श्री रामानुज वैभव

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमदवरवरमुनये नमः  श्री वानाचल महामुनये नमः

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्नमाला में कहते हैं कि अपने सत सम्प्रदाय को स्वयं श्रीरंगनाथ भगवान ने हीं रामानुज दर्शनम का नाम दिया हैं जिससे सभी जन इस नित्य सम्प्रदाय के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी के योगदान को स्मरण कर सकें। श्रीरामानुज स्वामीजी न हीं इस सम्प्रदाय के संस्थापक थे और न हीं एक मात्र आचार्य थे। परन्तु श्रीरामानुज स्वामीजी ने इस सम्प्रदाय के तत्त्वों को इतनी मजबूती प्रदान किये कि वह निरन्तर प्रचलित रहेगा और इसलिये उनका अधिक गुणानुवाद होता रहेगा। अगर प्रयत्न करें तो भगवान के गुणों को  सम्मिलित कर उनका वर्णन कर सकते है। परन्तु श्रीरामानुज स्वामीजी के गुण इतने असीमित हैं कि उन्हें सम्मिलित करना और उनके विषय में कहना बहुत कठिन कार्य हैं। परन्तु हमारे गुरु परम्परा के माध्यम से हमें श्रीरामानुज स्वामीजी के सम्बन्ध का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं और इसी बल के द्वारा हम धीरे धीरे श्रीरामानुज स्वामीजी के गुणों का अनुभव करके आनन्द प्राप्त कर रहे हैं।

जन्म और बाल्यवस्था

एक प्रसिद्ध श्लोक है, “अनंत: प्रथमम् रूपम लक्ष्मणाश्च थथा:। परम बलभद्रस्य तृत्ल्यस्तुकलौ कश्चिद भविष्यन्ती ॥” आदिशेष के हर युगों के सभी अवतारों का वर्णन किया गया हैं और उनके कलियुग के अवतार के विषय में भविष्यवाणी की गई हैं। “चरमोपाय निर्णय” में यह प्रमाणित किया गया हैं कि कलियुग में श्रीरामानुज स्वामीजी हीं श्रीआदिशेष के अवतार हैं।

श्रीरामानुज नूत्तन्दादि में, श्रीअमूधनार ने श्रीरामानुज स्वामीजी के जन्म को भगवान के जन्म से भी अधिक महत्त्व दिया है। वह श्लोक है “मण्मिशै योनिगल तोरूम पिरन्दु एङ्गल मादवने कण्णुर निर्किलुम काणगिल्ला उलगोर्गल एल्लाम अण्णल इरामानुशन वन्दु तोन्रिय अप्पोलुदे नण्णरु तलैक्कोण्डु नारणर्कायिनरे”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसे इस तरह समझाते हैं कि “हमारे स्वामी श्रीमन्नारायण इस संसार में कई रूप लेकर अवतार लिये परन्तु संसार के लोगों ने उन्हें स्वामी जैसे स्वीकार नहीं किया। परन्तु जैसे हीं श्रीरामानुज स्वामीजी ने इस संसार में अवतार लिया (जैसे श्रीभाष्य और आदि ग्रन्थ में समझाया गया है) संसार के लोगों ने सच्चे ज्ञान को समझा और भगवान के सच्चे दास हो गये”।

आर्ति प्रबन्ध में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के जन्म कि स्तुति इस तरह करते है “एनैप्पोल् पिळै सेय्वार् इव्वुलगिल् उण्डो, उनैप्पोल् पोरुक्क वल्लार् उण्डो अनैत्तुलगुम् वाळप् पिऱन्त एतिरास मामुनिवा एज़्हैक्कु इरन्गाय् इनि” जिसका अर्थ है “ऐसा कोई हैं जो मेरे जैसे गलती करता हो और आपके जैसा सहनशील  हो जो इन गलतियों को क्षमा कर सकता हो? हे हम दासों के स्वामी आप सब का उद्धार करने हेतु हीं जन्म लिये हैं! कृपया मेरी मदद करें”।

इससे हम समझ सकते हैं कि श्रीरामानुज स्वामीजी का अवतार सभी के दुख निवारणार्थ हुआ है और सभीका आध्यात्मिक  उद्धार करके सभी भगवान का अनंतकाल तक सेवा कर सके।

इनका जन्म श्री केशवाचार्यजी व कान्तीमती अम्माजी के पुत्र रूप में हुआ। इनके मामाजी श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी ने इनका नाम “इलैयाल्वार” रखा और श्रीवैष्णवमं में लाने के लिये इनका ताप संस्कार किया।

शुरुवाती दिनों में उन्होंने श्रीयादव प्रकाशाचार्यजी से वेदाध्ययन किया जो “भेद अभेद” (ब्रह्म व आत्मा दोनों एक समय में एक हीं है और अलग भी है) के सिद्धान्त के प्रवर्तक थे। यह प्रश्न आता सकता है – इन्होंने अलग सिद्धांतों कि शिक्षा इन आचार्य से क्यों ग्रहण किये? हमारे पूर्वाचार्य बताते हैं कि, इस सिद्धान्त को पूरी तरह समझकर इस में कमियों को सभी में उजागर कर सके और विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त कि स्थापना कर सके। श्रीपेरियवाचन पिल्लै अपने आचार्य श्रीकलिवैरिदास स्वामिजी के गुणगान करते हुए अपने व्याख्या पेरिया तिरुमोलि ५.8.७ में इस सिद्धान्त को अच्छी तरह समझाते है और “अन्तणं ओरुवन” (विशिष्ट ब्राह्मणा) के बारे में इसका विशेष उल्लेख किया गया हैं। वों कहते है “मुर्पड द्वयत्तैक् केटु, इतिहास पुराणन्गळैयुम् अतिगरित्तु, परपक्श प्रतिक्शेपत्तुक्कुडलाग न्यायमीमाम्सैकळुम् अतिगरित्तु, पोतुपोक्कुम् अरुळिचेयलिलेयाम्पडि पिळ्ळैयैप्पोले अतिगरिप्पिक्क वल्लवनैयिरे ओरुवन् एन्बतु” (जो पहले द्वय मन्त्र का श्रवण करता है और बाद में इतिहास और पुराण का अध्ययन करता है, न्याय और मीमांसा के अध्ययन से दूसरे सिद्धान्तों को तर्क वितर्क से विजय प्राप्त करता है और अपना सम्पूर्ण समय आल्वारों के दिव्य प्रबन्ध को अर्थ सहित सीखने व सिखाने मे व्यतीत करता है ऐसे  श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को विशिष्ट विद्वान बताते हैं)। इससे हम समझ सकते हैं कि अपने सिद्धान्त को स्थापित करने के लिये पूर्व पक्षम (दूसरे विद्वानों के तर्क-वितर्क) सीखना कितना महत्त्वपूर्ण है।

श्रीरामानुज स्वामीजी का श्रीयादव प्रकाशाचार्य के यहाँ अध्ययन के समय, उनमें कुछ मत भेद हुए थे। श्रीरामानुज स्वामीजी भी अपनी तर्क शास्त्र का ज्ञान और उसे दूसरों को समझाने के कारण लोक प्रियता प्राप्त कर रहे थे। श्रीरामानुज स्वामीजी की उन्नति लोक प्रियता को सहन नहीं कर सके और श्रीयादव प्रकाशाचार्य के शिष्यों ने उन्हें काशी यात्रा के दौरान उनकी हत्या कि योजना बनाई। परन्तु श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी (जो भविष्य में एम्बार नाम से प्रसिद्ध हुए) के समय पर सलाह के कारण श्रीरामानुज स्वामीजी उनके इस षडयंत्र से बच गये और श्रीवरदराज भगवान और माता पेरुन्देवी अम्माजी जो शिकारी रूप में उस जंगल में आये। उनकी सहायता से बच कर काञ्चीपुरम आजाते है।

पञ्च संस्कारित होना

इस समय में श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से काञ्चीपुरम में मिलते है जो श्रीवरदराज भगवान के विश्वास पात्र थे। श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी जो पूविरुंतवल्ली के निवासी थे श्रीवरदराज भगवान को निरन्तर पंखा सेवा किया करते थे। वह श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के प्रिय शिष्य थे। श्रीवरदराज भगवान को श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से विशेष लगाव था और वें निरन्तर श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से वार्तालाप करते रहते थे। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी के कहे अनुसार श्रीवरदराज भगवान के यहाँ नित्य समीप के एक कुंवे से प्रति दिन जल लाकर जल सेवा करना प्रारम्भ किया। इस बीच श्रीरामानुज स्वामीजी ने रक्षकाम्बाल से विवाह कर काञ्चीपुरम में रह रहे थे। उनके मन में कोई शंखा उत्पन्न होती तो वें श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी को कहते कि श्रीवरदराज भगवान से इन शंखाओं को दूर कराये। श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी श्रीवरदराज भगवान से श्रीरामानुज स्वामीजी के मन कि स्थिति को दर्शाते है और श्रीवरदराज भगवान श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी के द्वारा श्रीरामानुज स्वामीजी को ६ उपदेश देते है। वों हैं:

  • मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ।
  • जीवात्मा और परमात्मा भिन्न है, एक नहीं है।
  • मुझे प्राप्त करने का एक मात्र उपाय शरणागति है।
  • मुझे शरणागति करनेवाले को अपना अन्तिम क्षणों में मुझे स्मरण करने कि आवश्यकता नहीं है (मैं उनका स्मरण करता हूँ )।
  • इस जीवन के अन्त में शरणागत मोक्ष प्राप्त करेंगे।
  • श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को अपने आचार्य रूप में स्वीकार करें।

यह घटना श्रीरामानुज स्वामीजी के जीवन में  निर्णायक क्षण था  ।

श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीवरदराज भगवान के ६ उपदेशों को समाझाते है और श्रीरामानुज स्वामीजी से पूंछते हैं कि क्या यह उपदेश अपने विचारों से मिलते हैं या नहीं। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी को साष्टांग प्रणाम कर अपने विचारों से सहमती कि पुष्टी करते हैं। श्रीवरदराज भगवान और श्रीरामानुज स्वामीजी के अलौकिक विचारों के  सामंजस को देखकर श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी को बहुत आश्चर्य हुआ। श्रीवरदराज भगवान के उपदेशों को सुनकर श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के दर्शन हेतु श्रीरंगम कि ओर प्रस्थान करते हैं।

श्रीमहापूर्ण स्वामीजी श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी जो श्रीनाथमुनि स्वामीजी के पौत्र थे, उन्के मुख्य शिष्यों में से एक थे। पहले श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी जो सम्प्रदाय के अग्रणी संत थे अपने काञ्चीपुरम यात्रा के समय श्रीरामानुज स्वामीजी पर अपना आर्शिवाद प्रदान कर कहा कि वे सम्प्रदाय के महान गुरु बने। श्रीरामानुज स्वामीजी ने भी श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के विषय में बहुत सुना था और उनके शिष्य बनना चाहते थे। परन्तु जब वें श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी को मिलने हेतु श्रीरंगम गये थे और जब वें कावेरी नदी के तट पर पहूंचे तब श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी अपनी ३ इच्छा को छोड़ कर परमपद के लिये प्रस्थान कर दिये। ३ इच्छाएं हैं; १) श्रीव्यास और श्रीपराशर ऋषियों के प्रति कृतज्ञता दिखाये, २) श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति कृतज्ञता दिखाये ३) ब्रह्म सूत्र ग्रन्थ पर व्याख्या करना। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी कि ३ अंगुलियों को मुड़ी हुई देख श्रीरामानुज स्वामीजी ने उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने का संकल्प करने के तुरन्त बाद, स्वयं से सीधी हो गई। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी से न मिलने के कारण निराश होकर काञ्चीपुरम अपना कैंकर्य को आगे बढ़ाने लौट आते है। इस बीच श्रीरंगम में श्रीवैष्णव जन श्रीमहापूर्ण स्वामीजी से विणति करते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी को इस सम्प्रदाय में लाये और उन्हें शिक्षा प्रदान कर सम्प्रदाय का अगला आचार्य बनाये। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को अपना शिष्य बनाने हेतु काञ्चीपुरम कि ओर प्रस्थान किया।

काञ्चीपुरम के निकट मधुरांतकम नामक एक ग्राम में दोनों मिलते है। जब श्रीरामानुज स्वामीजी वहाँ एरिकाथ्था भगवान के मन्दिर में आते हैं तो श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को परिवार सहित देखकर अपना साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार करने कि विणति करते हैं। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी कहते है कि  सभी काञ्चीपुरम जाकर वहाँ उनको दीक्षा प्रदान करेंगे। परन्तु श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि संसार में इतनी अस्थिरता है कि उन्होंने एक मौका श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी का शिष्य होने का खो दिया है और अब नहीं चाहते हैं कि ऐसा मौका फिर से खोये। इसलिये श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीमहापूर्ण स्वामीजी से आग्रह करते हैं कि आप तुरन्त मुझे पञ्च संस्कारित करें जिसे श्रीमहापूर्ण स्वामीजी भी तुरन्त मान जाते हैं। इस तरह श्रीरामानुज स्वामीजी स्वयं यह सिद्ध किया कि शास्त्र में दिखाये उचित मार्ग अनुसार आचार्य की शरण में आने का महत्त्व दर्शाया है। इसके बाद सभी काञ्चीपुरम आते है और श्रीमहापूर्ण स्वामीजी कुछ समय वहाँ बिताने का निश्चय करते हैं।

