द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 24

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 23

आळ्वारों के श्रीसूक्तियों (अरुलिच्चेयल्) से मूल सिद्धान्त का निरूपण

उपनिषदों मे ऐसे कई विभिन्न वेदवाक्य है जो विभिन्न अर्थों को व्यक्त करते है | उनमे से कुछ वाक्य जीव और परमात्मा का भेद नही करते है (जीव और परमात्म अभिन्न है), तो दूसरी ओर कुछ जीव और परमात्मा का सच्चा भेद करते है |

यह स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी वेदान्ती नही होगा जो कहेगा कि जीव का होना असत्य है या जीव का सम्भव होना ही मुश्किल है | अन्तत: ऐसे वेदान्ती से पूछा जाए कि “कौन इस लोक मे सुख और दु:ख का अनुभव करता है” ? इसका उत्तर तो परमात्मा हो ही नही सकते | न्यूनयातिन्यून विचार से जीव को ही स्वीकारा जाता है | और, ऐसे वेदान्ती जिसके लिये जीव और परमात्मा मे अभिन्नता मान्य है, मानता है कि जीव, इस जगत् मे जो सुख और दु:ख का अनुभव करता है, वह अनुभव परमात्मा के अनुभव से भिन्न है | ऐसे वेदान्त दर्शनों मे, अभिन्नता अप्रत्यक्ष है न कि प्रत्यक्ष | परमात्मा और जीव की अभिन्नता ऐसे मे स्वीकृत है जब जीव को परमात्मा का ही अप्रत्यक्ष रूप मन पर पडे परछाई इत्यादि माध्यम से माना गया हो |  

अतैव, जीव और परमात्मा की परिभाषा, सभी वेदान्त दर्शनों मे स्वीकृत है | सभी वेदान्त दर्शन मतावलंबि एक ही प्रश्न का सामना करते है – भिन्नात्मक एवं अभिन्नात्मक अर्थ प्रतिपादन वाले उपनिषद् वाक्यों को कैसे सुलझाए ? कैसे समाधान करे ? कैसे पारस्परिक भेदाभेद वाक्यों का निष्कर्ष निकाले ?

उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में, वेदान्तियों के बहुत सारे विचार धाराएँ है ।

अद्वैतवाद मतावलम्बीयों का उपागम यह है कि जो वेदवाक्य भिन्नता को प्रकाशित करते है वह असल में उतने प्रमुख नहीं जितना अभिन्नात्मक वेदवाक्य है ।  उनका मानना है कि भिन्नता केवल तब तक है जब तक जीव अविद्या से बद्ध है और जब जीव विद्या (ज्ञान) से पूर्ण आवृत हो तब भिन्नता होती ही नहीं । ये अभिन्नात्मक वेदवाक्यों का बारंबार उद्धरण देते है जो अभिन्नता प्रकाशित करते है, और भिन्नात्मक वेदवाक्यों की उपेक्षा करते है, क्योंकि इनके यथार्थ निम्न श्रेणी के है ।

भेदावादी वेदांतीयों का दृष्टिकोण अद्वैतवादियों के दृष्टिकोण से पूर्णतया उलटा है । उनका मानना है कि जो श्रुति वाक्य अभिन्नता प्रकाशित करते है और (जो) अद्वैतवादियों का मुख्य प्रमाण है असल में वे अभिन्नता की बात ही नहीं करते । उनका मानना है कि जड़ प्रकृति की तुलना में परमात्मा और आत्मा दोनों ही आध्यात्मिक तत्त्व है । वे यह प्रचार करते है कि जीव परमात्मा के आध्यात्मिक वंशावलि से सम्बन्ध रखता है न कि जड़ प्रकृति के प्राकृतिक वंशावली से । वे उन श्रुति वाक्यों का उद्धरण करते है जो भिन्नता को प्रकाशित करते है और उनका मानना है परमात्मा और जीव-आत्मा में वास्तविक भिन्नता है । उनके अनुसार अद्वैतियों का दावा कि भिन्नता केवल जड़ता (अविद्या) से है असह्य एवं अप्रमाणिक है । उपरोक्त कथन के अनुसार, भेदावादी, परमात्मा और जीवात्मा के भेद और अभेद भाव से असहमत है । वे उन श्रुति वाक्यों का यथार्थ भाव प्रकाश करते है जो वाक्य उनके मतानुसार सहमत है और अन्य सभी असहमत श्रुति वाक्यों का अप्रत्यक्ष या माध्यमिक अर्थ प्रकाश करते है । वे यह भी मानते है कि जो श्रुति वाक्य उनके मत के अनुसार है वह ही यथार्थ एवं सत्य प्रमाण है ।

