श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः
द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्
मूल लेखन – पेरुमाल कोइल श्री उभय वेदांत प्रतिवादि अन्नन्गराचार्य स्वामी
पिछले लेख का अनुसरण करते हुए, हम आगे श्रीभाष्य के मङ्गल श्लोक के विभिन्न अंशों पर चर्चा करेंगे जो पूर्वाचार्य एवं आळ्वारों के दिव्य श्रीसूक्तियों पर आधारित है |
विनत-विविध-भूत-व्रात-रक्षैक-दीक्षे
परोक्त संयुक्त शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है ? शाब्दिक अर्थ कुछ इस प्रकार से है ::
विनत — प्रस्तुत,
विविध — विविध प्रकार के,
भूत — चेतन (जीवात्मा) ,
व्रात — वर्ग ,
रक्षैकदीक्ष — उपरोक्त वर्गीकृत चेतन तत्त्वों का संरक्षण करने का कर्तव्य एवं प्रतिज्ञा (व्रत) जिसका है (वह)
उपरोक्त शाब्दिक अर्थ भगवान् की उपाधि है और इसकी व्याख्या है — जिसका विभिन्न वर्गिकृत चेतन तत्त्वों का संरक्षण करने का व्रत है, वह |
हालांकि कहने और समझने के लिये यह अर्थ ठीक सा प्रतीत होता है, पर रामानुज स्वामी के अनुसार यह यथार्थ नही है | और तो और, श्रुतप्रकाशिक स्वामी और वेदान्ताचार्य स्वामी (देशिक स्वामीजी) उपरोक्त संयुक्त शब्द का कुछ और ही अर्थ प्रकाशित करते है |
अब अन्य अर्थ समझने के लिये संस्कृत भाषा के माध्यम से शब्दों के अर्थ को समझने का प्रयास करेंगे | “व्रात” शब्द “समूह” एवं “परिषद्” शब्द का समानार्थी है | इसका अर्थ समूह या वर्ग या श्रेणी है | उदाहरण के लिये कृपया “ब्राह्मण-समूह “ शब्द लीजिए | स्पष्ट है कि यह ब्राह्मण वर्ग का संग्रह या ब्राहमणों का समूह अर्थ दर्शाता है | इस अर्थ की पुष्टि षष्ठी-तत्पुरुष-समास से किया गया है | चलिये एक और शब्द उदाहरण के लिये – “राजा परिषद् “| समूह और परिषद् समानार्थी शब्द होने के बावज़ूद इनसे प्रतिपादित संयुक्त शब्द के अर्थों मे बहुत अन्तर है | राजा – परिषद् शब्द का अर्थ राजाओं का समूह नही अपितु राजा का राज दर्बार है जहाँ राजा, उसके मंत्री गण और प्रजा संमिलित होते है | हालांकि इस शब्द का विवेचन ”षष्ठी- तत्पुरुष-समास” से किया गया है पर इस शब्द का प्रतिपादित अर्थ ”ब्राह्मण-समूह” के प्रतिपादित अर्थ से बहुत भिन्न है|
इस प्रकार से देखा जाये, उपरोक्त अन्वय भक्तों के समूह या समतुल्य वर्गों को प्रतिपादित नही करता है अपितु उनसे जुड़े समस्त तत्त्वों को भी दर्शाता है जैसे मंत्री गण और राजा से संबन्धित प्रजा | उपरोक्त प्रकार से यह प्रतिपादित होता है कि व्रात शब्द भक्तों का वर्ग या समूह नही दर्शाता अपितु भक्त एवं उनके संबंधी को दर्शाता है | “विविध” उपपद ही इसकी पुष्टि करता है | इन भक्तों के संबंधी विविध स्वभाव दर्जा और प्रकृति के हो सकते है | इन विविध भिन्नताओं के बावज़ूद, भगवान् इन भक्तों के संबंधीयों का संरक्षण करते है | इस अर्थ का शास्त्रीय प्रमाण है ::
शुर्-मनुष्य:-पक्षी वा ये च वैष्णव समाश्रय: |
तेनैव ते प्रयास्यन्ति तद्विष्णोः परमं पदं ||
एक वैष्णव का शरण चाहे पशु, पक्षी, मनुष्य ने लिया हो, वह केवल इस संबंध मात्र से भगवद्-धाम (विष्णु लोक) प्राप्त करता है |
