द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 20

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 19

मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी

श्रीभाष्यमङ्गलश्लोक का अनुभव – भाग १

अनन्त विभूषित जगद्गुरु महान् आचार्य श्री रामानुजाचार्य द्वारा विचरित यह श्लोक सभी भक्तों के लिये लोकप्रिय एवम् सदाबहार अमृत रसपान है

अखिल-भुवन-जन्म-स्थेम-भङ्गादिलीले

         विनत-विविध-भूत-व्रात-रक्षैक-दीक्षे

श्रुति-शिरसि-विदीप्ते ब्रह्मणि श्रीनिवासे

         भवतु मम परस्मिन् शेमुषी भक्तिरूपा ॥

यह श्लोक भक्तों के हृदयों मे भक्ति भावना को उत्पन्न करती है — यह श्लोक एक विनम्र प्रार्थना है भगवान् श्रीमन्नारायण के अर्चास्वरूप श्री श्रीनिवास के प्रति, की, हे भगवन् आप इस दासानुदास की ज्ञानद्दीप्ती का पालन-पोषन करे जो तदनन्तर भक्ती रूप लेती है । यह श्लोक आऴ्वारों के दिव्यप्रबंधों से उत्प्रेरित है और ऐसे इन महापुरुषों का गुणगान भी है ।

इस प्रस्तुत लेख मे, हम सभी प्रथम दो दावों को समझने का प्रयास करेंगे –

1) “अखिल-भुवन-जन्म-स्थेम-भङ्गादिलीले” —

यह शब्द जो सुस्पष्ठ रूप से भगवान् के क्रीडा कलापों जैसे सृष्टि निर्माण, पोषण, संरक्षण इत्यादि को व्यक्त करते है वह वेदान्त-सूत्र के दूसरे सूत्र

जन्माऽदस्य यतः

से उत्प्रेरित है जो परिणामस्वरूप उपनिषद्वाक्य

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते

से पुनः प्रेरित है । इन सभी शब्दों मे “स्थेम” शब्द का अर्थ सृष्टि का संरक्षण और पोषण है । इसमे भगवान् का रक्षकत्व (रक्षण) स्वभाव अर्थात् इस जगत् की रक्षा करना भी शामिल है ।  कहे कि रक्षण का पूर्व ही उल्लेख हो चुका है, तो क्यों प्रिय श्रीरामानानुजाचार्य स्वामीजी

विनत-विविध-भूत-व्रात-रक्षैक-दीक्षे

शब्दों से यही रक्षण तात्पर्य को पुनः प्रकाशित कर रहे है — भक्तों का संरक्षण करना ही श्री श्रीनिवास भगवान् का मुख्य उद्देश्य है ।

क्यों भगवान् का रक्षकत्व स्वभाव को पुनः दोहराया गया है जब इसका उल्लेख पूर्व ही श्लोक के प्रथम वाक्य के चतुर्थांश शब्द “स्थेम” के माध्यम से किया गया है ? हमारे आचार्य सदैव अपने सुशब्दों का प्रयोग केवल् शास्त्र के आधारपर करते है — शास्त्रीय प्रमाण । जब श्रीरामानुजाचार्य के इन शब्दों का अध्ययन, शास्त्रीय प्रमाण के आधार पर करेंगे तो यह सुनिश्चित है कि हम शास्त्रों मे ऐसा उल्लेख नही पायेंगे अपितु ऐसा उल्लेख केवल आऴ्वारो के दिव्य-प्रबन्धों मे ही पायेंगे । ऐसे महानुभाव आऴ्वार के दिव्य-वचन ही हमारे प्रिय श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के वचनों का आधार एवम् प्रमाण है । श्रीशठकोप स्वामीजी अपने तिरुवाय्मोऴि 1.3.2 मे भगवान् के विशेष गुणों का अनुभव करते है । श्रीशठकोप स्वामीजी भगवान् के अपरिमित एवम् मूल गुणों का तात्पर्य

” ओळिवरुमुऴुनलम् मुदलिल केड़िल “

वाक्यांश से संभोधित करते है । तदनन्तर, श्री शठकोप स्वामीजी “मोक्षप्रदत्व” गुण का अनुभव करते है — भगवान् का विशिष्ट एवम् नित्य शक्ति जिससे मोक्ष प्रदान करते है जो

” वीडान्तेलितरु निलैमै अदु ओऴिविलन्”

से संभोदित है । यह प्रश्न ” क्या मोक्ष प्रदान करने वाली भगवद्-शक्ति पूर्वोक्त उल्लिखित मुख्य गुणों का भाग (अङ्ग) नही है ” का उत्तर पूर्वाचार्य इस प्रकार देते है — हलांकि यह शक्ति पूर्वोक्त गुणों का अङ्ग है, परन्तु यह विशेष और आत्मा के लिये योग्य एवम् उपयुक्त है । अतैव, इसका अनुभव पृथक ही किया जाता है ।

प्रिय श्री शठकोप स्वामीजी “मोक्षप्रदत्व” (मोक्षानुभव) अपने तिरुवाय्मोऴि के दूसरे दशक के ” अणैवधरवणैमेल् ” पासुर मे करते है । स्वामी वेदान्ताचार्य (देशिक स्वामीजी) अपने द्रमिनोपनिषद-तात्पर्य-रत्नावलि मे सुस्पष्ट रूप से निर्धारित करते है की “मोक्षप्रदत्व” (मोक्षानुभव) ही तिरुवाय्मोऴि का मुख्य प्रकाश है । अतैव, हम निर्धारित कर सकते है कि “मोक्षप्रदत्व” विशेष विशिष्ट विलक्षण भगवद्-शक्ति एवम् भगवद्-गुण है, जो पृथक (स्वतंत्र रूप से) अनुभव के योग्य है । अतः इस दृष्टिकोण से देखा जाये,

“विनत-विविध-भूत-व्रात-रक्षैक-दीक्षे”

वाक्यांश साधारण रक्षण स्वभाव की बात नही करता अपितु उस रक्षण की बात करता है जो विशेषतः मोक्षप्रदत्व (मोक्षानुभव) का रूप धारण करती है । 

स्वामी वादिकेसरि आऴगिय मणवाळ जीयर् के पूर्ववर्ती आचार्यों ने अपने संस्कृत ग्रंथों मे कभी भी आऴ्वारों के दिव्य-प्रबंधों का उद्धरण करने का अनुशीलन नही किया, यहाँ तक की स्वामी श्रुटप्रकाशिक भट्टर ने अपने श्रीभाष्य की व्याख्या मे प्रत्यक्ष रूप से आऴ्वार के दिव्य-प्रबंध के पासुरों का उद्धरण नही किया । उन्होने इसके बजाय श्री यामुनाचार्य (आळ्वन्दार) जी का

” जगदुद्भव-स्थिति-प्रनाश-संसारविमोचन “

वाक्यांश का उद्धरण किया जो वस्तुतः आऴ्वारों के दिव्य-पासुरों पर निर्भर है ।

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/18/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-20-english/

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