श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी
हिंदी अनुवाद – कार्तिक श्रीहर्ष
श्रीभट्टानाथ-मुखाब्ज- मित्रह:
हम श्रीमद् भगवतगीता में आल्वारों के पदों का परिणाम हुआ जो उन्होंने श्रीरामानुजाचार्य
स्वामीजी के काम से अनुभव किया हैं ऐसे कुछ और उदाहरण खोजेंगे । यहाँ बताने का लक्ष्य
यह दिखाना कि आरुलिच्चेयल (दिव्य प्रबन्ध) के कारण किस तरह श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के
व्याख्या अनूठे हैं ।
“चतुर्विधा भजन्ते मां” पद में चार प्रकार के अच्छे व्यक्ति को पहचाना गया हैं।
(१)आर्त:
(२)जिज्ञासु
(३)यर्थाथी
(४)ज्ञानी।
चारों अच्छे व्यक्ति के व्याख्या जो भगवान श्री कृष्ण कि सेवा
करते हैं परंतु वह एक दूसरे में भिन्न हैं।
सातवें अध्याय में भगवान यह सिखाते हैं कि केवल मेरी हीं शरण में आवों (ये मामेव प्रपध्यंते)
मैं जो आत्मा को माया प्रभाव से छुटकारा पाहुचाऊँगा (ते मम मायामेतां तरन्ति) जो भगवान का
अद्भुत प्रभाव हैं (दैवी माया)।
इस वर्तमान पद में भगवान उनके शरण हुए जो चार प्रकार के भक्त होते हैं उनके बारेमे
समझाते हैं। “शरण होना” यह कहना –प्रपध्यंते भगवान अब भजन्ते शब्द का प्रयोग करते हैं। श्री
शंकरजी भजन्ते शब्द का सेवन्ते या “सेवा करना” एसा वर्णन करते हैं। उपासना का सारांश भाव
और शरण होना दोनों का व्यवहारिक अभिप्राय कि सेवा मे स्थान हैं। चार वर्ग के अच्छे व्यक्ति
भगवान कृष्ण के सेवक हैं।
इस वर्तमान पद में भगवान उनके शरण हुए जो चार प्रकार के भक्त होते हैं उनके बारेमे समझाते हैं। “शरण होना” यह कहना –प्रपध्यंते भगवान अब भजन्ते शब्द का प्रयोग करते हैं। श्री शंकरजी भजन्ते शब्द का सेवन्ते या “सेवा करना” एसा वर्णन करते हैं। उपासना का सारांश भाव और शरण होना दोनों का व्यवहारिक अभिप्राय कि सेवा मे स्थान हैं। चार वर्ग के अच्छे व्यक्ति भगवान कृष्ण के सेवक हैं।
इस पद पर टीका करते समय श्री शंकरजी लिखते हैं आर्त:-तस्करा-व्याघ्रा- रोगादिना अभिभूत: आपन्नह; जिज्ञासु- भगवत्तत्त्वं ज्ञानातुमिच्छाति यह, यर्थाथी- धनकामह; ज्ञानी –
विस्नोस्तात्त्ववित। चार प्रकार के भगवान के सेवकों में भिन्नता हैं जो अन्त का तलाश करते हैं। पहिले प्रकार के
चोरों, शेरों और बीमारीयों से दु:खी हैं और इनसे मुक्त होना चाहते हैं। दूसरे प्रकार के भगवत
तत्त्व या भगवान कृष्ण के मूल तत्त्व को जानने के लिए इच्छुक हैं। तीसरा धन में रुचि रखने
वाला हैं। चौथा भगवान विष्णु के तत्त्वों कों जानकर उनकी सेवा करने वाला और उसे
“ज्योतिमान” कहते हैं।
श्रीरामानुज स्वामीजी यह स्थापित करते हैं कि यह चार प्रकार के भगवान के सेवाकों का उद्देश
तीन तत्त्वों के अस्तित्व के कारण हैं – जीव, ईश्वर और माया जैसे वेदान्त में सिखाया गया हैं।
जीव माया कि तलाश करता हैं, स्वयं भगवान – भगवान के सेवकों में भिन्नता उत्पन्न करता हैं। सांसारिक रूचि में दो प्रकार हैं वह इस पर निर्भर करता हैं कि पहिले जो उसके पास था अब वह लुप्त हो गया (भ्रस्तैस्वार्यकामनाह) या पूरी तरह नया अधिकार (अपूर्वैस्वार्यकामह) इस तरह का विभाजन स्वयं या भगवान पर उपयोग नहीं हो सकता हैं क्योंकि कैवल्य मोक्ष या भगवत प्राप्ति मोक्ष नित्य हैं और यहाँ हार या प्राप्त करने का तो कोई प्रश्न हीं नहीं आता हैं। वह तो फिर से नूतन हीं प्राप्त किया जा सकता हैं। इसलिए चार प्रकार के भगवत सेवक है वह भ्रस्तैस्वार्यकामनाह, अपूर्वैस्वार्यकामह, कैवल्यकामः और भगवतकामः।
श्री रामानुज स्वामीजी किस तरह इस अनूठे व्याख्या को उत्पन्न करते हैं?
इस व्याख्या को श्री विष्णुचित्त स्वामीजी के तिरुपल्लाण्डु स्तुतियों से अधिकार पाया गया हैं
जिन्होंने चार प्रकार के भक्तों को पहचाना हैं। पहिले दो पद के बाद बाकी सारे पद को त्रय कि
स्तुति के जैसे देखा जा सकता हैं। हर त्रय कि स्तुति का समूह को चार प्रकार के भक्तों समर्पित
किया गया हैं।
उदाहरण के तौर पर “वाल्लपट्टु” भगवतकामः को प्रार्थना करता हैं, “एडुनिलत्ति” कैवल्यकामः को,
और “अण्डक्कुलत्तु” अपूर्वइश्वर्यकामह और भ्रस्तैश्वर्यकामह को। यह पेरियावाचन पिल्लै के
व्याख्या में समझाया गया हैं जिसे हम अधिक जानकारी के लिये पढ़ सकते हैं। यह बहुत
मनोहर हैं कि श्री विष्णुचित्त स्वामीजी भक्तों को तिरुपल्लाण्डु के जरिये मंगलानुशासन कैंकर्य
करने कि प्रार्थना करते हैं।
श्री रामानुज स्वामीजी तिरुपल्लाण्डु के चार भाग में विभाजित को गीता में समझाने के लिये
इस्तेमाल करते हैं और दोनों बातों को सिखाते हैं। यहीं कारण हैं कि श्री वरवर मुनि स्वामीजी
श्री रामानुज स्वामीजी को “श्रीभट्टानाथ-मुखाब्जा- मित्रह:” यह कहकर संबोधित करते हैं या सूर्य
जो कमल पर हर्ष लाता हैं जैसे श्री विष्णुचित्त स्वामीजी का चेहरा।
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/13/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-15-english/
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