श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः
“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9” पर हिन्दी में देख सकते है।
<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – २८
६३) दास्य विरोधी – दासत्व में बाधाएं
श्रीरामानुज स्वामीजी और श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी – दास्य भाव के आदर्श उदाहरण। श्रीरामानुज स्वामीजी जो स्वयं आदि शेष अवतार है, वे दासत्व के श्रेष्ठ उदहारण है. श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति उत्तम सेवक के प्रत्यक्ष उदाहरण है।
दास्य का अर्थ पूर्णत: नियंत्रण में रहना – अर्थात स्वामी की सेवा में रहना। यहाँ यह समझाया गया है कि हम सभी जन भगवान श्रीमन्नारायण के सेवक हैं जो सभी के स्वामी हैं। “दास भूता: स्वतस्सर्वे ही आत्मन: परमात्मन:” यह शास्त्र में से एक मुख्य और प्रामाणिक प्रमाण है – इसका अर्थ सभी जीवात्मा परमात्मा के स्वाभाविक सेवक हैं जो सर्वस्वामी हैं – यहाँ “ही” का अर्थ प्रसिद्ध है। हमारी भगवान के प्रति सेवा निर्हेतुक और जीवात्मा और परमात्मा के मध्य नित्य सम्बन्ध पर आधारित है। इस संसार में दूसरों के प्रति हमारी सेवा औपाधिक है (एक विशेष कारण पर आधारित है जैसे हमारा कर्म हमें एक निश्चित जन्म/ सम्बन्ध की ओर ले जाता है और हम इस सम्बन्ध के कारण सभी की सेवा करते हैं)। भगवान के प्रति हमारी सेवा दो प्रकार की हैं “स्वरूप पर्युक्त दास्य” और “गुण कृत्य दास्य”। “स्वरूप पर्युक्त दास्य” का अर्थ है जीवात्मा की भगवान के प्रति सेवा जो परमात्मा के साथ नित्य सम्बन्ध के कारण है, क्योंकि केवल भगवान स्वामी हैं और जीवात्मा स्वाभाविक सेवक है, जीवात्मा भगवान की सेवा करता है। “गुण कृत्य दास्य” का अर्थ जीवात्मा का भगवान के कई शुभ गुणों के कारण उनकी सेवा करना (सामान्यता जब भी किसी के पास दया, सौन्दर्य, सुन्दरता, ज्ञान, धन, बल, आदि गुण हो तो उनकी सेवा करना सब चाहेंगे)। हम में दोनों तरह के दास्य विद्यमान हैं। क्योंकि भगवान हमारे नित्य स्वामी हैं हम उनकी सेवा करते हैं और क्योंकि उनके पास कई शुभ गुण हैं हम उनकी सेवा करते हैं। फिर भी स्वरूप पर्युक्त दास्य होना अधिक प्रधान और मुख्य है, क्योंकि यह जीवात्मा के लिये सामान्य है। अनुवादक टिप्पणी: इस दास्य तत्व को हमारे पूर्वाचार्यों ने बड़े विस्तार से समझाया है। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने श्रीसहस्रगीति के ईडु महा व्याख्यान के पाशुर में बड़े विस्तार से समझाया है। इस पाशुर में श्रीपरांकुश नायकी की सहेली उनका ध्यान एक क्षण के लिये भगवान से दूर करने के लिये कहती हैं कि “भगवान कृष्ण बहुत बुरे, निर्दयी, आदि है” और देखती है कि कैसे उसे भगवान से बिछड़ने से दुख होता है। परंतु यह सुनते ही श्रीपरांकुश नायकी (श्रीशठकोप स्वामीजी स्त्री भाव में) अपनी सखी से कहती है अगर वो ऐसे भी हैं तो भी वह उन्हीं से प्रेम करेंगी क्योंकि यह उनका स्वभाव है। इस व्याख्या में श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी स्वरूप पर्युक्त दास्य का तत्व विस्तार से समझाते हैं। श्रीरामायण से एक उदाहरण देते हैं कि जब माता सीता माता अनुसुया (श्रीगौतम महर्षि कि धर्म पत्नी) से मिलती हैं तो उनसे कहती हैं कि अगर भगवान श्रीराम इतने महान न होते तो भी वह उनसे इतना और इसी तरह प्रेम करती – क्योंकि