श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी श्रीमहापूर्ण स्वामीजी का काञ्चीपुरम में स्वागत करते हैं और वें श्रीवरदराज भगवान का मंगलानुशासन करते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को अपने तिरुमाली में रहने को कहते है। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी अपने परिवार सहित ६ महिने तक रहकर उन्हें दिव्य प्रबन्ध, रहस्य ग्रन्थ आदि का अध्ययन करवाते हैं।

सन्यासाश्रम ग्रहण करना

एक बार जब एक श्रीवैष्णव श्रीरामानुज स्वामीजी के तिरुमाली में पधार कर कहते हैं वे भूके हैं तो श्रीरामानुज स्वामीजी अपनी पत्नी से उन्हें कुछ प्रसाद देने को कहते हैं परन्तु उनकी पत्नी कहती हैं कुछ भी शेष नहीं हैं। वह श्रीवैष्णव निराश होकर लौट जाते हैं और जब श्रीरामानुज स्वामीजी  रसोई घर में जाकर देखते हैं तो बहुत प्रसाद शेष होता है। उन्हें बहुत क्रोध आया और यह क्रोध उन्होंने अपनी पत्नी पर दिखाया। पहिले भी श्रीरक्षकाम्बा ने श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी के प्रति से दुर्व्यवहार कर चुकी होति हैं। जब श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी को अपनी तिरुमाली में प्रसाद के लिये बुलाते हैं जिससे शेष प्रसाद को वह ग्रहण कर सके, उस समय उनकी पत्नी श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी को प्रसाद तो पवाती हैं, परन्तु बिना श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी के महानता और श्रीरामानुज स्वामीजी कि इच्छा को जाने शेष प्रसाद को बाहर फेंख देती हैं और जहाँ श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी प्रसाद पाते हैं उसे धो कर पवित्र करती हैं। अन्त में एक बार कूंवे से जल निकालते समय श्रीरक्षकाम्बा और श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के मध्य झगड़ा हो जाता हैं। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी बुरा मानकर अपने परिवार सहित बिना श्रीरामानुज स्वामीजी को कहे श्रीरंगम छोड़ चले जाते है। श्रीरामानुज स्वामीजी को बाद में पता चलता हैं और बहुत दुःख होता हैं।

श्रीरामानुज स्वामीजी भगवद कैंकर्य करने का अपने लक्ष्य में दृढ़ हो जाते हैं और सन्यासाश्रम में प्रवेश करने का निश्चय कर लेते हैं। काञ्चीपुरम में श्रीवरदराज भगवान के मन्दिर में अनन्त सरस तालाब में  पवित्र स्नान कर श्रीवरदराज भगवान के पास जाकर उन्हें अपना आचार्य मानकर और उनसे बिनती करते हैं कि उन्हें त्रीदण्ड, काषाय वस्त्र, आदि प्रदान करें जो एक सन्यासी के लिये आवश्यक हैं। श्रीवरदराज भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी के इच्छा को स्वीकृत देकर उन्हें सन्यासाश्रम प्रदान कर “रामानुज मुनि” नाम देकर एक मठ भी देते हैं। यह सुनकर श्रीदाशरथी स्वामीजी और श्रीकुरेश स्वामीजी तुरन्त काञ्चीपुरम आकर और उनसे पञ्च संस्कार ग्रहण कर निरन्तर उनकी सेवा करना प्रारम्भ करते है। श्रीयादवप्रकाशाचार्यजी भी उनके माँ के समझाने पर श्रीरामानुज स्वामीजी के शिष्य बन गये। इस प्रकार श्रीरामानुज स्वामीजी रामानुज मुनि बन गये और सन्यास जीवन बड़े उत्तम से बिताने लगे।

श्रीरामानुज स्वामीजी यतिराज (यतियों के राजा) के नाम से प्रसिद्ध हो गये, उदारता से श्रीयादवप्रकाशाचार्यजी को शिष्य रूप में स्वीकार किया, उन्हें सन्यासाश्रम में प्रवेश कराया और गोविन्द जीयर नाम प्रदान किया। वों श्रीयादवप्रकाशाचार्यजी को एक ग्रंथ भी लिखने के लिए कहते है जिसका नाम “यति धर्म समुच्चयम” जिसे श्रीवैष्णव सन्यासीयों के आचरण के लिये प्रमाण माना जाता हैं। यह श्रीरामानुज स्वामीजी के उदारता को दर्शाता है जिन्होंने श्रीयादवप्रकाशाचार्यजी को स्वीकार किया (जिसने उन्हें मारने का प्रयास किया था) और उन्हें एक विशेष कैंकर्य में लगाते हैं।

काञ्चीपुरम में रहकर शास्त्र के जरूरी भाग को श्रीदाशरथी स्वामीजी और श्रीकुरेश स्वामीजी को सिखाते हैं।

श्रीरंगम में आना

श्रीरंगनाथ भगवान की इच्छा थी कि श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीरंगम लाया जाये ताकि वें सम्प्रदाय की सेवा कर सके और उसके वैभव को ऊँचाई तक पहुँचा सके। श्रीरंगनाथ भगवान कांचीपुरम के श्रीवरदराज भगवान से श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीरंगम भिजवाने की विणति करते हैं। परन्तु श्रीवरदराज भगवान श्रीरंगनाथ भगवान कि विणति पर ध्यान नहीं देते हैं। यह देख श्रीरंगनाथ भगवान एक योजना बनाते हैं जिसके अंतर्गत वे श्री तिरुवरंगाचार्य अरैयर को कांचीपुरम भेज श्रीवरदराज भगवान के सन्निधि में दिव्य गीत गाने के लिये भेजते हैं ताकि श्रीवरदराज भगवान प्रसन्न हो और वे बहुमान में श्रीरामानुज स्वामीजी को प्राप्त करें। श्री तिरुवरंगाचार्य अरैयर कांचीपुरम आकर श्रीकांचीपूर्ण स्वामीजी के द्वारा  श्रीवरदराज भगवान के सन्निधी में दिव्य गीत सुनाते हैं जिससे भगवान उनके गानों से मुग्ध हो जाते हैं। भगवान कहते हैं “आप जो भी मँगोगे वों आपको मिलेगा”। उसी क्षण श्री तिरुवरंगाचार्य अरैयर भगवान को श्रीरामानुज स्वामीजी को उनके साथ श्रीरंगम भेजने को कहते है। यह सुनकर भगवान बहुत उदास होते हैं क्योंकि उन्हें श्रीरामानुज स्वामीजी का साथ छोड़ना पड़ रहा हैं। लेकिन श्रीवरदराज भगवान अपना वचन निभाने के लिये श्रीयतिराज को श्री तिरुवरंगाचार्य अरैयर के साथ श्रीरंगम भेज देते हैं।

श्रीरंगम पहुँचने पर श्रीयतिराज और अरैयर स्वामीजी का भव्य स्वागत होता है। वों दोनों श्रीरंगनाथ भगवान के सन्निधि में जाते हैं वहाँ पर भगवान बहुत प्रसन्नता के साथ उनका स्वागत करते है। भगवान ने श्रीयतिराज को “उडयवर” (अध्यात्मिक और सांसारिक संसार के स्वामी) की पदवी तथा उनके लिये रहने के लिये मठ की व्यवस्था करते है और आज्ञा देते हैं कि वें मन्दिर कि गति विधियों में पूर्ण सुधार लावें। वों श्रीरामानुज स्वामीजी के सभी सम्बन्धीयों को मोक्ष देने का आश्वासन देते हैं। उड़यवर इससे अपने आप को श्रीमहापूर्ण स्वामीजी का बहुत बड़ा ऋणी मानते हैं और उन्हें धन्यवाद देते है। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी भी बहुत आनंदित व खुश महसूस करते है कि अपने सम्प्रदाय के अच्छे दिन आयेंगे। इसके बाद ‘उड़यवर’ मन्दिर की गतिविधियों में दक्षतापूर्वक सुधार का कार्य प्रारम्भ करते हैं और श्रीरंगम में ही निवास करते हैं।

इस तरह श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीरंगम में रहते हुये मन्दिर की गतिविधियों को कुशलता पूर्वक निर्वाहन करते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी (जो उनके मौसेरे भाई है और जिन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी जब श्रीयादवप्रकाशाचार्य के साथ यात्रा में थे उनके प्राणों कि रक्षा किये थे) को सुधारना चाहते थे। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी शिव भक्त बनकर कालहस्थी में निवास कर रहे थे। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी से प्रार्थना करते है कि वे उन्हें आदेश देकर पुन: सम्प्रदाय में लाये। श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी स्वयं कालहस्थी जाते हैं और श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी जो कट्टर शिव भक्त बनकर शिवजी कि सेवा कर रहे थे। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के स्तोत्र रत्न व दिव्य प्रबन्ध के माध्यम से श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी भगवान श्रीमन्नारायण के सर्वोच्चता को समझाते हैं। भगवान के आदेशों को  श्रवण करके श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी कि बुद्धी शुद्ध होगयी और शिव सम्बन्ध को त्याग कर श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी के चरण कमलों को अपनाते हैं और वों भी उन्हें बड़े खुशी से अपनाकर पञ्च संस्कार कर अपने सात लाते हैं। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी के सात तिरुमला में रहकर सभी गूढ़ार्थ सीखकर श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी कि सेवा करते हैं। बाद में श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी श्रीरंगम में आकर हमेश के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी के साथ ही निवास करते हैं।

आपके आचार्य

श्रीरामानुज स्वामीजी फिर श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के तिरुमाली जाकर उन्हें सभी महत्त्व के विषय सिखाने का निवेदन करते हैं। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी प्रसन्न होकर श्रीरामानुज स्वामीजी को द्वय महामन्त्र का अर्थानुसन्धान कराते हैं। वों श्रीरामानुज स्वामीजी को निर्देश देते हैं कि “इस विषय पर अब भी बहुत सीखना हैं और इसलिये आप कृपया श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के प्रिय शिष्य श्री तिरुक्कोष्टिऊर नम्बी के पास जाकर सीखे”।

श्रीरामानुज स्वामीजी उसी समय पवित्र ग्राम तिरुक्कोष्टिऊर कि ओर प्रस्थान करते हैं। गाँव में आकर वें श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी के तिरुमाली के विषय में वहाँ के लोगों से पूंछते हैं। एक बार तिरुमाली कि दिशा प्राप्त होने के पश्चात वों हर कदम पर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए उनके तिरुमाली पहूंचते हैं जिसे देख सभी जन आश्चर्य चकित हो जाते हैं और जिन्हें श्री तिरुक्कोष्टिऊर नम्बी कि महानता का भी तभी पता चला। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी के चरण कमलों पर गिरकर और उन्हें द्वय महामन्त्र का गुढार्थ सिखाने को कहते हैं। परन्तु श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी को उन्हें सिखाने में कोई अधीक रुचि नहीं दिखाते हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी निराश होकर श्रीरंगम लौट जाते हैं।

श्रीरामानुज स्वामीजी का श्रीरंगम में लौटने के बाद उन्हें श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी से रहस्य विषय सिखने कि बड़ी इच्छा हुई। श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी एक बार श्रीरंगम आये तब नम्पेरुमाल उन्हें श्रीरामानुज स्वामीजी को रहस्य विषय सिखाने का आदेश दिते है। श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी नम्पेरुमाल भगवान से कहते हैं कि शास्त्रानुसार यह विषय सभी को नहीं सिखाया जा सकता हैं। नम्पेरुमाल  कहते हैं कि क्योंकि श्रीरामानुज स्वामीजी में अच्छे शिष्य बनने के सभी गुण हैं तो उन्हें सिखाने में कोई गलत नहीं हैं। इसके बाद श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामि को सिखाने के लिये मान जाते हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी तिरुक्कोष्टिऊर अर्थ सिखने को जाते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी तिरुक्कोष्टिऊर जाते हैं तो श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी उन्हें लौटाकर फिर बाद में आने को कहते हैं। ऐसा १८ बार हुआ। इस स्थिति को सहन न कर श्रीरामानुज स्वामीजी एक शिष्य के माध्यम से श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी को सन्देश भेजते हैं कि उन्हें यह अर्थ सिखना हीं हैं। अन्त में श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को अर्थ सिखाने के लिये तैयार हो जाते हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी गीता के चरम श्लोक का रहस्य अर्थ सीखते हैं। श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी श्रारामानुज स्वामीजी से विनंती करते हैं कि इसका अर्थ किसी को भी न बताये। परन्तु श्रारामानुज स्वामीजी जिन्हें भी सिखने कि इच्छा थी सभी को सिखाये। यह सुनकर श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी बहुत क्रोधित हुए और उन्हें बुलाते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी को समझाते हैं कि जो शिक्षीत हैं उन्हें इस रहस्य अर्थ का सच्चा ज्ञान सीकखर बहुत लाभ होगा। श्रीरामानुज स्वामीजी का उदार स्वभाव देख श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी प्रणाम कर उन्हें “एम्पेरुमानार” (एम्पेरुमान भगवान श्रीमन्नारायण से भी अधिक महान) ऐसे कहते हैं। इसके बाद हमारा सम्प्रदाय भी “एम्पेरुमानार दर्शनम” (श्रीरामानुज दर्शनम) ऐसे जानने लगे। एम्पेरुमानार ने इस रहस्य अर्थ को श्रीकुरेश स्वामीजी और श्रीदाशरथी स्वामीजी को उनके विणति करने पर सिखाया।