अतैव उपरोक्त पारस्परिक विपर्यय मतों से भेद-अभेद श्रुति वाक्यों का निर्णय करना आसान नहीं है ।

भेदाभेद मतावलम्बी एकता और भिन्नता को स्वीकार करते है । किस हद तक एकता या भिन्नता स्वीकृत है यह प्रत्येक भेदाभेद तत्त्वदर्शी मत पर निर्भर है । परन्तु वेदान्तियों का मानना है कि भेदाभेद वादी इस वेदान्त प्रश्न का समाधान न कर केवल इस प्रश्न को पुन: दोहराते है । वे स्पष्ट रूप से यह समझा नहीं पाते कि यह सोच भेद और अभेद कैसे अनारक्त है या इसका क्या अभिप्राय है ? और तो और, जब ये समझाने का प्रयास करते है, तो उनका भेद और अभेद का दृष्टिकोण श्रुति (उपनिषद्) सम्मत नहीं है ।

उपनिषदों के प्रति, विशिष्टाद्वैत वेदान्तियों का एक मुख्य एवं विशेष स्थान है | वे भेद श्रुति एवं अभेद श्रुति वाक्यों को प्रमुख या द्वितीय नही मानते | वे इन दोनों श्रुति वाक्यों को तुल्य मानते है | फिर पारस्परिक भेदाभेद का निर्णय कैसे करें ? उनका मानना है कि इसका समाधान देने के लिये बाह्य विवेक बुद्धि जरूरी नही है | इसका समाधान श्रुति मे ही उपलब्ध है | यही विशिष्टाद्वैत मतावलम्बी का पक्ष है | और ऐसे कोई विशेष शास्त्रज्ञ के बुद्धि की जरूरत नही जो ऐसा पक्ष (संरचना) प्रस्तुत करे जिससे श्रुति वाक्य निर्णित हो |  श्रुति (उपनिषद्) स्वयं इस विशेष संरचना का प्रदान करती है | जो वेदान्ती इस श्रुत्यन्तरगत विशेष संरचनाको स्वीकार करेगा, उस के लिये परस्पर विरोध श्रुति व्याक्यों का समधान अत्यन्त सुलभ है |  

विशिष्टाद्वैतवादी यह दर्शाते है कि श्रुति मे दो नही अपितु तीन प्रकार के वाक्य उपलब्ध है जैसे :

१) भेद श्रुति : वह जो जीवात्मा और परमात्मा मे भेद दर्शाते है

२) अभेद श्रुति : वह जो जीवात्मा और परमात्मा मे अभेद दर्शाते है

३) घटक श्रुति : वह जो उपरोक्त पारस्परिक विरोधि श्रुति वाक्यों का निष्कर्ष करे

क्योंकि पूर्व ही भेद और अभेद श्रुति वर्णित है, अतैव अभी घटक श्रुति पर ध्यान देंगे |

