणी : श्रीमन्नारायण ही परात्पर परतत्त्व हैं जो सर्व चेतनाचेतन वस्तुओं के शेषी (स्वामी) हैं । स्वाभाविक रूप से प्रत्येक चेतन का कर्तव्य है की वह स्वाभाविक स्वामी की सेवा करे न कि अन्यों की।
६६) सेय्य (शेय्य) वेण्डुवतोन्रिल्लै. अवनडुमैयै अवनुकाग इसैय (इशैय) अमैयुम्
जीवात्मा को कुछ करने की जरूरत नही है । उसे तो केवल सत्य को स्वीकारना है कि वह भगवान् का है ।
अनुवादक टिप्पणी :
सभी चेतनाचेतन वस्तुएं भगवान् के हैं अर्थात् भगवत्सम्पत्ति है । जीवात्माओं को इस सत्य को स्वीकरना है । इस स्वीकृति से भगवद् कृपा का दिव्यानुभव का प्रभाव दिखता है और तुरन्त भगवद् कृपा की वर्षा स्वकार्य करती है । इस सन्दर्भ मे पूर्वाचार्य एक सुन्दर उदाहरण देते हैं – – एक समय की बात है – एक राजा और उसका पुत्र राजकुमार शिकार हेतु जंगल गये । पर दुर्भाग्यवश वह राजकुमार जंगल मे खो गया और दुःखित राजा स्वराज्य को लौट गया । इस दौरान एक शिकारी ने इस खोये नन्हे राजकुमार को प्राप्त कर उसका देखभाल करने लगा । तदुपरान्त वह राजकुमार स्वयं को शिकारी का ही बेटा मानकर शिकारी की तरह व्यवहार करने लगा और इस प्रकार शिकारी बन गया । पर एक दिन किसी व्यक्ति ने उसे पहचाना और उसके राजकुमार होने का सत्य प्रकाशित किया । अब उसे उसके राजकुमारत्व को स्वीकारना है और इस प्रकार से खोये राज गद्दी को पुनः प्राप्त करना है । अतः इसी प्रकारेण जीवात्मा भी इस जन्म मृत्यु जाल चक्र मे बंधा सोचता है कि वह स्वतंत्र है या केवल देहाभिमान से युक्त जीवन व्यतीत करता है । पर जब वह अपने भगवद्परतन्त्र स्वरूपानुरूप स्थिती को स्वीकारता है तो तत्क्षण भगवदानुग्रह का मंगल पात्र हो जाता है और भगवद् कृपा का प्रवाह उसमे होता है ।
६७) अवन् कोडुत्त उपकरणगळैक् कोण्डु अप्राप्त विषयङ्गळिल् पोगाते, ” तन्तनी कोण्डाक्किनै ” एङ्गिरपडिये वागुत्त विषयत्तुक्के शेषमाक्किक् कोण्डु कित्तुगै
उस परब्रह्म द्वारा प्रदत्त उपकरण (जीवात्मा के लिए इन्द्रिय और देह) का सही उपयोग करना चाहिए अर्थात् भगवद्-सेवा और भागवत-सेवा मे ही होना चाहिए न कि इन्द्रिय तृप्ति मे |
अनुवादक टिप्पणी :
भगवान् ही शेषी (स्वामी) है और चेतन तत्त्व शेष (भगवद्दास) है| अतः जीवात्मा का स्वाभाविक रूप से स्व इन्द्रियों से नित्य भगवद्-सेवा करना ही परम उद्देश्य है. भगवान् जीवात्मा को देह और इन्द्रिय प्रदान इसी लिए करते हैं ताकि (वह) जीव उनकी सेवा करें| भगवद्-पार्षद भगवद्भक्त श्रीनम्माळ्वार (शठकोपसूरि) स्व पासुर मे “तन्तनी कोण्डाक्किनै” (तिरुवाय्मोळि 2.3.4) कहते हैं वह भगवद्-कृपा से भगवान् के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हैं । वह कहते हैं, “अनन्त काल से मैं इस भौतिक जाल चक्र मे बंधा था और आपकी अहैतुकी कृपा से आप बहुत समीप आकर मेरे हृदय मन्दिर मे विद्यमान और प्रकाशवान है । इस कृत्य के लिए मैं अत्यन्त आभारी हूँ । इस कृतज्ञता को कैसे व्यक्त करूँ ? मैं अपने आप को समर्पित करता हूँ । लेकिन यह भी कैसे हो सकता है क्योंकि मैं आपकी सम्पत्ति हूँ और मेरी मान्य सम्पत्ति भी असल में आपकी ही सम्पत्ति है । आपकी देन ही यह मेरा देह है और आप स्वयं ही मुझसे आपकी सेवा करवा रहे हैं । ” लोकाचार्य स्वामीजी (नम्पिळ्ळै) ईडु व्याख्या मे कहते हैं कि आत्मसमर्पण करने का कारण सर्व मुक्ति प्रसंग से बचने के लिए किया जाता है । “सर्व मुक्ति