फिर श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी तिरुमालई आंडान  को निर्देश देते हैं कि वें श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीसहस्रगीति का अर्थानुसन्धान कराये। एम्पेरुमानार बड़े उत्साह से तिरुमालई आंडान से सभी आवश्यक अर्थ सिखते हैं। कभी कभी तिरुमालई आंडान और एम्पेरुमानार के विचारों में कुछ पाशुर्रों पर मत भेद हो जाता था और श्रीसहस्रगीति का “अरियाक कालत्तूल्ले” पाशुर सिखते समय तिरुमालई आंडान एम्पेरुमानार के अलग अर्थ बताने से नाराज हो गये और सिखाना बन्द कर दिया। यह घटना सुनकर श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी उसी क्षण श्रीरंगम आते हैं। वों तिरुमालई आंडान को एम्पेरुमानार कि महानता बताते हैं और शिक्षा जारी रखने का निर्देश देते हैं। तिरुमालई आंडान मान जाते हैं और शिक्षा जारी रखते हैं। फिर एक बार मत भेद होगया और एम्पेरुमानार कहते हैं “श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी इस तरह नहीं समझाते”।  तिरुमालई आंडान पूंछते हैं “आपको कैसे पता जबकी आपने कभी भी उनके दर्शन नहीं किये?” और एम्पेरुमानार कहते हैं “मैं श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के लिये एकलव्य जैसे हूँ”। यह सुनकर तिरुमालई आंडान को श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी कि एम्पेरुमानार के प्रति बात का स्मरण होता हैं जब वें स्वयं एम्पेरुमानार के मुख सुनते है। तब उन्हें यह अहसास होता हैं कि एम्पेरुमानार का अवतार विशेष हैं और यह विचार करते हैं कि वें इन पाशुरों का अर्थ स्वयं श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी से सुनने में वंचीत रह गये और एम्पेरुमानार को बड़े सम्मान से देखते हैं।

श्रीसहस्रगीति का अध्ययन समाप्त कर वें श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के पास जाते हैं और श्रीमहापूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को निर्देश देते हैं कि वें श्री तिरुवरंगप्पेरुमाल अरैयर के पास जाकर उनकी सेवा कर उनसे कुछ गुड़ार्थ सीखे। एम्पेरुमानार श्री तिरुवरंगप्पेरुमाल अरैयर के पास जाकर निस्वार्थ भाव से ६ महिने तक दूध बनाकर और हल्दी का लेप बनाकर सेवा किये। एक बार हल्दी का लेप एम्पेरुमानार ने तैयार किया वह श्री अरैयर स्वामि को सही नहीं लगा और वह अपनी नाराजगी बताये। एम्पेरुमानार उसी समय श्री तिरुवरंगप्पेरुमाल अरैयर को संतुष्ट करें ऐसा नया हल्दी का लेप बनाते  हैं। अरैयर स्वामि प्रसन्न होकर “चरमोपाय” का गोपनीय तत्त्व जो सभी के लिये आचार्य पर पूरी तरह निर्भर होके सिखाते हैं।

कोई आश्चर्य कर सकता हैं कि, एम्पेरुमानार क्यों अनेक आचार्यो  से शिक्षा ग्रहण करना पड़ा। जैसे एक राज कई मन्त्रीयों को नियुक्त करता हैं अपने युवराज को सशक्त बनाने के लिये, वैसे हीं श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी ने अपने कई शिष्यों को ज्ञान का धन दिया और उन सभी को यह निर्देश दिया कि सही समय पर सभी वह ज्ञान एम्पेरुमानार को प्रदान करें। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के यह सभी शिष्यों को श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति बहुत लगाव और सम्मान था क्योंकि वों स्वयं श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी को बहुत प्रिय थे। श्रीरामानुज स्वामीजी के पहले के आचार्य को बहुत ख्याति इसलिये प्राप्य हुई क्योंकि वें श्रीरामानुज स्वामीजी के आचार्य हैं और यह कहने कि आवश्यकता नहीं हैं कि एम्पेरुमानार के शिष्यों को भी प्रसिद्धी उनके सम्बन्ध के कारण हीं मिली। जैसे एक हार में हीरा, हार के दोनों तरफ को ख्याति लाता हैं वैसे हीं एम्पेरुमानार उनसे पहिले और बाद में दोनों आचार्यों को ख्याति प्रदान किये हैं।

गध्यत्रय गाना

फिर एम्पेरुमानार श्रीरंगम में श्रीरंगनायकी अम्माजी और श्रीरंगनाथ भगवान के सामने उत्तर फाल्गुणी के दिन गध्यत्रय सुनाते हैं। वों अपने तिरुमाली में भगवान कि तिरुवाराधन करने कि प्रक्रिया को नित्य ग्रन्थ में संग्रह करते हैं।

इस वक्त एम्पेरुमानार श्रीरंगम में भिक्षा माँगकर पाते थे। कुछ जन जो श्रीरंगम के मन्दिर में यह बदलाव के विरुद्ध थे एक औरत को नियुक्त कर उन्हें जहरीले चावल देने को कहते हैं। वों बिना इच्छा के भी यह कार्य करने कि आज्ञा को स्वीकार करती हैं और एम्पेरुमानार को जब देती हैं तो बड़े पीड़ा के साथ देती है। एम्पेरुमानार को शख हुआ कि कुछ गलत है तो खाने को कावेरी नदी में फेंख देते हैं और उपवास करना प्रारम्भ कर देते हैं। यह घटना जब श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी को पता चली तो वें तुरन्त श्रीरंगम आ जाते है। एम्पेरुमानार कड़ी धुप में उनका स्वागत करने कावेरी के तट तक जाते हैं। श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी को देखते हीं एम्पेरुमानार उसी समय जमीन पर गिरकर साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हैं और श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी को उन्हें उठाने तक कि प्रतीक्षा करते हैं। श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी एक क्षण के लिये उन्हें उठाने के लिये हिचकिचाते है और श्रीकिदाम्बी आच्छान, एम्पेरुमानार के एक शिष्य उसी क्षण एम्पेरुमानार को उठाते है और श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी से कहते है “आप इतने बड़े आचार्य को कड़ी धुप में कैसे तड़पने  दे सकते हैं?”। श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी श्रीकिदाम्बी आच्छान से कहते हैं “मुझे एम्पेरुमानार कि देखबाल करने हेतु एक अच्छा व्यक्ति मिल गया है क्योंकि तुमने मेरा अनादर कर उन्हें उठाया। इसलिये तुम एम्पेरुमानार के लिये प्रसाद बनाओगे”। इस तरह सभी अपनी चिन्ता और सावधानी एम्पेरुमानार के प्रति बताते हैं।

श्री यज्ञमूर्ति को परास्त करना

श्री यज्ञमूर्ति नामक एक मायावाद था जो बहुत बड़े विद्वान थे जिन्होंने काशी में कई विद्वानों को परास्त कर वहीं पर सन्यासाश्रम में प्रवेश कर निवास करने लगे। पुरुस्कार और सम्मान रूप में उन्होंने काफी शाबाशीअर्जित किया और शिष्य भी बनाये थे। श्रीयज्ञमूर्ति ने श्रीरामानुज स्वामीजी की कीर्ति के बारे में काफी सुना था। इसलिये वें श्रीरंगम पधारकर श्रीरामानुज स्वामीजी को वाद विवाद के लिये ललकारा। श्रीरामानुज स्वामीजी भी इस वाद-विवाद के लिये तैयार हो गये। श्रीयज्ञमूर्ति ने कहा कि “यदि मैं हारता हूँ तो मैं आपकी खड़ाऊ (चरण पादुका) अपने सिर पर रखकर जाऊँगा, आपके नाम और आपके सिद्धान्तों को भी स्वीकार करूँगा।” इस पर श्रीरामानुज स्वामीजी ने कहा “अगर मैं हार जाता हूँ तो मै साहित्यिक प्रयास को  छोड़ दूँगा”। दोनों में १७ दिनों तह प्रचण्ड वाद विवाद हुआ। १७ वें दिन श्रीयज्ञमूर्ति विजयी होकर बहुत अहंकार से जाने लगे। श्रीरामानुज स्वामीजी बहुत खेद प्रगट किया और अपने मठ के भगवान (पेररूलालप पेरुमाल) से कहा “यह महान सम्प्रदाय जिसे महान निष्ठावान विद्वानों, आल्वारों से श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी आदि ने पोषण किया आज मेरे वजह से परास्त हो रहा हमें और इस सम्प्रदाय को मायावादी ध्वस्त कर देगा। यदि यही आपकी इच्छा है तो होने दीजिये” और बिना प्रसाद पाये विश्राम करने चल दिये। रात्री में स्वप्न में श्रीभगवान प्रगट होकर निर्देश दिया कि तुम श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी की रचनाओं को उपयोग कर श्रीयज्ञमूर्ति पर जीत हासिल करों। प्रात:काल उठते ही श्रीरामानुज स्वामीजी में एक नयी स्फूर्ति आगयी। प्रात: कालीन दिनचर्या समाप्त कर अपने मठ के श्रीभगवान से आज्ञा लेकर प्रस्थान किया। श्रीरामानुज स्वामीजी के इस शानदार आगमन की शैली देखकर श्रीयज्ञमूर्ति, जो बहुत बड़े विद्वान थे सोचता हैं कि कोई अलौकिक ईश्वरीय शक्ति इस स्पर्धा के मध्य में आ रही है और तुरन्त श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणारविंद में अपने को समर्पित करके घोषणा करता है कि “मैं यह स्पर्धा हार गया हूँ”। इससे आश्चर्य चकित होकर श्रीरामानुज स्वामीजी पूछते है कि “क्या तुम स्पर्धा में आगे भाग नही लेना चाहते हो” और श्रीयज्ञमूर्ति कहता है “क्योंकि श्रीरंगनाथ भगवान ने आपसे चर्चा कि है तो अब मेरे समझ में आगया है कि आप स्वयं श्रीरंगनाथ भगवान से अलग नहीं हो। आपके समक्ष आगे से मैं अपना मुह कभी नहीं खोलुंगा”। फिर भी श्रीरामानुज स्वामीजी ब्रम्ह के विशेष गुणों को वर्णन कर मायावाद के सिद्धान्त का नाश करते हैं। श्रीयज्ञमूर्ति को सब समझ में आजाता हैं और वे अपना एक दण्ड (मायावादी सन्यासी द्वारा लिये जाने वाला एक दण्ड) तोड़कर श्रीरामानुज स्वामीजी से निवेदन करते हैं कि उसे भी त्रीदण्डधारी सन्यासी (श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के सन्यासी से सम्बंधीत) की दीक्षा दें। श्री पेररूलालप पेरुमाल के ईश्वरीय शक्ति के पावन स्मृति में और श्रीयज्ञमूर्ति द्वारा हारने, श्रीरामानुज स्वामीजी का नाम स्वीकार करने के बाद श्रीयज्ञमूर्ति का नाम “श्रीअरूलालाप पेरुमाल एम्पेरुमनार” (श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी) रखते हैं। स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें दिव्य प्रबन्ध का गहराई तक ज्ञान सीखाते हैं। श्रीअरूलालाप पेरुमाल एम्पेरुमनार श्रीरामानुज स्वामीजी के संग रहते हुये उन्हें पूर्ण रूप से अपने आपको समर्पित करते हैं।

तिरुमला यात्रा और कैंकर्य

उडयवर ने श्रीरंगम में श्रीकुरेश स्वामीजी, श्रीदाशरथी स्वामीजी, श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी, आदि को शानदार ढंग से सिखा रहे थे। कई विद्वान श्रीरामानुज स्वामीजी कि वैभवता का गुणगान सुनकर उनकी शरण में श्रीरंगम में पधारे। जब श्रीअनन्ताल्वान स्वामीजी, एच्छान, तोण्डनूर और मरुधूर नम्बी श्रीरामानुज स्वामीजी को अपना आचार्य बनाने के लिये पधारे तब उन्होंने उन सभी को श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी के पास जाकर उनका शिष्य बनने को कहा। सभी खुशी से यह बात मान लिये और श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमलों पर पूर्ण निर्भर रहने कि आज्ञा दिये।

एक समय श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीसहस्रगीति पर कालक्षेप कर रहे थे। जब वें “ओझिविल कालम” समझा रहे थे तो उन्होंने शिष्यों से पूछा कि “क्या कोई तिरुमला तिरुपती में रहकर वहाँ वेंकटेश भगवान के कैंकर्य हेतु एक बगीचे का निर्माण कर प्रतिदिन उन्हें पुष्पमाला बनाकर अर्पण करने का कार्य करना चाहेगा”। श्रीअनन्ताल्वान स्वामीजी एक क्षण में खड़े होकर इस कैंकर्य को स्वीकार किया। श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें इस कैंकर्य के लिये आर्शिवाद प्रदान करते हैं। श्रीअनन्ताल्वान स्वामीजी तिरुमला जाकर एक बगीचे व तालाब का निर्माण कर उस बगीचे का नाम “श्रीरामानुज वाटिका” रखते हैं और भगवान वेंकटेश कि सेवा करते हैं।

उडयवर भी तीर्थ यात्रा में जाना चाहते हैं जिसके लिये श्रीरंगनाथ भगवान से प्रार्थना करते हैं। आज्ञा प्राप्त होने के पश्चात तिरुक्कोवलूर और काञ्चीपुरम में मंगलाशासन कर तिरुमला कि ओर प्रस्थान करते हैं।