ऐसे प्रमुख वेद वाक्य जो तीसरे वर्ग के अन्तर्गत आते है, वह सारे बृहदारण्यक उपनिषद् के अन्तर्यामी ब्राहमण (जो सबसे प्राचीन उपनिषद् से मान्य है), और सुबलोपनिषद् से है | ये उपनिषद् वाक्य यह दर्शाते है कि जीव और परमात्मा का सम्बन्ध शरीर और आत्मा के सम्बन्ध जैसा ही है | जीवात्मा परमात्मा का आध्यात्मिक शरीर है | परमात्मा का शरीर जड और चेतन वस्तुएं है (अर्थात् प्रकृति एवं जीवात्मा) | यह सम्बन्ध सूचित करता है कि भगवान् (परमात्मा ही) अन्तर्यामी है और सभी जीवों के अन्तरात्मा है | यह सम्बन्ध नित्य है और परमात्मा और जीवात्मा का स्वाभाविक गुण है | इसके बिना उनका व्यक्तित्व और अस्थित्व नही है | अतैव, जीव और परमात्मा नित्य सम्बन्धित रहकर एक रूपेण अस्तित्व है, परन्तु उनके निज स्वभाव मे अन्तर है, एक शरीर है और एक आत्मा है | शरीर और आत्मा का जो भावार्थ भगवद्पाद श्रीरामानुजाचार्य ने सबसे सरलतम वाग्विस्तार से परिवर्जित रहने के लिये अपने श्री भाष्य मे प्रकाशित किया है, यह विषय प्रस्तुत लेख के विषय लक्ष्य से परे है |

विशिष्टाद्वैतवादि मानते है कि अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतावाद, ये तीनों साथ-साथ नित्य और सत्य है | परमात्मा और जीवात्मा का अस्तित्व (सत्त्व) एक ही रूप मे है, और जीवात्मा का प्रत्येक उद्धरण परमात्मा मे अन्त होता है | जीवात्मा का स्वाभाविक गुण, अस्तित्व, और व्यवहार नित्य परमात्मा मे निहित है | बिना जीवात्मा के परमात्मा या परमात्मा के बिना जीवात्मा का अस्तित्व असम्भव है | इसी प्रकाश मे एकता (अभिन्नता) मान्य है | स्वाभाविक व्यवहार और गुणों मे, जीवात्मा और परमात्मा भिन्न है | परमात्मा भौतिक जगत् के पीड़ा से परे है और इससे कभी भी पीडित नही होते | परमात्मा असंख्य कल्याण गुणों के राशि है, भौतिक जगत् के कमियों से परे, सर्वकारण कारक, सृष्टिकर्ता, पालन कर्ता, संहारकर्ता, आधारभूत एवं सर्वान्तर्यामी, सर्वोपरि, परमेश्वर, सर्वज्ञ है | इस भौतिक जगत् मे बद्ध जीवात्मा, सुख और दु:ख का अनुभव करता है, कर्म से बाध्य है, और स्वयं को इस त्रास से बचा नही सकता | ऐसा जीवात्मा सर्वेश्वर परमात्मा पर पूर्णतया निर्भर होता है जिसके लिये पूर्ववर्ति स्वभावत: दास है और समर्पित है  | ऐसे सच्चे ज्ञान से अनभिज्ञता के कारण कष्ट भुगतता है | इस दृष्टिकोण मे, परमात्मा और जीवात्मा भिन्न है | परस्परिक भेदाभेद का निरंतरता केवल विभिन्न दृष्टिकोण मे संभव है और इसका कारण केवल जीवात्मा-परमात्मा का शरीर-शरीरि (देह-आत्मा) संबंध है, जिसका अधिवक्ता स्वयं उपनिषद् के घटक श्रुति है | इस प्रकार से उपनिषदों मे भेदाभेद का प्रस्ताव प्रश्न का समाधान बिना किसी संशय से विशिष्टाद्वैत करता है | विशिष्टाद्वैत कोई नवीन परिप्रेक्ष्य है परन्तु सभी उपनिषदों का न्यायिक एवं उचित परिप्रेक्ष्य है जो उपनिषद् के वाक्यों का आधार लेकर पारस्परिक कलहों का समाधान प्रस्तुत करता है | यह परिप्रेक्ष्य वेद व्यास, बोधायन, तन्क, द्रमिद, गुहदेव इत्यादि के विचारों एवं पुराण और इतिहास के अभिमत से अनुकूल है | अत: विशिष्टाद्वैत भारत देश के इस दिव्य वैदिक परम्परा को तारतम्यता से परिरक्षित करता है | अत: विशिष्टाद्वैत के विशिष्ट रूपरेखा मे कर्म, ज्ञान, भक्ति और प्रपत्ति (शरणागति) की महत्ता और अनुप्रयोग महत्त्वपूर्ण मायने रखता है | विशिष्टाद्वैतवादी यह नही मानते कि वेदान्त के एक शिक्षा पद्धति के अनुयायि अज्ञानी और दूसरे ज्ञानी है | वे वेदान्त के सभी वाक्यों का तारतम्य समाधान वेदान्त के पारंपरिक पद्धतियों से  ही करते है

