विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २५

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://granthams.koyil.org/virodhi-pariharangal-hindi/ पर हिन्दी में देख सकते है।

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५७) प्रसाद विरोधी – शुद्ध प्रसाद में बाधाएं

श्रीरंगनाथ भगवान के प्रसाद से श्रीकुरेश स्वामीजी और आण्डाल अम्माजी को श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और श्रीवेदव्यास भट्टर स्वामीजी प्राप्त हुए

प्रसाद का अर्थ वह भोजन है जो सबसे पहिले भगवान को अर्पण किया गया हो। भोजन जो तिरुमदप्पल्ली (रसोई) में बनाया गया हो। कच्चा दूध, फल, शक्कर आदि का एक बार भगवान को भोग लग गया तो वह प्रसाद हो जाता है। भगवान को भोग लगाना इसे तमील में ऐसे समझाया गया है “कंण्डरुलप पण्णुत्तल” – इसका अर्थ है वह जो भगवान को निवेदन किया गया हो जिसे कृपाकर वे अपनी दिव्य दृष्टी से देखकर पवित्र कर सके। प्रसाद स्वीकार का अर्थ प्रसाद को ग्रहण कर उसे पाना है। अनुवादक टिप्पणी: यह श्रीवैष्णवों के लिये सर्वश्रेष्ठ महत्त्वपूर्ण है कि केवल प्रसाद को ही भोजन में पाये। बिना भगवान को भोग लगाये पाना सर्व प्रथम पाप हैं – यह भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता के ३.१३ में समझाया हैं तिरुवाराधन को यागम् समझाया गया है और तिरुवाराधन में अर्पण किया हुए प्रसाद को पाने को अनुयागम् कहा गया है। दोनों ही श्रीवैष्णवों के लिये महत्त्वपूर्ण है। हमारे पूर्वाचार्य प्रसाद का बहुत सम्मान/ आदर करते थे। जब श्रीकुरेश स्वामीजी के तिरुमाली में भगवद प्रसाद भेजा गया था तो उसे पूरे हर्षोल्लास के साथ भेजा गया था। जिस पात्र में प्रसाद हो उसे सिर पर पूर्ण आदरपूर्वक रखते है। उसके साथ छत्र, चामर, वाद्य आदि भी होते है। एक और घटना में जब श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को प्रसाद दिया गया तो उन्होंने बड़े आनन्द से कहा “यां पेरू संमानम्” – यहीं वो सम्मान है जो हम प्राप्त करते है। अत: प्रसाद को पूर्ण आदर और सम्मान देना चाहिये। आजकल यह देखा जाता है कई जन (श्रीवैष्णव भी) प्रसाद का पूर्ण रूप से आदर नहीं करते है। कई जन प्रसाद ग्रहण कर दूसरों को दे देते है। कई जन प्रसाद लेकर मन्दिर में ही रख देते है। ऐसे व्यवहार से बचना चाहिये।