अपने शिष्यों के साथ उडयवर तिरुमला तिरुपती के ओर प्रस्थान करते हैं लेकिन राह में एक जगह वें रास्ता भूल जाते हैं। वों एक किसान को देख उससे रास्ता पूछते हैं। किसान द्वारा सही मार्ग का वर्णन लेने के बाद श्रीरामानुज स्वामीजी कृतज्ञता से अभिभूत होकर किसान को साष्टांग प्रणाम कर उसका अमानवन (वह जो श्रीवैकुण्ठ कि राह बताता हैं) माना। अन्त में वें तिरुपती पहुँचते है और सप्तगिरि के चरणों में आलवारों कि पूजा करते हैं। कुछ समय के लिये वों तिरुपती में रहकर राजा को अपना शिष्य रूप में स्वीकार करते है और अपने कई शिष्यों को वहीं निवास करने कि आज्ञा देते हैं। यह समाचार पाकर श्रीअनन्ताल्वान स्वामीजी और अन्य शिष्य आकर उडयवर का स्वागत कर उन्हें सप्तगिरि आकर भगवान वेंकटेश का मंगलाशासन करने कि विणति करते हैं। सप्तगिरि कि पवित्रता को देख पहले तो श्रीरामानुज स्वामीजी मना करते है क्योंकि आलवार भी वहाँ नहीं चढ़ें थे परन्तु शिष्यों के मनाने पर श्रीरामानुज स्वामीजी पहाड के चरणों में जाकर स्वयं को शुद्ध कर पूरे दास भाव से चढ़ते हैं मानों परमपद में भगवान के सिंहासन पर चढ़ रहे हैं।

तिरुमला पहुँचने पर श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी उनका स्वागत श्रीवेंकटेश भगवान के मान सम्मान द्वारा करते हैं। यह देख श्रीरामानुज स्वामीजी लज्जीत होते हैं कि श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी जो उनके आचार्य हैं वें स्वयं उनका स्वागत करने पधारे हैं और वें उनसे पूछते हैं कि “आपको कोई साधारण मानव नहीं मिला जो मेरा स्वागत कर सके?” और श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी विनम्रता पूर्वक उत्तर देते हैं “मैंने मेरे चारों तरफ ढूंढा, परन्तु मुझसे नीच कोई नहीं मिला”। उडयवर और उनके शिष्य यह उत्तर सुनकर आश्चर्य चकित रह गये। फिर सभी जीयर, एकांगी, मन्दिर के सेवक आदि आकर श्रीरामानुज स्वामीजी का स्वागत करते हैं। उडयवर फिर मन्दिर कि परिक्रमा लगाकर, पुष्करणी में स्नान कर, द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण कर, वराह भगवान कि पूजा कर, मुख्य मन्दिर में प्रवेश कर, श्रीविश्वक्सेन कि पूजा कर भगवान वेंकटेश का मंगलाशासन करते हैं। इसके बाद श्रीरामानुज स्वामीजी तिरुपती जाने का निश्चय करते है क्योंकि वे कहते है कि यह स्थान नित्यसुरियों का निवास स्थान है और यहाँ हम रात में निवास नहीं कर सकते हैं। परन्तु श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी व अन्य उन्हें ३ दिन तक रहने के लिये राजी करते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी उनकी आज्ञा पालन कर बिना प्रसाद पाये वहाँ निवास करते हैं और भगवान कि दिव्य  वैभवता का आनन्द लेते हैं। इसके बाद श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान श्रीनिवास से वहाँ से जाने की आज्ञा मांगते है और उसी समय भगवान पुन: पुष्टि करते है कि आप दोनों लीला विभूति और नित्य विभूति के मालिक हैं और उन्से विदाई लेते हैं।

तिरुमला से विदा लेकर एक वर्ष के लिये आप तिरुपती में निवास करते हैं। यहाँ पर श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी से आप श्रीरामायण का अर्थानुसन्धान करते हैं। इस अध्ययन के प्रवचनों की समाप्ती के बाद श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी से श्रीरंगम जाने कि आज्ञा मांगते हैं। श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को कुछ भेंट देना चाहते है। श्रीरामानुज स्वामीजी प्रार्थना करते हैं कि श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी (जो श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी की बहुत ही समर्पण भाव से सेवा करते हैं) को उनके साथ भेजे जो उन्हें सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित करने में मदद कर सकेंगे। श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी खुशी से श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी को श्रीरामानुज स्वामीजी के साथ भेजते हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीरंगम कि ओर यात्रा प्रारम्भ करते हैं।

श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी के साथ गदिकाचलम (शोलिंगुर) पहुँचते हैं और वहाँ श्रीअक्कारक कणी भगवान का मंगलाशासन करते हैं। आगे तिरुप्पुत्कुझी पहुँच कर श्रीजटायु महाराज, मरगातवल्ली तायर और विजयराघवन भगवान का मंगलाशासन करते हैं। इसके बाद वें काञ्चीपुरम के आस पास कई दिव्यदेशों के दर्शन कर श्रीकांचीपूर्ण स्वामीजी के सामने पहुँचते हैं। इस बीच श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी अपने आचार्य श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी से बिछुड़ने के कारण बहुत कांतिहीन हो गये। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी के दु:ख को समझकर श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें अपने आचार्य के दर्शन प्राप्त करने को कहकर उनके साथ दो श्रीवैष्णवों को भी भेजते हैं। वों कांचीपुरम में रहकर श्रीकांचीपूर्ण स्वामीजी के साथ श्रीवरदराज भगवान कि सेवा करते हैं। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी के तिरुमाली पहुँचकर प्रवेश द्वार के पास जो बन्द था, इंतजार करते हैं। जब देखनेवालों ने श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी को श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी के विषय के बारें में बताया तो उन्होंने द्वार खोलने से इनकार कर दिया और वापिस श्रीरामानुज स्वामीजी के पास जाने को कहा और कहते हैं उनके चरण कमलों को हीं अपना शरण माने। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी अपने आचार्य की दिव्य इच्छा को समझकर वापिस श्रीरामानुज स्वामीजी के पास आते हैं। और उन्के सात गए दो श्रीवैष्णव यह पूरा वृतान्त श्रीरामानुज स्वामीजी को सुनाते है शैलपूर्ण स्वामीजी की आज्ञा सुनकर श्रीरामानुज स्वामीजी को बहुत आनन्द हुआ।

श्रीरंगम में वापसी

कुछ समय के बाद सभी कांचीपुरम से श्रीरंगम आते हैं। स्थानीय श्रीवैष्णव जन सभी का औपचारीक रूप से स्वागत करते हैं और श्रीरामानुज स्वामीजी क्रम से श्रीरंगनाथ भगवान कि सन्निधी में जाते हैं। श्रीरंगनाथ भगवान बड़े प्रेम से श्रीरामानुज स्वामीजी का स्वागत कर, उनकी यात्रा के विषय में पूछ, तीर्थ, श्रीशठारी देकर सम्मान करते हैं। फिर उडयवर कृपा कर अपनी नित्य दिनचर्या प्रारम्भ कर सभी को श्रीरंगम में श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के सिद्धान्त को सीखना शुरू करते हैं।

श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी भी प्रसन्नता से कालक्षेप और कैंकर्य में भाग लेते हैं। एक बार कुछ श्रीवैष्णव श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी कि प्रशंसा कर रहे थे तो श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी बहुत खुश हुए। यह देख श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें कहते हैं “जब कोई तुम्हारी तारीफ करें तो आप उसे सीधे से स्वीकार नहीं करे। बल्कि उन्हें आपको कहना चाहिये कि मैं इस प्रशंसा के योग्य नहीं हूँ”। यह सुनकर श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी कहते हैं “जब में कालहस्ती में था तब मैं बहुत हिन दशा में था। अगर कोई मेरे प्रशंसा करता हैं तो वों केवल आपकी दया के कारण जिसके कारण मुझमे बदलाव हुआ और मैं इस परिस्थिति में हूँ – इसलिये यह सभी प्रशंसा आप हीं के लिये हैं”। एम्पेरुमानार यह सुनकर श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी कि निष्ठा को स्वीकृति देते हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी को आलिंगन कर कहते हैं “आप अपने अच्छे गुण मुझे भी प्रदान कर दीजिए”। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी इस सांसारिक सुखों से पूर्णत: पृथक थे और एम्पेरुमानार ने अन्त में श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी को सन्यासाश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा प्रदान किये। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी सन्यासाश्रम को स्वीकार करते है और एम्पेरुमानार ने उनका नाम एम्बार रखा।

श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी ने ज्ञानसारम व प्रमेय सारम की रचना की जिसमें अपने सम्प्रदाय के तत्त्वों का वर्णन किया गया हैं।

कश्मीर यात्रा व श्री भाष्यम

वेदान्त के सिद्धान्तों की स्थापना करने हेतु श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी और अन्य शिष्यों सहित भोधायन वृत्ति ग्रन्थ (ब्रम्ह सूत्र पर एक व्याख्या) को प्राप्त करने हेतु कश्मीर कि ओर प्रस्थान किये। इसे प्राप्त कर श्रीरंगम कि ओर प्रस्थान करते हैं। राह में कुछ भ्रष्ट लोग ग्रन्थ उनसे छीनकर भाग जाते हैं। एम्पेरुमानार इससे बहुत दुखी होकर शोक में डूब जाते हैं क्योंकि उस ग्रन्थ का पूर्ण अध्ययन भी उन्होंने नहीं किया था परन्तु श्रीकुरेश स्वामीजी उन्हें सांत्वना देते हैं और कहते है कि जब आप विश्राम कर रहे थे तब मैंने इस ग्रन्थ का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। श्रीरंगम में लौटकर एम्पेरुमानार श्रीकुरेश स्वामीजी को आज्ञा देते हैं जैसे उन्होंने कहा है वैसे ही ब्रम्हसूत्र की व्याख्या को लिखें। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी को कहते हैं कि जहाँ उन्हें लगे कि यहाँ उन्होंने बनाये गये सिद्धान्तों के विरुद्ध या अनुरूप हैं वही वें श्रीब्रम्हसूत्र की व्याख्या लिखना बन्द कर सकते हैं। एक बार आत्मा का सच्चा स्वभाव समझाते समय एम्पेरुमानार बिना शेषतत्व के प्रभाव के उसे ज्ञातृत्त्वम (ज्ञान का घर) कहते है। श्रीकुरेश स्वामीजी यहाँ लिखना छोड़ा देते है क्यों की ज्ञान और शेषतत्व दोनों आत्मा के मुख्य स्वभाव हैं। एम्पेरुमानार क्रोधित हो जाते हैं और श्रीकुरेश स्वामीजी को जो वों कहते है उसे लिखने के लिये दबाव डालते हैं। फिर भी श्रीकुरेश स्वामीजी इंकार करते है और एम्पेरुमानार अपना गुस्सा प्रत्यक्ष दिखाते हैं। जब अन्य श्रीकुरेश स्वामीजी को श्रीरामानुज स्वामीजी के गुस्से के विषय पर पूछते है तो श्रीकुरेश स्वामीजी केवल कहते हैं “वों स्वामी हैं और मैं दास हूँ। वों मेरे साथ कुछ भी कर सकते हैं”। कुछ समय पश्चात एम्पेरुमानार को परिस्थिति का ज्ञात होता हैं और श्रीकुरेश स्वामीजी से क्षमा मांग सही अर्थ लिखाना प्रारम्भ करते हैं। इस तरह श्रीभाष्यम, वेदार्थ दीपम, वेदार्थ सारम, वेदार्थ संग्रह, गीता भाष्यम यह ग्रन्थ श्रीरामानुज स्वामीजी के कृपा से प्राप्त हुए और श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के दु:ख को भी दूर किया जो इन तत्त्वों को स्पष्टता से समझाना चाहते थे।

दिव्य देश यात्रा

श्रीवैष्णव जन श्रीरामानुज स्वामीजी के पास जाकर उन्हें कहते कि “स्वामीजी आपने श्रीवैष्णव सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित किया है और अन्य सिद्धान्तों को हराया है। अब कृपया तीर्थ यात्रा पर चलिये और राह में आनेवाले सभी दिव्यदेशों में पूजा करिये”। उनकी यह बात मानकर श्रीरामानुज स्वामीजी सभी श्रीवैष्णवों के साथ श्रीरंगनाथ भगवान (उत्सव विग्रह) के सन्निधी में गये और यात्रा के लिये आज्ञा लेकर यात्रा प्रारम्भ किया। श्रीरंगनाथ भगवान ने आज्ञा प्रदान किये।

सभी श्रीवैष्णवों के साथ श्रीरामानुज स्वामीजी यात्रा प्रारम्भ किये और भारतवर्ष के कई दिव्य देशों और क्षेत्रों में दर्शन किया। वें अपनी यात्रा चोलनाडु से प्रारम्भ कर और उस क्षेत्र में तिरुक्कुदंताई और अन्य दिव्यदेशों के दर्शन करते हैं। फिर वों तिरुमालिरुंचोलाई और अन्य मन्दिर से तिरुप्पुल्लाणि जाकर सेतु समुन्द्र के दर्शन कर आलवार तिरुनगरी पहुँचते हैं। वहाँ श्रीशठकोप स्वामीजी का मंगलाशासन “पोलिन्धु निनरा पिरान”  इस तरह करते हैं। श्रीशठकोप स्वामीजी एम्पेरुमानार को देख बहुर प्रसन्न हो उन्हें सभी सम्मान देते हैं। उडयवर वहाँ सभी नव तिरुपती के दर्शन करते हैं। राह में उनके सिद्धान्तों का विरुद्ध करने वालों को परास्थ कर विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त कि स्थापना करते हैं।