यह श्लोक बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस श्लोक मे “मनुष्य” शब्द का उपयोग पशु और पक्षी शब्दों के बींच मे हुआ है जबकि इसका प्रयोग आरंभ या अन्त मे होना चाहिये | इसका एक मात्र कारण है कि यहाँ मनुष्य के व्यक्तिगत उपाधियाँ अयोग्य एवम् व्यर्थ है | केवल संबंध ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण है | और जब भगवान् ऐसे मनुष्य का उद्धार करते है समय यह नही सोचते की “अरे ! यह मनुष्य है | इसका ज्ञान इतना है | यह एक पशु है इसकी खूबियाँ ये है ये इसके फायदे है परन्तु इसके बजाय वह केवल संबंध मात्र से ही इनका उद्धार करते है | इसकी पुष्टि “एव” शब्द से दर्शाया गया है |
यहाँ इस श्लोक का अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह भगवान् का सुन्दर एवं अनोखा गुण दर्शाता है जो अपने संरक्षण प्रेम के फैलाव को तत्कालीन भक्तों को ही नही परन्तु उन भक्तों से संबंधित सभी अन्यों को भी प्रदान करते है | अगर यह अर्थ हम नही लेते, विविध एवं व्रात शब्द कोई खास अर्थ नही दर्शाते | अगर इन शब्दों का उपयोग हुआ है तो उनको उपयुक्त भाव से बहुवचन का संकेत करना होगा | अतैव हमारे पूर्वाचार्य ऐसे सतही तौर के अर्थ से असहमति व्यक्त करते हुए श्रीरामानुज स्वामीजी के यथार्थ भाव को तलाशते है |
श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त अर्थ यथार्थ है क्योंकि यही भाव को हमारे आळ्वारों ने प्रतिपादित किया |
” पिडित्तार् पिडित्तार् वीट्टिरुन्दु पेरियवानुळ् निलावुवरे “
(तिरुवाय्मोळि — ६.१०.११ ) और
” एमर् कीळ्मेलेळुपिरप्पुम् विडिया वेन्नरगत्तु एन्ड्रुम् सेर्दल् मारिनरे “
(तिरुवाय्मोलि — २-६-७) जहाँ आळ्वार् शठकोप मुनि ने यही अर्थ का प्रतिपादन किया है |
श्रीनिवासे
पूरे ब्रह्म सूत्रों मे श्रीजी अम्माजी का उल्लेख एवं भगवान् से उनके संबंध का कोई वर्णन नही है | फिर भी अपने प्रारंभ श्लोक मे व्याख्याकार (श्रीरामानुज स्वामीजी) ब्रह्म सूत्र के संदेश का सारांश वर्णन करते है | इसमे व्याख्याकार भगवान् को श्रीनिवास के नाम से संबोधित करते है | ऐसा क्यों ? ऐसा इसलिये क्योंकि आळ्वारों का निर्दिष्ट निर्देश है कि सर्वोत्तम भगवान् को श्रीजीअम्माजी के साथ ही संबोधित करना चाहिये और जो श्रीजीअम्माजी से असंबंधित है उनका त्याग करे और उनका शरण नही ले |
” तिरुविल्लात् तेवरैत् तेरेल्मिन्तेवु ”
यह आळ्वारों के प्रसिद्ध सिद्धांतों मे से एक है |
भक्ति-रूपा-शेमुषी-भवतु
यह एक अदीक्षित चेतन का विचित्र प्रार्थना एवं निवेदन है | यह समझने योग्य है अगर कहा जाए – ” यह दास श्रीनिवास के विषयों मे प्रबुद्ध एवं अविज्ञ हो ” या ” मैं भगवान् श्रीनिवास का भक्त रहूँ “| पर श्रीरामानुज स्वामीजी जटिल शब्दों का प्रयोग करते हुए कहते है – ” भगवान् श्रीनिवास की मेरी (इस दास की) अभिज्ञता भक्ति रूप ले | ऐसे शाब्दिक प्रहार के झटके से श्रीरामानुज स्वामीजी आळ्वारों का सीधा अनुसरण करते है और विशिष्टाद्वैत का निर्णायक सिद्धांत को प्रकाशित करते है |
हमारे निकटस्थ आध्यात्मिक संसार मे, दो प्रकार के शिविर (संघ/समूह) है | एक समूह ज्ञान-मार्ग (ज्ञान का मार्ग) का अनुसरण करते है और दूसरा भक्ति-मार्ग (भक्ति का मार्ग) का अनुसरण करते है | ऐतिहासिक रूप से, इन दोनों समूहों के बींच के तार्किक तनाव को भलिभाँति लिपिबद्ध किया गया है | गलतफहमी से, श्रीरामानुजस्वामीजी के विशिष्टाद्वैत वेदान्त को भक्तिमार्ग मे वर्गीकृत किया जाता है | ऐसे वर्गीकरण मे कमियाँ है क्योंकि इससे भक्तिमार्ग ” भक्ति जो शुष्क एवं अशुद्ध ज्ञान का विरोधी है ” से मान्य हुआ और ज्ञानमार्ग “ज्ञान जो भक्ति के भावुकता और भावों का विरोधी है” से मान्य हुआ | आधुनिक तत्त्वदर्शन सांप्रदाय के मतावलंबी अपने मत के अनुसार उनके मार्ग को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये ज्ञानमार्ग को भक्तिमार्ग का प्रारंभिक उन्नति सौपान मानते है या विलोमतः |