यह उनके लिये स्वाभाविक है। श्रीपरकाल स्वामीजी ने भी पाशुर में इसे सुन्दरता से कहा है “वेम्बिन पुलु वेम्बनरी उण्णातु” – एक कीट जिसका जन्म नीम के फल में हुआ है वह बाहर जाकर गन्ने के रस के लिये तलाश नहीं करेगा – यद्यपि नीम कड़वा और गन्ने का रस मीठा है। वह कीट उसके और नीम के मध्य के सम्बन्ध के कारण नीम के फल को ही पायेगा। यही ही तत्व श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के १०८ से ११४वें सूत्र में समझाते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने प्रवचनों में इन सूत्रों की व्याख्या से इतनी सुन्दरता से अपने पूर्वाचार्यों के तत्व को बताया है। इस प्रस्तावना के साथ हम इस भाग में आगे बढ़ते हैं।
- स्वयं को स्वतन्त्र मानना और उस पर अभिमान करना बाधा है। यह बहुत बड़ी बाधा है। हमें यह समझना चाहिये कि हम पूर्णत: भगवान पर हीं निर्भर हैं। अनुवादक टिप्पणी: श्रीपिल्लैलोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पड़ी के ८३ और ८४वें सूत्र में इस तत्व को बड़ी सुन्दरता से तिरुमन्त्र में “नम:” विषय द्वारा समझाते हैं। वे कहते हैं “नम:” (न मम – मेरे लिये नहीं) यह दिखाता है कि कोई भी स्वयं के लिये नहीं है परन्तु भगवान के प्रगट होने के लिये है। वो यह भी पहचानता है कि जब भी कोई स्वयं को दूसरे देवता का सेवक समझता है तो भगवान बड़ी आसानी से उसे अपनी प्रधानता, शुभ गुण, आदि बताते हैं और जीवात्मा को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। परन्तु जब कोई पूर्णत: अपने को स्वतन्त्र मानता हैं तो वह अपना मुलभुत शिक्षण शेषत्व को सिद्ध करने के लिये खो देता है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी “त्वमे” (तुम मेरे हो) और “अहमे” (मैं मेरा हूँ) क्रम को बड़ी सुन्दरता से दर्शाते हैं। जब भगवान कहते हैं “तुम मेरे हो” और जीवात्मा कहता है “मैं मेरा हूँ” तब भगवान इस स्थिति में घबरा जाते हैं, अचरज करते हैं कि इस जीवात्मा को ऊपर कैसे उठाऊँ।
- भगवान श्रीमन्नारायण और भागवतों को छोड़ अन्य किसी का सेवक होना मूल्यहीन है, यह बाधा है। यहाँ पर विशेषकर देवतान्तरों के भजनो पर ध्यान केन्द्रीत है – श्रीवैष्णव को कभी भी अन्य देवताओं की सेवा में नहीं लगना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: हमारा सच्चा मूल्य तो भगवान और भागवतों की सेवा पर ही आधारीत है। श्री गोदाम्बाजी नाच्चियार तिरुमोलि में यह समझाती हैं “वानिडै वालुम अव्वानवरक्कु मरैयवर वेल्वियिल वगुत्त अवि कानिडैत्तिरिवदोर नरि पुगुन्दु कडप्पदुम मोप्पदुम शेय्वदोप्प ऊनिडै आलि शङ्गुत्तमरक्केन्रु उन्नित्तेलुन्द एन तड मुलैगल मानिडवरक्केन्रु पेच्चुप्पडिल वालगिल्लेन कण्डाय मन्मदने” – जब ब्राह्मण यज्ञ करते हैं तो वे देवताओं के लिये भेंट तैयार करते हैं और स्वयं रख लेते हैं – और अगर कोई जंगली लोमड़ी उस भेंट को छूले तो वह मूल्यहीन हो जाता है। उसी तरह मेरे द्वारा प्रगट की हुई भक्ति विशेषकर भगवान श्रीमन्नारायण के लिये ही प्राप्य है – यदि यह चर्चा होती है कि मेरी भक्ति दूसरे के लिये है तो उसी क्षण मैं अपना प्राण दे दूँगा। इसी तरह का विषय श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी द्वारा मुमुक्षुप्पडि के ६२वें सूत्र में समझाया गया है “देवर्गलुक्कु शेष्मान पुरोडासत्तै नाय्क्कु इडुमापोले, ईश्वर शेष्मान आत्म वस्तुवै