वहाँ से तिरुकुरुंगुड़ी पधारते हैं। नम्बि उडयवर का स्वागत कर अर्चकों के जरिये उनसे वार्तालाप करते हैं। वों पूछते हैं कि “मैंने यहाँ कई अवतार लेकर भी शिष्यों को इकट्ठा नहीं कर सका और कैसे आप यह कार्य कर सके?”। उडयवर कहते हैं “मैं तुम्हें  समझा सकता हूँ अगर आप मेरे शिष्य बनकर पूछेंगे तो”। उसी समय नम्बि श्रीरामानुज स्वामीजी को सिंहासन प्रदान कर उनके आगे विनम्रतापूर्वक खड़े हो गये। उडयवर सिंहासन के आगे बैठते है और अपने आचार्य श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को सिंहासन पर बैठे हैं ऐसा स्मरण करते है और नम्बि को द्वय महामन्त्र कि महिमा को समझाते है और भगवान से कहते है इसी द्वय महामन्त्र कि शक्ति से उन्होंने सभी को इस पवित्र राह पर चलने के लिये मनाया हैं। भगवान बहुत प्रसन्न होकर और श्रीरामानुज स्वामीजी को आचार्य रूप में स्वीकर करते है और एम्पेरुमानार खुश होकर भगवान का नाम “श्रीवैष्णव नम्बि” रखे।

फिर एम्पेरुमानार तिरुवण्परिसारम, तिरुवात्तारू और तिरुवनन्तपुरम को जाते हैं। तिरुवनन्तपुरम में एक मठ कि स्थापना कर कई पण्डितों के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं। फिर उस क्षेत्र के कई दिव्यदेशों के भगवान कि पूजा करते है और पश्चिम तट से उत्तर भारत में पहुँचते हैं। वों मथुरा, सालग्राम, द्वारका, अयोध्या, बद्रीकाश्रम, नैमिशरण, पुष्कर में मंगलाशासन कर गोकुल, गोवर्धन, वृन्दावन, आदि भी जाते हैं और वहाँ भी अन्य सिद्धान्तों के कई पण्डितों को परास्थ करते हैं।

यहाँ से श्रीरामानुज स्वामीजी कश्मीर पहुँचते हैं और सरस्वती भण्डारम (साहित्यिक केन्द्र) जिसकी सभापती स्वयं सरस्वती देवी है। वों स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी का स्वागत कर उनसे चांदोज्ञ उपनिषद के श्लोक “तस्य यथा कप्यासम” [यह वों श्लोक हैं जिससे श्रीरामानुज स्वामीजी और उनके बाल्यावस्था के आचार्य श्रीयादवप्रकाशाचार्य के मध्य अनबन हो गई थी] का अर्थ समझाने को कहति है। श्रीरामानुज स्वामीजी ने इस श्लोक का विस्तृत से उत्तर दिया और उसका सही अर्थ भी स्थापित किया। सरस्वती देवी इस अर्थ से बहुत प्रसन्न हो उनकी श्रीभाष्य (ब्रम्ह सूत्र पर टीका) को मस्तक पर रख उनकी स्तुति की। वों उनकी स्तुति कर उनको “श्री भाष्यकार” कि पदवी दी और श्रीहयग्रीव भगवान कि विग्रह प्रदान की। जब उडयवर पूछते हैं कि वों इतनी आनंदित क्यों हुई तो वों कहती हैं पहले शंकरा पधारे थे और जब उन्होंने यही श्लोक का अर्थ उनसे पूछा तो वो समझा नहीं पाये और एक बेजोड़ अर्थ समझाये। वों कहती हैं “क्योंकि आप ने सही अर्थ समझाया है जिससे मैं संतुष्ट और आनंदित हुई हूँ”। वहाँ उपस्थित अन्य विद्वान जो वहाँ इस वार्ता को सुन रहे थे उत्तेजित होकर चर्चा करने के लिये श्रीरामानुज स्वामीजी के पास आये। श्रीरामानुज स्वामीजी ने सभी को हराकर श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को स्थापित किया। यह देख राजा अचम्बित हो गया और उडयवर के शिष्य बन गये। हारे हुए विद्वान गुस्सा हो गये और उन्होंने उडयवर को काले जादू के जरिये मारने कि साजिश रची। परन्तु इस जादू का उल्टी प्रतिक्रिया हुई और वें एक दूसरे से लड़ने लगे। राजा श्रीरामानुज स्वामीजी से विणति करते हैं कि उन सभी को बचा लीजिए और फिर सभी शान्त हो श्रीरामानुज स्वामीजी के शिष्य बन जाते हैं।

वहाँ से वे वाराणासी जाकर गंगा में स्नान कर कण्डमेन्नुम कडी नगर दिव्य देश में पूजा करते हैं। वहाँ से में पुरुषोत्तम धाम (जगन्नाथ पुरी) पधारते हैं और भगवान जगन्नाथ का मंगलाशासन करते हैं। वहाँ मायावादी विद्वान को हराकर मठ कि स्थापना करते हैं। वहाँ से श्रीकूर्मम, सिंहादरी और अहोबिलम पधारते हैं।

अन्त में वों तिरुमला आते हैं। उस समय कुछ शैवों ने यह विवाद किया कि भगवान वेंकटेश कि जो विग्रह हैं वों शिवजी की हैं। उडयवर फिर कहते हैं “आप अपने भगवान के शस्त्र भगवान वेंकटेश के पास रखें और हम शङ्ख और चक्र उनके सामने रखते हैं। स्वयं भगवान को यह निर्णय करने दीजिये कि वें कौन हैं और उसके अनुसार वों हीं शस्त्र वें धारण करेंगे”। उन्होंने सभी को गर्भगृह से बाहर भेजा और कपाट बन्द कर दिया और सभी रात्री में चलेगये। प्रात: काल में जब सभी वापिस आये और गर्भगृह के फाटक खोला तो श्रीरामानुज स्वामीजी व अन्य श्रीवैष्णव यह दृश्य देख आश्चर्य चकित हो गये, देखा कि भगवान ने शङ्ख और चक्र को धारण किया हैं। इसके पश्चात श्रीरामानुज स्वामीजी तिरुपती पधारे और अपनी यात्रा यहाँ से प्रारम्भ किये।

फिर वों कांचीपुरम, तिरुवल्लिक्केणी, तिरुन्ल्र्मलाई और उस क्षेत्र के अन्य दिव्यदेश के दर्शन करते हैं। फिर वों मधुरांतगम पधारते हैं और तोण्डै मण्डलम में कई मायावाद विद्वानों को परास्त करते हैं। फिर वों तिरुवहिन्ध्रपुरम और काट्टुमन्नार कोइल के स्थानों में दर्शन करते हैं।

इस तरह वें कई दिव्यदेशों कि यात्रा कर अपनी यात्रा समाप्त कर श्रीरंगम लौटते हैं। फिर वों श्रीरंगनाथ भगवान को अमलनाधिपिरान गाकर पूजा करते हैं। श्रीरंगनाथ भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी के कुशलमंगल के बारें में पूछा और उडयवर कहते हैं “हम निरन्तर आपके ध्यान में मग्न रहते हैं, आप चिन्ता न करें”। वें श्रीरंगम में हीं निवास करते हुये कृपा पूर्वक अपना नित्य कैंकर्य करते हैं।

भट्टर भाईयों का जन्म

एक दिन बारीश के कारण श्रीकुरेश स्वामीजी भिक्षा के लिये घर से बाहर जा न सके। वों सायंकालीन अनुष्ठान पूर्ण कर और प्रसाद भी नहीं पाया। रात्री में भोग के समय श्रीरंगनाथ भगवान के मन्दिर कि घण्टी बजने कि ध्वनी सुनाइ दी। उनकी धर्मपत्नी आण्डाल उनके पती कि स्थिति को देख उदास होकर श्रीरंगनाथ भगवान से कहती हैं “जब आपके भक्त उपवास कर रहे हैं तब आप भोजन का आनन्द ले रहे हैं”। उनकी भावनाओं को समझते हुए भगवान श्रीरंगनाथ उसी समय अपने सेवको द्वारा श्रीकुरेश स्वामीजी के तिरुमाली में प्रसाद देकर भेजते हैं। श्रीकुरेश स्वामीजी को प्रसाद के आगमन पर आश्चर्य हुआ और अपनी पत्नी कि ओर देखे और उनकी पत्नी जो भी हुआ उसे बताया। श्रीकुरेश स्वामीजी को अपनी इस दशा के लिये भगवान को तकलीफ देनेकी बात से दु:ख हुआ। फिर भी उन्होंने भगवान के द्वारा भेजे गये प्रसाद से दो मुट्ठी भर प्रसाद स्वीकार किया। थोड़ा स्वयं पाकर शेष अपनी पत्नी को दिया। इन दो मुट्ठी भर प्रसाद के कारण आण्डाल ने दो सुन्दर बच्चों को जन्म दिया। ११ दिन के असौच के पश्चात १२वें दिन श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी और अन्य श्रीवैष्णवों के साथ उत्साहित होकर दोनों बालकों को आर्शिवाद देने श्रीकुरेश स्वामीजी के तिरुमाली में पधारे। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी को दोनों बालकों को उनके निकट लाने को कहा। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी ने श्रीपराशर भट्टर को अपने हाथों में लेकर उसे श्रीरामानुज स्वामीजी के पास ले आये। श्रीरामानुज स्वामीजी ने बालक को बड़े प्रेम से अपने हाथों में लिया और आर्शिवाद दिया। उन्होंने श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी से कहा “इस बालक में पवित्र चमक और सुगन्ध हैं। तुमने ऐसा क्या किया?”। श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी ने उत्तर दिया कि “मैंने बलाक कि सुरक्षा के लिये द्वय महामन्त्र का श्रवण किया”। श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी से कहते “आप मुझसे भी आगे हैं। आप हीं इस बालक के आचार्य बनिये”। फिर उन्होंने इस बालक का नाम पराशर मुनि के स्मरण में “पराशर भट्टर” रखा और श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी कि दूसरी इच्छा को पूर्ण किया। श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी को बालक का समाश्रयण करेने का निरीक्षण किया। श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीकुरेश स्वामीजी को आज्ञा देते हैं कि पराशर भट्टर को श्रीरंगनाथ भगवान और श्री रंगनायाकि अम्माजी को दत्तक दे दें। श्रीकुरेश स्वामीजी ने मान लिया। पराशर भट्टर के बचपन के समय रंगनायाकि अम्माजी स्वयं उनकी लालन पोषण करती थी और जब भी अम्माजी श्रीरंगनाथ भगवान को भोग लगाती तो श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी अपने हाथ सीधे भोग के पात्र में डाल भगवान का भोग भगवान से पहिले पा लेते और उसके बाद स्वयं भगवान भी आनंदित होकर प्रसाद पाते हैं। बहुत हीं छोटी उम्र में हीं श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी बहुत बुद्धिमान थे और श्रीरामानुज स्वामीजी और श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी के बाद वें हीं सम्प्रदाय के प्रमुख स्वामी बने।

श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी के पूर्वाश्रम के भाई सीरिया गोविन्दप पेरुमाल कि पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया और श्रीरामानुज स्वामीजी ने उसका नाम “परांकुश नम्बी” रखा, श्रीशठकोप स्वामीजी के स्मरण में जिससे श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी कि तीसरी इच्छा भी पूर्ण हो गयी।

श्रीदाशरथी स्वामीजी का श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति बहुत लगाव था और श्रीरामानुज स्वामीजी भी उनके प्रति यही भाव रखते थे। जब श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीमहापूर्ण स्वामीजी कि बेटी अतुलाम्बा के यहाँ एक सेवक बनकर रहने को कहा तो बिना विचार किये उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी कि आज्ञा का पालन किया।

जब श्रीरामानुज स्वामीजी के आचार्य श्रीमहापूर्ण स्वामीजी ने श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के महान शिष्य श्रीमारनेर नम्बी के अन्तिम क्रिया किये तो वहाँ के अन्य श्रीवैष्णवों ने उनके इस कार्य को मान्य नहीं प्रदान किये क्योंकि श्रीमहापूर्ण स्वामीजी एक ब्राह्मण और श्रीमारनेर नम्बी एक क्षुद्र थे। उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी के पास जाकर इस घटना कि शिकायत किये। श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को बुलाया और इसका उत्तर मांगा। श्रीमहापूर्ण स्वामीजी ने श्रीमारनेरी नम्बी कि महानता को समझाया और दृढ़ रहे कि वों जो किये वों सहीं हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी आनंदित हो गये और सभी को यह बात बताते हैं और कहते हैं कि वों श्रीमहापूर्ण स्वामीजी से सहमत हैं और केवल सभी को समझाने के लिये निवेदन कर पूछा।

तिरुनारायणपुरम यात्रा

इन दिनों में श्रीरामानुज स्वामीजी के मार्गदर्शन में सभी वैष्णव श्रीरंगम में आनन्द मंगल से रह रहे थे तब दुष्ट राजा जो शैव सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता था,  विचार किया कि शिवजी की श्रेष्ठता को स्थापित किया जाना चाहिये। उसने सभी विद्वानों को बुलाया और उन्हें जबरदस्ती शिवजी की श्रेष्ठता को मानने के लिये मजबूर किया। श्रीकुरेश स्वामीजी का शिष्य नालुरान ने राजा से कहा “अनपढ़ अज्ञानी लोगों को मानने से क्या लाभ होगा? यदि आप सिर्फ श्रीरामानुज स्वामीजी और श्रीकुरेश स्वामीजी से मनवा सकते हो तो हीं, यह सत्य हो जायेगा”। यह सुनकर राजाने अपने सैनिको को श्रीरामानुज स्वामीजी के मठ से श्रीरामानुज स्वामीजी को बुलाने के लिये भेजा। इस समय श्रीरामानुज स्वामीजी स्नान के लिये बाहर गये थे और श्रीकुरेश स्वामीजी जो मठ में थे राजा के भाव को समझ गये और श्रीरामानुज स्वामीजी की तरह भगवा पोषाक धारण करके उनकी त्रिदण्ड को लेकर सैनिकों के साथ राजा के दरबार पहुँचे। स्नानादि से निवृत होकर श्रीरामानुज स्वामीजी जब मठ में वापिस आये तो इस विषय में उन्होंने पूरी जानकारी प्राप्त किये और घटित होनेवाली विपत्ति को ध्यान में रखके तुरन्त मठ छोड़ कर जाने को कहा। उन्होंने श्रीकुरेश स्वामीजी के वस्त्र धारण कर अपने शिष्यों के सहित श्रीरंगम से दूर बाहर निकल आये। जब सैनिकों को इनके श्रीरंगम से भाग जाने का समाचार मिला तो सैनिकों ने इनका पीछा किया। परन्तु श्रीरामानुज स्वामीजी ने थोड़ी मिट्ठी उठाई और उसे पवित्र करके उसे रस्ते में फैला दिया। सैनिकों को उस रेत पर पाँव रखने पर दर्द हुआ और इससे उन्होंने पीछा करना छोड़ दिया।