श्री विशिष्टाद्वैत तत्त्व दर्शन, ज्ञान एवं भक्ति मार्ग को विपरीतार्थक नहीं मानता और ना ही एक दूसरे को प्रारंभिक उन्नति सौपान भी मानता है । यह दर्शन दोनों को समतुल्य और समान मानता है । आध्यात्मिकविषय मे ज्ञान वस्तुतः भक्ति का ही रूप है , और दूसरे रूप मे उसका अस्तित्व होता ही नही | इसी तरह, भक्ति पूर्णतया ज्ञान से ही निर्मित है और कुछ भी नही | अत: ज्ञान न तो रहस्यमय भाषा है जो शुष्कता एवं काल्पनिकता से आवृत है और भक्ति न तो केवल भावुकता और भावों का परिणाम है | परात्पर परम ब्रह्म (जो) श्रीजी अम्माजी के स्वामी है, (जो) सकल सद्गुणों का साकार रूप है, (जो) सकल दोषों से रहित है, (जो) चेतन-अचेतन तत्त्वों के स्वामी है जो उनके रूपात्मक भाव है और जो अपृथक् अव्यय है, जिसके इच्छा मात्र से संपूर्ण जगत् की व्युत्पत्ति, संरक्षण, विनाश होता है, जिसके खातिर चेतन-अचेतन तत्त्वों का अस्तित्व है, (जो) प्रधान स्वामी है, जिसका मूलतत्त्व सचिदानंद है,जिसका स्वभाव मङ्गलमय है, जिसका दिव्य स्वरूप मनमोहक सुन्दर देदीप्यमान नयनाकर्षक और बुद्धि को वश मे करता है, (जो) स्वयं उपायोपेय है (उपायभी वही, चरम सीमा भी वही), ऐसे उपरोक्त ज्ञान से प्रेमाभाक्ति (भक्ति और स्थायी स्मरण) का विकास होता है | ऐसा ज्ञान को जब सही तौर से समझे, तो इसका अस्तित्व उस परब्रह्म के भक्ति के रूप मे ही होता है | अत: श्रीरामानुज स्वामीजी और उनके मतानुयायी, ज्ञान और भक्ति को, अविलोम अपृथक् न अनन्य, अधूरा नही अपितु एक ही विषय के दो पहलू मानते है |
ऐसा देखा एवं पाया जाता है कि ज्ञानमार्गमतावलंबीयों की ऊंची गूँज की भद्रता सुनाई देती है कि ज्ञानमार्ग बुद्धिजीवियों के लिये है और भक्ति अशक्य और अपरिष्कृत जीवियों के लिये है |(ऐसा इस लिये कि प्रेमाभक्ति हृदय को नम्र करती है और ज्ञान की भ्रान्ति घमण्ड को बढावा देती है |) अत: हम स्पष्ट रूप से यह कह सकते है कि ऐसे बोल केवल स्वयं के प्रतिभा को प्रोत्साहन करने के लिये की उपयोगित है और इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण नही है |
श्रीरामानुज स्वामीजी के मधुर शब्द श्रीशठकोप सूरी के दिव्य शब्द ” मतिनलम् ” का सीधा भाषान्तरण है | अमरकोष के अनुसार “मति” “शेमुषी” का पर्यायवाची शब्द है | “नलम्” का अर्थ भक्ति है | श्रीशठकोपस्वामीजी कहते है – भगवान् की कॄपा से उनको ज्ञान मिला जो भक्ति रूप मे प्रकाशित हुई या भक्ति जो भगवद्ज्ञान से आवृत है | इस तरह से, स्वामी रामानुजाचार्य ने श्रीशठकोपस्वामीजी के उदाहरण का सीधा अनुशीलन किया | हलांकि श्रीरामानुजस्वामीजी पूरे विश्व के लिये एक दिव्य प्रकाशमयी शिक्षा दीप है , पर इसमे कोई सन्देह नही की ऐसे आचार्य के लिये श्रीशठकोपसूरी प्रकाशमय शिक्षा दीप थे |
आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/19/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-21-english/
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