द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम् 25

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः

द्रमिडोपनिषद प्रभाव् सर्वस्वम्

<< भाग 24

परान्कुश पयोधि

ऐसे विभिन्न लवलीन घटनाएँ है जिनसे भगवद् पाद श्रीरामानुजाचार्य के विभिन्न ग्रन्थों मे शठकोप स्वामीजी के दिव्य शब्दों के गूढ़ प्रभाव को अनुभव कर सकते है | हमने यह भी देखा कि किस तरह से भगवद्रामानुजाचार्य, शठकोप स्वामीजी के प्रति सम्मान की भावना रखते है | इस लेख से शुरुकर, हम सभी श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य वचनों का प्रभाव अन्य आचार्यों पर देखेंगे जिनके ग्रन्थ एवं रचानायें अधिकतर संस्कृत मे है |

स्वामी कूरेश

 

स्वामी कूरेश (आळ्वान्), श्रीरामानुजाचार्य के परम उत्कृष्ट प्रतिभाशाली शिष्य, ने विश्व विख्यात “पञ्च-स्तवों”, पाञ्च स्तवों की रचना किये है | पहला स्तव “श्रीवैकुण्ठस्तव” है | स्वामी आळ्वान् इस स्तव मे “यो नित्यं अच्युत …..” श्लोक से प्रारंभ कर,  तदुपरान्त २ श्लोकों मे श्रीशठकोप स्वामीजी की वैभवता का गुणगान करते है | यह सत्य है कि स्वामी रामानुजाचार्य तभी खुश होंगे जब उनके आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक गुरु, श्रीशठकोप स्वामी की स्तुति हो | भगवान् (जो सभी स्तुतियों के मुख्य विषयवस्तु है) का अनुग्रह अत्यन्त सुलभता से प्राप्त तभी होगा जब उनके प्रिय स्वामी शठकोपमुनि की स्तुति सर्वप्रथम होगी |

 

 

निम्नलिखित दो श्लोकों का उद्धरण देकर उनके भावार्थ को समझाया जायेगा :  

त्रैविद्या-वृद्धजन-मूर्धविभूषणं यत्सम्पञ्च सात्विकजनस्य यदेव नित्यं |

यद्वाशरण्यं अशरण्य-जनस्य पुण्यं तत् संश्रयेम वकुलाभरणाङ्घ्रीयुग्मम् ||

श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण “त्रैविद्या-वृद्धजन-मूर्धविभूषणं” है | उनके चरण ऐसे आभूषण है जिनको वेदों मे निपुण लोग अपने मस्तक पर सजाकर रखते है | उनके चरण “सात्विकजनस्यनित्यं संपत्“- शुद्ध सात्विक लोगों का नित्य निधि है | यहाँ हमे इस दृष्टान्त को याद रखना चाहिये कि यामुनाचार्य स्वामीजी ने स्वरचित श्लोक मे आप श्री (शठकोप स्वामीजी) को अपना सर्वस्व (माता-पिता …) माना है |

आप श्री के दिव्य चरण उनके लिये भी शरण्य है जो शरणाभाव से ग्रस्त है – ” अशरण्य जनस्य शरण्यं “ | वस्तुत: हम देखते है कि सामान्य जन उन लोगों का शरण लेते है जो धनवान है या समाज मे बहुत प्रभावशाली एवं बलवान है | परन्तु, ज्ञानी जन उपरोक्त विभिन्न खल आश्रयों को त्यागकर अपने मन, वाक, कर्म को ऐसे सामान्य जनों के को समर्पित नही करते | वह सभी दिव्यानुभूति के लिये दिव्य एवं पारलौकिक भगवान् एवं उनके भक्तों के लिये पूर्ण समर्पित है | चूंकि श्री शठकोप स्वामीजी ऐसे ज्ञानी एवं त्यागी भक्त समुदाय के अग्रगण्य नेता है, अतैव ऐसे ज्ञानी जन आप श्री के दिव्य वचनों का आश्रय लेकर आपके दिव्य चरणों मे शरणागत है |  

श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण, इस भौतिक संसार मे पीडित जनों का उद्धार करने मे सक्षम है | अनेकानेक कष्टप्रद तपस्या एवं दिव्य नदियों मे नहाने, की कोई जरूरत नही है | केवल श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण मे शरणागत होना है | उनके दिव्य चरण सभी को तत्क्षण विशुद्ध कर देते है | अत: उनके चरण पुण्य (पुण्यं) है | इस कारण, हम सभी वकुला पुष्पों से अलंकृत, श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण की अभीलाषा सैदव रखते है |