श्रीरामानुज स्वामीजी उस समय मेलकोटे (तिरुनारायणपुरम) कि ओर यात्रा किये जिसे उन्होंने सुरक्षित माना। जंगल के रास्ते में वे कुछ शिकारियों से मिले जो नल्लान चक्रवर्ती (श्रीरामानुज स्वामीजी का शिष्य) की आज्ञा से वहाँ थे। उन शिकारियों ने उन सभी जो ६ दिनों से नंगे पाँव चलते हुए भूखे प्यासे थे का स्वागत किया। उन्होंने उनकी कुशल मंगल के बारें में पूछताछ की और तब श्रीवैष्णवों ने कहा कि एम्पेरुमानार यहीं हैं और उनका दर्शन कराया और तब सभी शिकारियों ने बहुत सुखद अनुभव किया। शिकारियों ने उन्हें शहद और मोटा अनाज अर्पण किया जिसे एम्पेरुमानार को छोड़ सभी ने स्वीकार किया। यहाँ से शिकारियों ने पास के एक गाँव में सभी को ले गये यहाँ एक ब्राह्मण परिवार रहता था उन्हें उन सबको प्रसाद कि पूर्ण सामग्री दी।

ब्राह्मण की पत्नी (श्री चैलाचलाम्बाजी) ने सभी को प्रणाम करके प्रार्थना कि वें सभी पका हुआ प्रसाद को स्वीकार करें। श्रीवैष्णवों ने प्रसाद ग्रहण करने से मनाकर दिया और कहा कि वें हर किसी से प्रसाद ग्रहण नहीं कर सकते। तुरन्त अम्माजी ने जवाब दिया कि वह स्वयं एम्पेरुमानार  की शिष्या हैं और सभी को विस्तार से बताया कि कुछ समय पहिले हीं श्रीरामानुज स्वामीजी ने उसे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा दी थी। उसने कहा “उन दिनों में जब श्रीरंगम में थी राजा और उनके मन्त्रीगण श्रीरामानुज स्वामीजी के पास आकर आर्शिवाद लेते थे। परन्तु वों प्रतिदिन भिक्षा लेने जाते थे।” मैंने स्वामीजी से पूछा “इतना अन्तविरोध क्यों है?” और स्वामीजी ने कहा “जब मैं भिक्षा के लिये जाता हूँ तो उन्हें भगवान के विषय में ज्ञान देता हूँ”। मैंने स्वामीजी से प्रार्थना की कि मुझे भी ऐसा उपदेश प्रदान करें और तब उन्होंने मुझे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा दी। जब हमें अपने गाँव को वापिस आना था तो मैंने स्वामीजी से उनका आर्शिवाद मांगा तब उन्होंने अपनी पवित्र चरण पादुका दे दी। हम फिर यहाँ आ गये। यह सभी सुनकर एम्पेरुमानार (अपनी पहचान बताये बिना) सभी श्रीवैष्णवों को उसके द्वारा बनाये प्रसाद को पाने को कहा। परन्तु एक श्रीवैष्णव को उन्होंने उसके क्रिया कलापों पर नजर रखने को कहा। उसने खाना बनाने के बाद पूजा घर में जाकर कोइलाल्वार (भगवान) को भोग लगाकर ध्यान में बैठ गई। श्रीवैष्णव ने देखा कि वहाँ भगवान की तरह कोई मूर्ति है लेकिन वह सामान्य मूर्ति की तरह नहीं दीखती है। उसने श्रीरामानुज स्वामीजी को पूर्ण वृतान्त बताया। एम्पेरुमानार ने तब उस ब्राह्मण पत्नी से पूछा “आप अन्दर क्या कर रही थी?”। उसने जवाब दिया “मैंने ध्यान लगाकर अपनी प्रार्थना श्री रामानुज स्वामीजी द्वारा दी गई चरण पादुका से की और उन्हें भोग लगाया”। उन्होंने उन पादुका को बाहर लाने को कहा और उसने वैसे हीं किया। उन्होंने महसूस किया कि यह उनकी हीं चरण पादुका हैं। तब उन्होंने उससे पूछा कि “क्या तुम्हें पता हैं एम्पेरुमानार यहाँ हैं?” और उसने दीपक लगाकर सभी के चरणारविंदों का निरीक्षण किया। जब उसने एम्पेरुमानार के पवित्र चरणों को देखा तब वह खुशी से अचम्बित हो गयी और कहा “यह एम्पेरुमानार के पवित्र चरणों के समान हैं परन्तु क्योंकि आप सफेद पोषाक धारण किये हो मैं आपको पहचान न सकी”। तब एम्पेरुमानार ने अपना सही परिचय दिया और उससे उनकी आज्ञा को पुन: सुनाने को कहा। उसने खुशी से कहा और उसके पश्चात एम्पेरुमानार सभी को प्रसाद पाने कि आज्ञा प्रदान किये। वों स्वयं नहीं पाते हैं क्योंकि वह भगवान को अर्पण नहीं किया हुआ था। तब उसने स्वामीजी को फल, दूध और शक्कर दिया और उसे स्वामीजी ने अपने भगवान को अर्पण कर स्वयं ग्रहण किया। फिर उसने श्रीवैष्णवों के पाने के बाद जो शेष प्रसाद बचा था उसे इकट्ठा कर अपने पती को देती हैं लेकिन स्वयं नहीं पाती हैं। इस पर उसके पती ने उससे पूछा कि ऐसा क्यों तब वह कहती हैं “आपने एम्पेरुमानार को अपने आचार्य रूप में स्वीकार नहीं किया। वों इतनी दूर से हमारे तिरुमाली में पधारे हैं। केवल अगर आप उनको स्वीकार करने का वचन देते हो तो मैं प्रसाद ग्रहण करूँगी”। वों मान जाता हैं और वह प्रसाद पाती हैं। प्रात: काल वह ब्राह्मण एम्पेरुमानार के पास जाकर उनके शरण हो जाता हैं। एम्पेरुमानार उसे निर्देश देते हैं और शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं। एम्पेरुमानार फिर काषाय वस्त्र धारण कर और त्रीदण्ड लेकर वहीं कुछ दिनों तक निवास कर फिर पश्चिम कि ओर यात्रा प्रारम्भ करते हैं।

वों सालग्राम पहुँचते हैं जहाँ जैन और बौद्ध अधीक संख्या में रहते हैं और एम्पेरुमानार कि ओर ध्यान नहीं देते थे। उन्होंने श्रीदाशरथी स्वामीजी को आज्ञा दिये कि गाँव के तालाब पर जाकर अपने पवित्र चरणों को तालाब के जल से धोकर जल को पवित्र करें और जिसने भी वह पवित्र जल को ग्रहण किया वह एम्पेरुमानार की ओर आकर्षित हो गया। श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी ने  एम्पेरुमानार को हीं अपना सर्वस्व मान लिया और आगे जाकर आचार्य निष्ठा के एक महान अदाहरण हो गये। वहाँ से एम्पेरुमानार तोण्डनूर आकर वहाँ विट्ठल देव राय (उस क्षेत्र के राजा) कि बेटी को एक राक्षस से मुक्त किया। वह राजा और उसके परिवार एम्पेरुमानार के शिष्य बन गये और एम्पेरुमानार ने राजा को विष्णु वर्धन राय नाम दिया। यह घटना को सुनकर १२००० जैन विद्वान एम्पेरुमानार से वाद विवाद करने आगये और एम्पेरुमानार ने एक हीं समय उन सभी से वाद विवाद कर और उनके मध्य में एक पर्दा लगाते हैं। पर्दे के पीछे उन्होंने अपना वास्तविक हजार फणों वाले आदिशेष का रूप धारण करके सभी के सवालों का एक साथ जवाब दिया। परास्त हुये कई विद्वान एम्पेरुमानार के शिष्य बन गये और वों उन्हें अपनी महिमा बताते हैं। राजा भी एम्पेरुमानार का गुणगान करता हैं।

इस तरह एम्पेरुमानार तोण्डनूर में निवास करते समय उनका तिरुमण (तिलक करने का पासा) समाप्त हो गया और वें दु:खी हो गये। जब वें विश्राम कर रहे थे श्रीसम्पतकुमार भगवान उनके स्वप्न में आकर कहते हैं “मैं आपक मेलकोटे में इंतजार कर रहा हूँ। यहाँ तिरुमण भी हैं”। राजा के सहायता से एम्पेरुमानार मेलकोटे पधारते हैं और भगवान कि पूजा के लिये जाते हैं। परन्तु दु:खी होकर देखते हैं कि यहाँ तो कोई मन्दिर हीं नहीं हैं। थकावट के कारण वों कुछ समय के लिये विश्राम करते हैं और भगवान फिर से उनके स्वप्न में आकर अपना सही स्थान बताते हैं जहाँ उनको जमीन में रखा गया हैं। एम्पेरुमानार फिर भगवान को जमीन में से बाहर लाकर भगवान को श्रीसहस्रागीति का श्लोक निवेदन करते हैं जिसमें श्रीशठकोप स्वामीजी ने श्रीसम्पतकुमार भगवान के गुणों का वर्णन किया हैं। वहीं उन्हें तिरुमण मिट्टी प्राप्त होती हैं जिससे वों अपने शरीर पर द्वादश तिलक धारण करते हैं। बाद में एम्पेरुमानार पूरे नगर को साफ कर और मन्दिर क पुन: निर्माण करते हैं और भगवान कि सेवा कैंकर्य के लिये कई सेवको की व्यवस्था करते हैं।

उत्सव विग्रह कि कमी के कारण वहाँ उत्सव मनाना बहुत कठीन था। जब एम्पेरुमानार इस विषय पर चिन्तित थे तब भगवान फिर एक बार एम्पेरुमानार स्वप्न में आकर कहते हैं “रामप्रियन (उत्सव मूर्ति) दिल्ली के बादशाह के राजमहल में हैं”। एम्पेरुमानार उसी समय दिल्ली के लिये रवाना होते हैं और राजा से विग्रह को देने को कहते हैं। राजा एम्पेरुमानार को अपनी पुत्री के अंतरंग कक्ष में लाकर विग्रह दिखाते हैं। राजा कि पुत्री को उस विग्रह से बहुत लगाव था और उस विग्रह से बहुत प्रेम भी करती थी। भगवान को देख एम्पेरुमानार बहुत आनंदित हो गये और उस विग्रह को बाहर बुलाते हैं “शेल्वपिल्लै यहाँ आइये”। भगवान उसी समय कूदकर बाहर आकर एम्पेरुमानार के गोद में बैठ गये। यह देखकर राजा बहुत आश्चर्य चकित हुआ और बहुत आभूषण सहित भगवान को एम्पेरुमानार के साथ भेज दिया। राजकुमारी को भगवान कि जुदाई से बहुत दु:ख हुआ और वह एम्पेरुमानार के पीछे पीछे चली जाती हैं। श्रीतिरुनारायणपुरम की सीमा के नजदीक आने पर जिस तरह श्रीगोदाम्बाजी को अपने में समा लेते हैं उसी तरह भगवान ने राजकुमारी को भी अपने में समा लिया। भगवान उन्हें तुलुक्का नाचियार नाम रख और उनकी प्राण प्रतिष्ठा भगवान के चरणकमलों में करते हैं। उसके बाद गर्भगृह में उत्सव विग्रह कि प्रतिष्ठापना कर और वहाँ सभी उत्सव मनाते हैं।

श्रीरंगम में वापसी

इस तरह एम्पेरुमानार ने श्रीतिरुनारायणपुरम में १२ वर्ष तक निवास कर भगवान की कई तरह से कैंकर्य करते हुये कई श्रीवैष्णवों को श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में विकसित कर लालन पालन किया। वें श्रीरंगम से मारुती सिरियाण्डान के द्वारा समाचार पाते हैं कि शैव राजा का देहान्त हो गया हैं जिससे वें बहुत आनंदित हुये। वों श्रीरंगम वापिस जाने का विचार करते हैं। उनके शिष्य स्वामीजी के श्रीरंगम लौटने के समाचार से दु:ख रूपी समुद्र में डूब जाते हैं। एम्पेरुमानार उन्हें सांत्वना देते हैं और समझाते हैं और उनकी इच्छा पूर्ति के लिये अपने स्वयं की एक विग्रह वहाँ स्थापना करने को मान जाते हैं। यह वहीं प्रसिद्ध विग्रह हैं जो “तामर उगन्ध तिरुमेनी” नाम से जानी जाती हैं। फिर वों श्रीतिरुनारायणपुरम को छोड़ श्रीरंगम पहुँचते हैं। वों श्रीरंगनायकि अम्माजी और श्रीरंगनाथ भगवान का मंगलाशासन कर श्रीरंगम से हीं अपने सम्प्रदाय का पोषण करते हैं।