  • सांसारिक गाँव/ शहरों के मन्दिर में भगवान का प्रसाद ग्रहण करना और पाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: प्रसाद जो सांसारिक जनों द्वारा बनाया और दिया गया हो तो भी उसका त्याग करना चाहिये। जब सांसारिक जन प्रसाद को बनाते और देते है तो वो सांसारिक विचार से करते है और उसका असर जो प्रसाद पाता है उस पर होता है। ऐसे प्रसाद से बचना उचित है। टिप्पणी: हमें सर्व प्रथम यह समझना चाहिये कि हम सांसारिक नहीं है, परंतु यदि सांसारिक बुद्धि वाले है और संसार में रत है तो भगवान के प्रसाद यह कहकर अनादर करना कि यह संसारी द्वारा पकाया गया है, अनुचित है।
  • दिव्य देश (अभिमान स्थल, आल्वार/आचार्य अवतार स्थल) के मन्दिर में प्रसाद पाने से बचना बाधा है। उसे वितरण करते ही पाना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यह समझाया गया है कि जब भी प्रसाद का वितरण हो उसे उसी क्षण पाना चाहिये। “प्रसाद प्रपत्ती मात्रेण: भोक्तव्य” व्याख्यान में भी लिखा है। हम यह स्मरण कर सकते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीरंगम में खेल खेलनेवाले बच्चों से भी प्रसाद ग्रहण किये और तिरुवाराधन को पूरा किया जब की वह उनके खेल का हिस्सा था।
  • दिव्य देश के भगवान का प्रसाद विश्लेषण करने के पश्चात पाना बाधा है। वह कैसे बनाया गया है, किसने बनाया है आदि यह पुछताछ किये बिना उसे जैसे प्राप्त हुआ वैसे ही पाना चाहिये।
  • उपवास आदि के कारण प्रसाद का त्याग करना बाधा है। शास्त्रानुसार एकादशी का पालन करना चाहिये परन्तु दिव्य देश के मंदिरों में जब प्रसाद आदि देते है तो उसे सन्मान के साथ ग्रहण कर पाना चाहिये। भगवद प्रसाद का त्याग अर्थात उनका अपमान है। अनुवादक टिप्पणी: उपवास केवल विशेष दिवस पर किया जाता है जैसे एकादशी, पितृ तर्पण, ग्रहण आदि – ऐसे उपवास का कोई विकल्प नहीं है, उसे करना ही चाहिये। ऐसे उपवास के समय हमें भगवद प्रसाद प्राप्त हो तो हमें उस प्रसाद को सम्मान करते हुए ग्रहण करना चाहिये।
  • प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात आचमन कर स्वयं को शुद्ध करने कि इच्छा करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: सामान्यत: कुछ भी पाने के पश्चात हम हाथ, पैर धोते है और आचमन करते है। परंतु मन्दिर में भगवान का प्रसाद पाने के पश्चात अगर हमारे हाथ मुँह को स्पर्श न हो तो ऐसा कुछ भी शुद्धीकरण करने कि आवश्यता नहीं है। प्रसाद पाने के पश्चात हाथ पर जो भी बचा हो उसे अपने माथे पर पोछ लेना चाहिये।
  • भागवत प्रसाद को दूषित मानना बाधा है। श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी तिरुमालै के ४१वें पाशुर में समझाते है कि “पोनगम शेय्द शेडम तरुवरेल पुनिदमन्रे” – अगर भागवत अपना शेष प्रसाद देते है तो वह सबसे अधीक पवित्र है। सामान्यत: किसी के द्वारा भोजन झूठा छोड़े जाने पर वह दूषित होने से हम उसे नहीं पाते है। ऐसे विचार हमें भागवत प्रसाद के समय नहीं आना चाहिये।
  • आचार्य प्रसाद को सामान्य मानना बाधा है। उसे बड़े आदर के साथ ग्रहण करना चाहिये।
  • आचार्य प्रसाद को सभी के सामने ग्रहण करने से हिचकिचाना बाधा है।
  • आचार्य के मुख से स्पर्श होकर यह प्रसाद दूषित हो गया है ऐसा समझना बाधा है।
  • आचार्य प्रसाद पाने के लिये पूरे दिन भूखे नहीं रह पाना बाधा है। हमें प्रति दिन आचार्य प्रसाद को बड़े ही उत्सुकता से पाना चाहिये। इस सम्बन्ध में हम श्रीपरवस्तु पट्टरपिरान जीयर को स्मरण कर सकते है जो “मोर मुन्नार ऐयर” (जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शेष प्रसाद (दही के चावल) को उनके केले के पत्ते में सबसे पहिले पाते थे) के नाम से भी प्रसीद्ध थे। वे “चिरोपासित सत वृत्तर” के नाम से भी प्रसीद्ध थे – जो अपने अच्छे आचरण के लिये जाने जाते थे। यहाँ सत वृत्ति (अच्छा आचरण) अर्थात प्रतिदिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रसाद पाने के पश्चात उसी पात्र में पाना। वह भी इसलिये क्योंकि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपना प्रसाद दही के चावल से समाप्त करते थे और जीयर प्रसाद को वही से प्रारम्भ करते थे जिससे उनके प्रसाद में आचार्य का स्वाद आये और उसके पश्चात वो रसम चावल और नेगिलकरीयमुत्तु (कुलम्भु) चावल पाते थे। यही श्रीपरवस्तु पट्टरपिरान जीयर स्वामीजी हम पर “श्रीवचन भूषण मीमांसा भाष्य” नामक ग्रन्थ की कृपा किये।
  • भगवान को अर्पण किये हुए भोग पर जब उनके पाने के कोई निशान न दिखे तब भी ऐसे प्रसाद को खुशी से न पाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: अर्चावतार भगवान सामान्यत: अपने पवित्र नेत्रों से प्रसाद पाते है न की मुख से और उस भोग को प्रसाद में परिवर्तित करते है। इसलिये उनके द्वारा पाए गये प्रसाद पर कोई चिन्ह नहीं होंगे। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें भगवद प्रसाद पाने में आनन्द नहीं लेना चाहिये।
  • जब आचार्य अपने निर्हेतुक कृपा से प्रसाद प्रदान करते है तो उसे उसी क्षण पा लेना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। हमारे पूर्वाचार्यों के जीवन से हम कई घटना ऐसी देख सकते है जहाँ उन्होंने स्वयं अपने शिष्य को अपना प्रसाद दिया है जैसे श्रीशैलेश स्वामीजी अपना शेष प्रसाद श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को और श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी श्रीवेदांती स्वामीजी को दिये है।
  • आचार्य के साथ बैठ कर प्रसाद पाना बाधा है। हमें आचार्य के प्रसाद पाने कि प्रतिक्षा कर फिर पाना प्रारम्भ करना चाहिये।
  • अपने आचार्य को प्रसाद पाते देख हमें पूर्णत: आनंदित होना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है।
  • स्वयं भगवान के प्रसाद के पात्र से प्रसाद लेना बाधा है। हमें दूसरों के द्वारा प्रसाद वितरण करने तक रुकना चाहिए।
  • बिना अर्चक कि आज्ञा से प्रसाद लेना बाधा है।
  • भोग या प्रसाद जो भी अर्पण किया हो उसे दूषित करना बाधा है।
  • गुरु भाइयों को छोड़ प्रसाद पाना बाधा है। हमें दूसरों को प्रसाद देकर उनके साथ बैठकर प्रसाद पाना चाहिये।
  • प्रसाद के बर्तन या पत्ते को पीछे नहीं छोड़ना चाहिये जिससे संसारी, नास्तिक, पशु-कुत्ते आदि उसे स्पर्श न करें। ऐसा करना बाधा है।
  • भगवद/ भागवत प्रसाद को पाते समय शिष्टाचार न पता होना बाधा है। प्रसाद को बड़े आदर के साथ पाना चाहिये जैसे हमारे पूर्वाचार्य रखते थे और ऐसे तत्व का पालन न करना / उसे न जानना बाधा है।
  • प्रसाद को जमीन पर गिराना, पैर रखना, आदर न करना, आदि बाधा है।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2014/06/virodhi-pariharangal-25/

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