अगले श्लोक मे, कूरेश स्वामीजी कहते है —

भक्ति-प्रभाव-भवद्-अद्भुत-भाव-बन्ध-संधुक्षित-प्रणय-सार-रसौघ-पूर्ण: |

वेदार्थरत्ननिधिर्-अच्युतदिव्यधाम जीयात् परान्कुशपयोधिर्-असीमभूमा ||

इस श्लोक मे, श्रीशठकोप स्वामीजी की अलंकारात्मक तुलना महासागर से की है, कूरेश स्वामीजी ने | आप श्री परान्कुश पयोनिधि अर्थात् आप परान्कुश महासागर है |

इसका कारण चौगुना है, जो निम्नलिखित है ::

१) सागर कई नदियों के प्रवाह से सिंचित है अर्थात् सभी नदियों का समावेश सागर ही होता है | इसी प्रकार आप श्री महासागर मे भक्ति के विभिन्न प्रवाहों का समावेश है | अतैव – ” भक्ति-प्रभाव-भवद्-अद्भुत-भाव -बन्ध-संधुक्षित-प्रणय-सार-रसौघ-पूर्ण: है | भगवद्भक्ति के कारण, आप महासारगर मे ऐसे भावों का आविर्भाव हुआ है जिनसे भगवद्प्रेम का प्रमुख जल जाग्रत हुआ और आप महासागर को नवरसों के धाराओं से पोषित किया |

२) जिस प्रकार महासागर दिव्य मोतियों एवां अन्य संपत्ति का नित्य निवास स्थान है ठीक उसी प्रकार आप महासागर (परान्कुश) भी विशिष्ट सम्पत्तियों का सदन है | आप वेदार्थरत्ननिधि है – वह महासागर सदन है जिसमे मोतियों एवं अन्य जवाहरों जैसे वेदार्थ उपलब्ध है |

३) महासागर भगवान् का शयन क्षेत्र है | भगवान् क्षीराब्धि महासागर पर अपने नित्यसेवक आदिशेष पर शयन करते है | भगवान् श्रीरामचन्द्र ऐसे महासागर पर पुल का निर्माण करते है | भगवान् जल प्रयल मे एक छोटे से पत्ते पर बालस्वरूप मे विराजमान होकर शयन करते है | इस प्रकार से, महासागर भगवद् धाम है (भगवान् का ही धाम है ) — अच्युतदिव्यधाम | सार योगी स्वामी अपने गान (पासुर) मे कहते है, “आलिनिनैत्तुयिन्द्र आऴियान्”, कोलक्करुमेनि चेङ्कण्माल् कण् पडैयुल् एन्ड्रुनतिरुमेनि नी तीन्डप्पेट्रु” |

इसी तरह, आप परान्कुश महासागर, भगवद् धाम है | भगवान् स्वयं अपने दिव्य नित्य धाम को छोडकर, श्रीशठकोप स्वामीजी मे आश्रय पाते है | श्रीशठकोप स्वामीजी स्वयं कहते है — “कल्लुम् कनैकडलुम् वैकुन्दवानाडुम्

पुल्लेन्ड्रोळि़न्धनकोल् एपावम् !! वेल्ल नेडियान् निरंकरियान् उळ्पुकुन्डुनीन्गान् अडियेनदुउळ्ळत्तगम् “, अर्थात् हे ! नील मेघ वर्ण वाले भगवान् ने स्वयं के धामों जैसे तिरुपति, क्षिराब्धि, वैकुण्ठ इत्यादि को निम्न समझकर, दास के हृदय मे नित्य वास स्वीकारा है |

” कोण्डल् वण्णन् चुडर् मुडियन् नाङ्गु तोळन् कुनिचारङ्गन् ओङ्सङ्गत्तै वालाळि़यानोरुवन् अडियेनुळ्लने ” — [भगवान्, काले मेघ वर्ण वाले, चतुर्हस्थ युक्त (वाले), और पांच दिव्य शस्त्रों को धरण करने वाले मेरे अन्तरभाग मे

यही विषय तिरुवाय्मोळि़ “इवैयुमनवैयुमुवैयुम्” मे महत्तव दिया गया है |

४) महासागर इतना विशाल होता है कि किनारा ढूँढना बहुत ही मुश्किल होता है | अत:, असीमभूमा कहा जाता है | आप परान्कुश महासागर की असीमा, उसके स्वभाव और विशिष्ट गुणों के महत्ता मे ही है | कण्णिनुन् शिरुत्ताम्बु, नामक ग्रन्थ मे, स्वामी मधुरकवि आळ्वार्, अपने ज्ञानाचार्य, श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य एवं अतुलनीय अनुकम्पा, कृपा का अनुभव “अरुल्कोण्डाडुम् अडियवर्” पासुर मे ठीक उसी प्रकार करते है जिस प्रकार वेद की श्रुतियाँ परब्रह्म के अतुलनीय परमानन्द को गाती है |

इस प्रकार से, कूरेश स्वामीजी, स्वानुभव से ऐसे परान्कुश पयोनिधि के वैभवपूर्ण महत्ता का गुणगान करते है |

आधार – https://granthams.koyil.org/2018/02/23/dramidopanishat-prabhava-sarvasvam-25-english/

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