श्रीरंगम में श्रीरंगनाथ भगवान का मंगलाशासन कर स्वामीजी मन्दिर का भ्रमण कर अन्य श्रीवैष्णवों के साथ श्रीकुरेश स्वामीजी के तिरुमाली पहुँचते हैं। श्रीकुरेश स्वामीजी पूर्ण भक्ति के साथ एम्पेरुमानार के चरण कमलों में गिर जाते हैं। दिव्य चरण कमलों को पकड़कर वहीं रुक जाते हैं। एम्पेरुमानार उन्हें उठाते हुए उनका अत्याधिक तीव्र भावना से आलिंगन कर अत्यन्त दु:खी होकर श्रीकुरेश स्वामीजी की ओर देखकर जिन्होंने अपने नेत्र गंवा दिये थे अचम्बित हो गये। नेत्रों में आँसू भरकर अपने लड़खड़ाती वाणी से श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीकुरेश स्वामीजी से कहते हैं “अपने सम्प्रदाय के लिये आप ने अपने नेत्र को गंवा दिये हैं” तब श्रीकुरेश स्वामीजी  विनम्रता से उत्तर दिया कि “यह केवल मेरे अपचारों का परिणाम हीं हैं” और एम्पेरुमानार सांत्वना देकर कहते हैं “आप कैसे कोई अपचार कर सकते हो? यह मेरे अपचार का परिणाम हैं जिसके लिये यह हुआ”। अन्त में सभी एक दूसरे को स्थिर करते हैं और उडयवर अपने मठ को लौटते हैं।

इस समय कुछ श्रीवैष्णव उडयवर के पास आकर यह सूचना देते हैं कि तिरुच्चित्रकूतम (जिसे अब चिदम्बरम नाम से जाने जाते है) का मन्दिर शैवों ने ध्वंस कर दिया हैं। उन्हें यह पता चला कि उत्सव विग्रह को सुरक्षता से तिरुपती लाया गया हैं। उसी समय वें तिरुपती चले गये और वहाँ श्रीगोविन्दराज भगवान का मन्दिर बनवाने का आदेश दिया और तिरुच्चित्रकूतम के श्रीगोविन्दराज भगवान की हूबहू मूर्ति बनवाकर उनकी प्राणप्रतिष्ठा करवाते हैं। वहाँ से तिरुमला जाकर श्रीवेंकटेश भगवान का मंगलाशासन कर श्रीरंगम कि ओर यात्रा प्रारम्भ करते हैं। राह में कांचीपुरम में श्रीवरदराज भगवान का मंगलाशासन कर श्रीरंगम लौटते हैं। उडयवर श्रीरंगम से हीं सम्प्रदाय के कैंकर्य में अग्रसर रहते हैं।

कुछ समय बाद उडयवर श्रीकुरेश स्वामीजी को बुलाकर श्रीवरदराज भगवान कि स्तुति करने को कहते हैं जो उनकी सभी प्रार्थना पूर्ण करते हैं और उन्हें आज्ञा देते हैं कि श्रीवरदराज भगवान से अपनी दृष्टी वापिस मांगे। श्रीकुरेश स्वामीजी हिचकिचाते हैं परन्तु उडयवर उन्हें ज़बरदस्ती ऐसा करने को कहते हैं। श्रीकुरेश स्वामीजी वरदराज स्तवं की रचना कर अन्त में प्रार्थना करते हैं कि वें भगवान को अपने आन्तरिक दृष्टी से देख सके। भगवान खुशी से उनकी यह इच्छा पूर्ण करते हैं और श्रीकुरेश स्वामीजी उडयवर को यह समझाते हैं। उडयवर इससे संतुष्ट नहीं होते हैं और श्रीकुरेश स्वामीजी को कांचीपुरम साथ लाकर श्रीवरदराज भगवान के समक्ष श्रीवरदराज स्तवम को पुन: पठन करने को कहे। उडयवर अन्य दूसरे कैंकर्य के लिये चले जाते हैं और तब तक श्रीकुरेश स्वामीजी स्तुति कर देते हैं। श्रीवरदराज भगवान श्रीकुरेश स्वामीजी से उनकी इच्छा पूछते को कहते हैं और श्रीकुरेश स्वामीजी कहते हैं “नालूरान को भी वहीं लक्ष्य प्राप्त हो जो मुझे प्राप्त होगा” और श्रीवरदराज भगवान मान जाते हैं। उडयवर वापिस आते हैं और यह सुनते हैं तो श्रीवरदराज भगवान और श्रीकुरेश स्वामीजी से नाराज हो जाते हैं और दोनों पर उनकी इच्छा न पूर्ण करने के लिये क्रोधित हो जाते हैं। तब श्रीवरदराज भगवान श्रीकुरेश स्वामीजी को आर्शिवाद प्रदान करते हैं जिससे वह श्रीवरदराज भगवान और उडयवर का दर्शन कर सके। श्रीकुरेश स्वामीजी के इस आर्शिवाद से श्रीवरदराज भगवान का दिव्य शृंगार, गहने आदि का दर्शन कर उडयवर को बताते हैं और इससे उडयवर को संतुष्टी हुई।

कोइल अण्णर होना (गोदाग्रज बनना)

जब उडयवर नाचियार तिरुमोझी पर प्रवचन दे रहे थे तब उन्होंने “नारु नरूम पोझील” पाशुर का अर्थ समझा रहे थे जहाँ श्रीगोदम्बाजी इच्छा प्रगट करती हैं कि वह श्रीसुन्दरबाहु भगवान को १०० घड़े क्षीरान और १०० घड़े माखन का भोग लगाये। उडयवर तुरन्त तिरुमालीरूंशोले दिव्य देश कि ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ करते हैं और श्रीगोदम्बाजी कि इच्छानुसार भोग निवेदन करते हैं। वहाँ से वें श्रीविल्लिपुत्तुर पधारकर श्रीगोदम्बाजी और श्रीरंगनाथ भगवान का मंगलाशासन करते हैं। उडयवर के इस कार्य से श्रीगोदम्बाजी बहुत प्रसन्न होकर कहती हैं यह कार्य एक भाई हीं कर सकता हैं और आनंदित होकर श्रीरंगम से मेरा बड़ा भाई (“नम कोइल अण्णर”) कहती हैं। वहाँ से वें आलवारतिरुनगरी में आकर श्रीशठकोप स्वामीजी और आदिनाथ भगवान का मंगलाशासन कर श्रीरंगम लौटते हैं और श्रीसम्प्रदाय का कैंकर्य सुचारु रूप से करते हैं।

श्रीरामानुज स्वामीजी के शिष्य

उनके कई शिष्य थे और उन्होंने ७४ सिंहाधिपती (आचार्य जो सम्प्रदाय को आगे लेकर जायेंगे और उसके तत्त्वों को सभी को सीखायेंगे) कि स्थापना भी किए। उनके समय कई श्रीवैष्णव कई कैंकर्य में निरत थे।

  • श्रीकुरेश स्वामीजी, श्रीदाशरथी स्वामीजी, श्रीनदाधूर स्वामीजी, श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी, आदि श्रीभाष्य का प्रचार करने में सहयोग करते थे।
  • श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के निजी अर्चाविग्रह का तिरुवाराधन करते थे।
  • श्रीप्रणतार्तिहराचार्य और उनके अनुज रसोई कि व्यवस्था संभालते थे।
  • श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के उपयोग में आनेवाला तेल को बनाते थे।
  • श्रीगोमठवंशावतंश श्रीबालाचार्य श्रीरामानुज स्वामीजी के पात्र और चरणपादुका को साथ लेकर चलते थे।
  • श्रीधनुर्दासस्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के आभूषण, आदि कि व्यवस्था देखते थे।
  • श्रीअमंगी स्वामीजी के लिये दूध कि सेवा करते और श्रीउत्कलाचार्य प्रसाद वितरण में सहायता करते थे।
  • श्रीउक्कलम्माल स्वामीजी के लिये पंखी सेवा कैंकर्य करते थे।
  • श्रीमारुतीप पेरियाण्डान स्वामीजी के छोटे पात्रों को सम्मालते थे।
  • श्रीउत्कल वरदाचार्य मठ के लिये किराना की व्यवस्था करते थे।
  • श्रीतूय मुनि वेझम स्वामीजी के लिये पवित्र जल लाने की सेवा करते थे।
  • श्रीतिरुवरंगामालिगैयार मठ के भण्डार की व्यवस्था करते थे।
  • चण्ड और शुण्ड (श्रीधनुर्दासस्वामीजी के भतीजे) राज दरबार में राजा कि सेवा कर और वही धन मठ के सेवा रूप में दे देते।
  • श्रीइरामानुस वेलैक्कार्र श्रीरामानुज स्वामीजी के अंगरक्षक कि सेवा करते थे।
  • श्रीअगलंगा नात्ताझ्वान अन्य विद्वानों से वाद विवाद करते थे।

उनकी महिमा को कइयों ने बताया

श्रीरामानुज स्वामीजी कि महिमा को श्रीरंगनाथ भगवान, श्रीवेंकटेश भगवान, श्रीवरदराज भगवान, श्रीसम्पतकुमार भगवान, श्रीअझगर, तिरुक्कुरुंगुड़ी नम्बी, श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीनाथमुनि स्वामीजी, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी, श्रीमहापूर्ण स्वामीजी, श्रीगोष्टीपूर्ण स्वामीजी, श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी, श्रीमालाकार स्वामीजी, श्रीवररंगाचार्य स्वामीजी, उनके कई शिष्य, ब्रह्म राक्षस और मूक व्यक्ति ने बताया हैं।

इसे हम अब संक्षेप में देखेंगे।

  • श्रीरंगनाथ भगवान (श्रीरंगम) ने श्रीरामानुज स्वामीजी को दोनों (अध्यात्मिक और भौतिक) संसार का प्रदान बनाया और जिसे अपने अनुयायी को बाँटने की पूरी छूट दिये।
  • श्रीवेंकटेश भगवान (तिरुमला तिरुपती) ने श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीरंगनाथ भगवान द्वारा श्रीरामानुज स्वामीजी को प्रदान की गई उपाधि को फिर से स्थापित कर उन्हें “उडयवर” कहा। श्रीरामानुज स्वामीजी ने तुम्बैयूर्क कोण्डी जो श्रीरामानुज स्वामीजी की आज्ञा से दही बेचती थी को मोक्ष प्रदान किया।
  • श्रीवरदराज भगवान (कांचीपुरम) श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीयज्ञमूर्ति को परास्त करने में सहायत की और श्रीयादवप्रकाश (जो पहिले दूसरे सिद्धान्त के थे और श्रीरामानुज स्वामीजी उनके शिष्य थे) को उडयवर का शिष्य बनकर सन्यासाश्रम ग्रहण करने की आज्ञा दिये।
  • श्रीसम्पत कुमार भगवान उडयवर को मेलकोटे को एक दिव्य क्षेत्र बनाने दिया आर उनके प्रिय पुत्र बनकर श्री सेल्वाप पिल्लै (उत्सव मूर्ति) को पहचान कर आलिंगन करने दिया।
  • श्रीअळगर (तिरुमालीरुंचोलै) श्रीरामानुज स्वामीजी की महानता को दो प्रसंगों से उजागर करते हैं। एक बार भगवान ने कहा कि श्रीरामानुज स्वामीजी के जीतने भी आत्मीय हैं वें मेरे सन्निधी में आये। सभी श्रीवैष्णव आये किन्तु श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के परिजन नहीं आये। भगवान ने जब नहीं आने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि आप ने श्रीरामानुज स्वामीजी के आत्मीय शिष्यों को बुलाया है, लेकिन हम तो नीच (अनाहुत) हैं। तब भगवान ने कहा कि आप भी गुरु परम्परा में हीं हैं। और श्रीकिदाम्बी आच्छान से कहा कि जो लोग श्रीरामानुज स्वामीजी के शरण में आते हैं वें कभी अनाथ नहीं होते हैं।
  • श्रीतिरुक्कुरुंगुड़ी नम्बी ने श्रीरामानुज स्वामीजी को आचार्य रूप में स्वीकार किया और श्रीवैष्णव नम्बी के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
  • श्रीशठकोप स्वामीजी इस संसार में दु:खी जनों को देख बहुत दु:खी हो गये परन्तु जब उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी का प्रार्दुभाव का पूर्वानुभाव किया तो खुशी से “पोलिग! पोलिग! पोलिग!” गाया।
  • श्रीनाथमुनि स्वामीजी ने कहा “यदि हम शिक्षा देंगे तो कुछ लोगों को सहायता होगी लेकिन अगर श्रीरामानुज स्वामीजी शिक्षा देते हैं तो सभी को फायदा होगा जैसे वीर नारायणपुरम का तालाब गाँव में सभी को फायदा देता हैं”।
  • श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी को “आम मूधल्वन” (अपने सम्प्रदाय के योग्य आचार्य) घोषित करते हैं।
  • श्रीमहापूर्ण स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी को उनकी महानता को देख साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया हालाकि दोनों में आचार्य शिष्य सम्बन्ध था।
  • श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी ने उन्हें “एम्पेरूमानार” (भगवान से बड़े) कि उपाधि दी जब उन्हें ज्ञात हुआ कि रामानुज स्वामीजी ने गोपनीय मन्त्रार्थ को जिन्हे सीखने कि इच्छा हैं उन सभी को बताया।
  • श्रीमालाधर स्वामीजी का श्रीरामानुज स्वामीजी के साथ कुछ मतभेद था। एक बार उन्हें एम्पेरूमानार कि महानता का अहसास हुआ तो उन्होंने उनकी बहुत प्रशंसा की और उनके पुत्र को एम्पेरूमानार का शिष्य बनने कि आज्ञा दिये।
  • श्रीमालाकार स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी को “आचार्य अभिमान” के विषय में गोपनीय शिक्षार्थ विषयों के बारे में समझाया और अपने पुत्र को श्रीरामानुज स्वामीजी का शिष्य बनने कि आज्ञा दिये।
  • उडयवर के शिष्यों ने स्वामीजी के चरण कमलों में शरणागति की और उन्हें हीं उपाय और उपेय माना।
  • श्रीरंगामृत स्वामीजी ने रामानुज नूत्तन्दादि कि रचना किये जो बाद में ४००० दिव्य प्रबन्ध पाठों का एक विशेष अंग बन गया हैं।
  • राजकुमारी के शरीर में जो ब्रह्म राक्षस था उसने श्रीयादवप्रकाशाचार्य की ओर ध्यान न देकर श्रीरामानुज स्वामीजी को नित्यसुरीयों का मुखिया बताया।
  • एक गुंगा जिस पर उडयवर ने कृपा कि और जो कई वर्षो तक अंर्तध्यान हो गया, कई वर्षों के पश्चात आकर कहा “उडयवर और कोई नहीं स्वयं विश्वक्सेन भगवान हैं”। वों फिर अंर्तध्यान हो गया।
  • इस तरह कई महान हस्तियों ने श्रीरामानुज स्वामीजी कि महानता को उजागर किया हैं।