विशिष्टाद्वैति ने कैसे घटक श्रुति को स्वीकारा या पहचाना जिसे पहचानने से अन्य अनभिज्ञ रहे ? इसका उत्तर एक ही है, विशिष्टाद्वैति श्री आळ्वारों के अभिमत से मार्गदर्शित थे और अभी भी है | तिरुवाय्मोळि के प्रथम दो दशक, वेदान्त सूत्रों का सार प्रदान करते है और अतैव उपनिषद् सार |

इस विषय मे, श्री शठकोप सूरि घटक श्रुति के अभिप्राय को ” उडल्मिशै उयिरेन करनदेन्गुम् परन्दुलन् ” (१-१-७) पासुर से शरीर-शरीरि भाव को व्यक्त करते है | उपनिषदों का अध्ययन करने का मार्गदर्शन इसी पासुर से विशिष्टाद्वैति को मिलता है | यह कहना कोई अतिशयोक्ति नही है कि विशिष्टाद्वैतवाद के आचार्य एवं सन्तजन जैसे स्वामी रामानुजाचार्य ने देखा कि उपनिषदों का यथार्थ भाव, आळ्वारों के पासुरों के प्रकाश मे प्रज्वल्यमान है |

केवल यहाँ ही नही अपितु उपनिषदों के पारस्परिक कलहों का समाधान भी, विशिष्टाद्वैति, आळ्वारों के दिव्य पासुरों से ही लेते है |

जैसे कुछ उपनिषद् वाक्य कहते है, सर्वेश्वर परमात्मा निर्गुण है, कुछ वाक्य कहते है वह गुणों का सागर है अर्थाथ् सगुण है | इस विषय मे, कई वेदान्त व्याख्याकारों ने विभिन्न व्याख्यायें प्रस्तुत किये है | यहाँ इस विषय के बारे मे विस्तार से चर्चा करना अनुचित होगा क्योंकि इनका आधार उपनिषद् मे नही है और अधिक विवेक बुद्धि पर आधारित है | विशिष्टाद्वैति सगुण और निर्गुण को एक ही सिक्के के दो पहलू है अर्थात् परब्रह्म के ही दो पहलू है | परब्रह्म तीन गुणों से परे है अतैव निर्गुण है और असंख्य कल्याण गुणों का भण्डार है अतैव सगुण है | इसी प्रकार का समाधान श्री शठकोप स्वामीजी अपने तिरुवाय्मोळि के सर्वप्रथम पासुर ” उयर्वर उयर्नलम् ” मे करते है | सर्वेश्वर भगवान् असंख्य उन्नत एवं कल्याण गुणों का भण्डार है | असल मे, यही अर्थ ब्रह्म कहलाता है | यह शब्द “ब्रह् ” से उत्पन्न है जिसका अर्थ महानता है | परब्रह्म की महानता उसके असंख्य उत्कृष्ट एवं कल्याण गुणों से स्वयं प्रकाशमान है |

स्वामी रामानुजाचार्य इसी पासुर का सीधा अनुवाद कर कहते है :

उयर्वर — अनवधिकातिशय, उयर् — असंख्येय, नलम् उडैयवन् — कल्याणगुणगण, यवनवन् — पुरुषोत्तम: (भगवान् पुरुषोत्तम) |

अतैव वे सभी उत्कृष्ट एवं सौभाग्यशाली जीव है जो स्वामी रामानुजाचार्य के इन शब्दों मे भगवद् प्रिय श्री शठकोप स्वामीजी के प्रेम एवं विशिष्ट तत्त्व की गूंज सुन सकते है |

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/22/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-24-english/

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