प्रसंग” – – सभी जीवों का परमपद मे होना भगवदेच्छा (भगवान् का निर्वाचन) है क्योंकि भगवान् चाहते हैं कि सभी जीव परमपद का आस्वादन करे (नित्य उनके साथ ही रहे) । परन्तु यह जीव के लिए स्वाभाविक (स्वरूपानुरूप) नहीं है और ऐसा कदाचित भी नहीं करना चाहिए । मोह वश जीव आत्मसमर्पण करता है और स्वरूपानुरूप ज्ञान प्राप्त कर यह कृत्य अनुचित मानकर ऐसे सोचता है ” मैं जो भगवद्सम्पत्ति ही हूँ अपने आपको पुनः कैसे उस भगवान् को समर्पण करूँ जैसे कुछ नया वस्तु समर्पण कर रहा हूँ ” और उसके लिए प्रायश्चित करता है । वास्तव मे यह छल है ।
६८) एकान्त भोगत्तुक्कागप् पोन्त (पोन्द) पिराट्टि अशोकवनिकैयिळे इरुन्ताप्पोले तोट्रा निन्रतायित्तु स्वरूप ज्ञानम् पिरन्त (पिरन्द) पिन्बु देहत्तिले इरुक्क इरुप्पु
भगवती सीता देवी ने भगवान् श्रीरामचन्द्र के साथ एकान्त मे भोग करने की इच्छा से ही उनके साथ वनवास किया परन्तु यह इच्छा प्रतिकूल हुई और अन्ततः अशोक वन मे विरह भावना से रही । इसी प्रकार जब जीवात्मा को स्वस्वरूप ज्ञान प्राप्त होता है (भगवद् सम्बन्ध) तब इस देह मे रहना शोक पूरित होता है ।
६९) तिरन्तुकिडन्त वासल्तोरुम् नुळैन्तु तिरियुम् पदार्त्तम् पोले, कर्मानुगुणमाग देवादि सरीरङ्गळ्तोरुम् प्रवेशित्तुत्तिरियुम्
जैसे खुले घर मे कुत्ता प्रवेश करता है ठीक उसी प्रकार जीवात्मा भी देव, मनुष्य, पक्षी, जानवर, पेड़, इत्यादि शरीरों मे स्वकर्मवश प्रवेश करता है और इस संसार चक्र मे फँसता है ।
अनुवादक टिप्पणी : स्वकर्मवश जीव देह (मे प्रवेश) प्राप्त करता है । इस संसार मे अनेकानेक वर्ण दृश्य हैं । भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता मे कहते है अन्त काल मे जीव जैसा इच्छा करता है उसी प्रकार अगला देह प्राप्त होता है । मनु स्मृति मे कहा गया है – जब जीव मन से अपराध करता है तो अगले जन्म मे चण्डाल रूप (इस रूप मे कोई उच्चतम सोच विचार नही होता है) धारण करता है, वाचिक अपराध से तिर्यक (पक्षी) रूप मे (इस रूप मे वाक् का कोई प्रयोजन नही होता) जन्म लेता है, कार्मिक अपराध से पेड़ के रूप मे जन्म लेना पड़ता है (क्योंकि इस देह मे कुछ कर्म नही कर सकता है) ।
७०) भक्तिमानुक्कुम् भक्तियुण्डु । प्रपन्नुक्कुम् भक्ति उण्डु । रुचियै ओऴिय प्रपत्ति पण्णकूडाते
भक्तिमान (भक्तिमार्गानुयायी) और प्रपन्नों (शरणागत मुमुक्षुओं) दोनों में भक्ति होता है । बिना भक्ति के (भक्ति को छोड़कर) शरणागति नहीं करना चाहिए ।
भक्ति भगवान् के प्रति प्रेम या आसक्ति है। दोनों – भक्तिमान (भक्तियोग अनुयायी) और प्रपन्न (भगवान् का शरणागत) मे भक्ति होती है । बिना भक्ति के जीव शरणागति नही कर सकता है । अगर बिना भक्ति के जीव शरणागति कर भी लें तो कोई प्रयोजन नही होता है ।
अनुवादक टिप्पणी : भक्तिमान (भक्तियोग निष्ठ) और प्रपन्न (शरणागत निष्ठ) की भक्ति मे यही भेद है कि भूतपूर्व के लिए भक्ति उपाय है और उत्तरवर्ती के लिए भगवान् सिद्धोपाय (उपायोपाय) है अर्थात् भगवद्कैङ्कर्य मे आसक्ति (रति) ही भक्ति है ।
पूर्ण लिङ्क यहाँ उपलब्ध है : https://granthams.koyil.org/divine-revelations-of-lokacharya-hindi/
अडियेन् सेट्टलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास
आधार – https://granthams.koyil.org/2013/08/divine-revelations-of-lokacharya-7/
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