श्रीनाथमुनि स्वामीजी से लेकर कई आचार्य हैं, उडयवर विशेष महान क्यों हैं? क्योंकि –

  • हालाकि कई अवतार हुये जैसे श्रीराम, श्रीकृष्ण विशेष माने जाते हैं – उन्होंने लोगों को शरण देना, गीता, आदि का उपदेश दिया हैं।
  • हालाकि कई दिव्यदेश हैं लेकिन श्रीरंगम, तिरुपती, कांचीपुरम और मेलकोटे को विशेष स्थान है क्योंकि वहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी के साथ विशेष सम्बन्ध हैं।
  • हालाकि कई सन्त हुए है जैसे वेद व्यास, पराशर, सौनका, शुख, नारद भगवान, आदि हुये सभी विशेष हैं क्योंकि वेदों, वेदान्त, पुराण और इतिहास आदि का प्रकाशन किया हैं।
  • हालाकि कई आल्वार हुये है लेकिन श्रीशठकोप स्वामीजी विशेष हैं क्योंकि उन्होंने सत्य, सिद्धांत, आदि का प्रकाशन किया हैं।
  • उसी तरह उडयवर विशेष हैं क्योंकि उन्होंने इन सभी पहलू पर अपना योगदान देकर अपने सिद्धान्तों और सम्प्रदाय को एक मजबूत नींव प्रदान की हैं। आगे सम्प्रदाय की उन्नती कि राह स्पष्ट कर दिये हैं।

उनके जीवन के अन्तिम दिन

उड़यवर के सभी शिष्य उनके आचार्य निष्ठा के कारण अपने आचार्य के चरण कमलों के प्रति विश्वसनीय थे और क्योंकि एम्पेरूमानार श्रीशठकोप स्वामीजी के हीं चरण कमल है और श्रीशठकोप स्वामीजी ने स्वयं श्रीसहस्रगीति के “पोलिग पोलिग पोलिग” के पाशुर में एम्पेरूमानार के अवतार होने कि घोषणा किये थे। और उड़यवर को श्रीशठकोप स्वामीजी का हीं शिष्य माना गया है क्योंकि उन्होंने आल्वार के श्रीसहस्रगीति के अनुसार हीं हमारे सम्प्रदाय कि स्थापना किये है। उन्हें श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी का भी शिष्य माना जाता हैम क्योंकि उन्होंने श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के हृदय कि बात को स्पष्ट रूप से समझा था और उनकी इच्छा को पूर्ण भी किये हालाकि वों दोनों एक दूसरे से सभी भी नहीं मिले थे।

जब उड़यवर श्रीरामायण से शरणागति के तत्त्व को श्रीविभीषण शरणागति कि घटना को समझा रहे थे तो पिल्लै उरंगा विल्ली धासर स्वामीजी व्याकुल हो गये। उड़यवर ने यह देखा और धासर से पूंछा आप इतने परेशानी में क्यों है। धासर ने कहा “अगर विभीषण जो सब कुछ त्याग कर भगवान राम के शरण में आया उसे भी स्वीकार करने से पूर्व रुकाया गया तो हमारी क्या गति हैं? क्या हमें मोक्ष मिलेगा?”। उड़यवर उत्तर देते हैं “सुनो पुत्र! अगर मुझे मोक्ष कि प्राप्ति होगी तो तुम्हें भी होगी; अगर श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को होगी तो मुझे भी होगी; अगर श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी को होगी तो श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को भी होगी और यह सिलसिला श्रीशठकोप स्वामीजी तक चलेगा क्योंकि उन्होंने श्रीसहस्रगीति में स्वयं को मोक्ष प्राप्त होने कि घोषणा कर चुके थे” और धासर को शान्त करते हैं।

दिव्य प्रबन्ध श्रीरामानुज नूत्तन्दादि में श्रीअमूधनार ने यह स्थापित किया कि हमें मोक्ष केवल एम्पेरूमानार हीं प्रदान कर सकते है और उनकी और उनके भक्तों कि सेवा करना हमारे जीवन का एक मात्र लक्ष्य हैं।

श्रीदाशरथी स्वामीजी एम्पेरूमानार से उनकी एक प्रतिमा बनाने के लिये प्रार्थना करते हैं जिसे उनके जन्म स्थान भूतपूरी में प्रतिष्ठापन करेंगे ताकि भविष्य में भी सभी उनकी पूजा कर सकेंगे। एम्पेरूमानार से आज्ञा प्राप्त होने के पश्चात एक सुन्दर प्रतिमा एक भक्त शिल्पकार द्वारा बनायी गई। श्रीरंगम में एम्पेरूमानार के पूर्ण संतुष्टी होने तक प्रतिमा बनायी गयी जिसे उन्होनें छाती से लगाया और भूतपूरी भेजा जिसे गुरु पुष्य के दिन प्रतिष्ठापना किया गया।

श्रीरामानुज स्वामीजी इस तरह आनंद दायक जीवन १२० वर्ष तक बिताये। वों इस संसार को छोड़ नित्यसूरीयों के सात परलौकिक संसार जाने कि हठ किये। वों श्रीरंगनायकि अम्माजी के माध्यम से श्रीरंगनाथ भगवान के पास जाते हैं और गध्यत्रय का अनुसन्धान करते है और श्रीरंगनाथ भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें तुरन्त इस संसार के बन्धन से मुक्त कर दे। श्रीरंगनाथ भगवान फिर एम्पेरूमानार को आज से ७वें दिन इस संसार से मुक्त करने कि स्वीकृति प्रदान करते हैं और यह बात उन्हें सूचित करते हैं। एम्पेरूमानार श्रीरंगनाथ भगवान से एक विणति करते हैं कि “सभी जन जो भी मुझसे कैसे भी जुड़ा है उसे आप मुझे जो लाभ प्रदान करेंगे वों हीं लाभ देंगे” और भगवान खुशी से मान जाते हैं। उडयवर श्रीरंगनाथ भगवान से विदा लेकर शानदार ढंग से बाहर आकर और मठ पहुँचते हैं। इसके बाद ३ दिनों तक अपने शिष्यों पर सुन्दर अर्थों कि बारीश करते हैं और वें सब विस्मित हो जाते है कि “क्यों स्वामीजी तुरन्त इतने सुन्दर दिशा निर्देश हम सब को दे रहे हैं?”। इस रहस्य को ओर अधिक गुप्त न रख एम्पेरूमानार दयापूर्वक कहते है कि “मैं आज से ४ते दिन परमपद कि ओर प्रस्थान का विचार कर रहा हूँ और भगवान ने भी इसकी स्वीकृति दे दिये हैं”। यह सुनते हीं शिष्यगण सभी टूट जाते हैं और जैसे हीं उडयवर उन्हें छोड़ चले जायेंगे वों भी इस संसार को छोड़ देंगे। उडयवर कहते हैं “अगर आप ऐसे करोगे तो आप मुझसे सम्बंधित नहीं रहोगे और इसलिये आप ऐसा नहीं कर सकते हो” और उन्हें सांत्वना दिते  है।

फिर से एम्पेरूमानार सभी को बहुमूल्य दिशा निर्देश प्रदान करते हैं और अपने कई शिष्यों को कई कार्यों के लिये नियुक्त किये। उन्होंने सभी को श्रीकुरेश स्वामीजी के प्रिय पुत्र श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को पूर्ण सहयोग देने कि आज्ञा किये। वों फिर उनसे जो भी गलती हुई हो उसके लिये क्षमा याचना मांगे और फिर अपनी अन्तिम निर्देश दिये। वों मुख्यता कहते है कि एक दूसरे के गुणों कि सराहना करें और भाई कि तरह एक दूसरे से हाथ मिलाकर कार्य करें। वों सभी को कैंकर्य पर ध्यान देने को कहते हैं नाकी कार्य के बदले में कुछ पाने कि इच्छा रखना। वों श्रीवैष्णवों कि ओर वैर भावना न करना और सांसारिक जनों कि स्तुति न करने का महत्त्व दर्शाते हैं।

श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को श्रीरंगनाथ भगवान कि सन्निधी में लाकर तीर्थ और अन्य सम्मान प्रदान कर अन्य को कहते है कि मेरे पश्चात श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी हीं सम्प्रदाय को आगे लेकर जायेंगे। वों श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को आज्ञा देते है कि मेलुकोटे जाकर वेदान्त को सुधारे (जो आगे जाकर नञ्जीयर (श्रीवेदांती स्वामीजी) के नाम से प्रचलित हुए)। बड़े आचार्य होने के कारण शिष्य भट्टर उनके सात रहने कि आग्ना देते हैं।

परमपद प्रस्थान करने के दिन वों अपना नित्यानुष्ठान कर्म करते हैं जैसे स्नान करना, १२ ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया, संध्यावन्दन आदि, अपने भगवान का तिरुवाराधन किया, गुरुपरम्परा का स्मरण किया, पद्मासन में विराजमान हो गये, परवासुदेव पर ध्यान केन्द्रीत किया और श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के पवित्र रूप को स्मरण किया, लेटकर, अपनी आँखे खोल, अपना सिर श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी के गोद में रखा और अपने पवित्र चरणों को श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी के गोद में रखकर दीप्तिमान रूप जो आदिशेष रूप में था परमपद के लिये प्रस्थान किये। यह देख उनके सभी शिष्य जमीन पर गिर गये जैसे बिना जड़ के पेड़, और रोने लगे। कुछ समय बाद स्वयं को सान्त्वना दिया। श्रीरंगनाथ भगवान उनकी कमी (और परमपदनाथ के लाभ) को जानकार उदास हो गये और पान ताम्बूल पाने से इन्कार कर दिया। वों फिर अपने सभी सामाग्री को उत्तम नम्भी के जरिये भेजते हैं। मठ में एम्पेरुमानार के विमला चरम तिरुमेनी को स्नान कराया गया, १२ ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाया गया और सभी उपचार जैसे दीप, धूप, आदि अर्पण किया गया। पिल्लान जो एम्पेरुमानार का अभिमान पुत्र था अन्तिम पवित्र क्रिया को किये। श्रीरंगम के श्रीवैष्णव इस अन्तिम यात्रा को बड़े धूम से करते है और उपनिषद, दिव्य प्रबन्ध का अनुसन्धान करते हैं, बाजा और वाध्य भी बजाते हैं, अरैयर सेवा, स्तोत्र का अनुसन्धान, पुष्प और बुने हुए चावल को गलियों के राह पर फेंका जहाँ से अन्तिम यात्रा होनी हैं। श्रीरंगनाथ भगवान की आज्ञानुसार एम्पेरुमानार को श्रीरंगनाथ भगवान के वसंत मण्डप में यति संस्कार विधि से रखा गया। फिर श्रीदाशरथी स्वामीजी श्रीरंगनाथ भगवान कि आज्ञानुसार एम्पेरुमनार कि विशेष विग्रह को ऊपर जलाते हैं।

फिर कई श्रीवैष्णवों को यह दु:ख का समाचार प्राप्त हुआ और उन्हें बहुत पीड़ा हुई। कुछ तो यह सुनते हीं उनसे बिछड़ना सहन न कर अपने प्राणों का त्याग दिये। जो श्रीरंगम आये श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को देख आनंदित हो गये।

इस तरह एम्पेरुमानार सभी के उज्जीवन के लिये अपना जीवन व्यतित किया। कोई भगवान कि किर्ति को समझा सकता हैं परन्तु एम्पेरुमानार कि किर्ति को कोई नहीं समझा सकता हैं। एम्पेरुमानार के सहस्राब्दी उत्सव  में रहकर हमने उनके जीवन और स्तुति का अनुभव किया हैं। यह अनुभव हमारे हृदय में निरन्तर रहे और अपने आलवर और आचार्य के इच्छानुसार रामानुज दास बनकर रहे।

श्रीमन महाभूतपुरे श्रीमत केशव यज्वन:
कान्तीमध्याम प्रसूधाय यतिराजाय मंगलम:  

श्रीमते रम्यजामातृ मुनीन्द्राय महात्मने
श्रीरंगवासिने भूयान्नित्य श्री नित्य मंगलम

अडियेन सपना राजेन्द्र लड्डा रामानुज दासि
अडियेन रघुनाथ रांदड रामानुज दासन्

आधार – https://granthams.koyil.org/2017/04/sri-ramanuja-vaibhavam/

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

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