संसारीगलुक्कु शेष्माक्कुगै” – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं कि जिसप्रकार जो भेंट पूजनीय देवताओं के लिये है अंततः कुत्ते को दी जाती है (जिसे सामान्यतया देखना और छूना भी नहीं चाहिये), उसीप्रकार जीवात्मा (जो भगवान का हैं) वह संसारियों की सेवा में लगा है (जो देवतान्तर, आदि हैं – जो भी इस संसार में हैं और अपने सच्चे स्वभाव को न जानते हुये है संसार के सुख भोगने में लगा है ऐसे संसारी) । अत: हमारे पूर्वाचार्यों ने हमें सचेत किया है कि हमें देवतान्तर से सम्बंधित कार्य को नहीं करना चाहिये जिसका हमारे स्वरूप पर विपरीत प्रभाव पड़े।
- अपने वर्णानुसार स्वयं को किसी देवतान्तर का सेवक मानना बाधा है। सभी जीवात्मा केवल भगवान श्रीमन्नारायण के ही सेवक हैं। सभी वर्णों में कुछ भी भेद भाव नहीं है। अनुवादक टिप्पणी: यह एक मनोहर पहलू है। वार्ता माला के ४५०वें प्रवेश में श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीदाशरथी स्वामीजी को श्रीवैष्णव यज्ञोपवित से साथ और श्रीवैष्णव बिना यज्ञोपवित के साथ को समझाते हैं। वें दोनों श्रीवैष्णव वर्गों में १० अन्तर बताते हैं। खासकर अन्तर का केन्द्र उन यज्ञोपवित धारण श्रीवैष्णव के बारें में हैं जिन्हें वेद की शिक्षा लेनी पडती है और नित्य/नैमितिक कर्म करना पड़ता है जिसमें देवतान्तर सम्बन्ध (इन्द्र, वरुण, वायु, सूर्य, आदि) और सात्ताध्य शामिल है (जो यज्ञोपवित धारण नहीं करते हैं)। श्रीवैष्णवों का वेदों से प्रत्यक्ष कोई प्रयोजन नहीं हैं और वे पूर्णत: दिव्यप्रबन्ध और उसके व्याख्यानों, कैसे भगवद, भागवत और आचार्य का कैंकर्य कर सकें ऐसे विषयों पर केन्द्रित होना चाहिए है। जब हम इसे देखते हैं तब हम यह सोचते हैं कि जब हम नित्य/नैमितिक कर्म कर रहे हैं तो हम देवतान्तर की पूजा कर रहे हैं। परन्तु इस संभ्रम को श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी बहुत सुन्दरता से समझाते हैं। एक व्यक्ति श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के पास आकर पूछता है “आप देवतान्तर (जैसे इन्द्र, वरुण, वायु, सूर्य, आदि) आदि की पूजा अपने नित्यकर्मों में करते हो तब फिर आप उनकी पूजा उनके मन्दिरों में क्यों नहीं करते हो?”। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी उसी क्षण दीप्तमान उत्तर देते हैं कि “आप यज्ञ में अग्नि कि पूजा करते हैं परन्तु धरती में आच्छादित करते समय क्यों अग्नि से दूर रहते हो? उसी तरह क्यों कि शास्त्र कहता हैं नित्यकर्मों को भगवद आराधना मानकर करना चाहिये यह समझकर कि भगवान सभी देवता के लिये भी अन्तरयामी हैं। वही शास्त्र यह भी कहता है कि मन्दिर में हमें भगवान को छोड़ अन्य देवता की पूजा नहीं करनी चाहिये और इसलिये हम उनके मन्दिर भी नहीं जाते हैं। और जब इन देवताओं को मन्दिर में स्थापित करते हैं तो वे रजो गुण उत्पन्न करते हैं और अपने आप को श्रेष्ठ विचार हैं और क्योंकि हम सत्वगुणी हैं हम देवता जो रजोगुणी हैं उनकी पूजा नहीं करते हैं”। इसलिये श्रीवैष्णव (यज्ञोपवित वाले) जब नित्य/नैमितिक कर्म करते हैं तब यह नहीं मानना चाहिये कि वे देवतान्तर कि सेवा कर रहे हैं – श्रीवैष्णव के लिये ये सभी कार्य भगवद कैंकर्य का एक अंग है जो भगवान कि ही आज्ञा है।
- केवल जन्म देने के कारण हमें अपने माता पिता का सेवक मानना बाधा है। हमारा जन्म एक विशेष परिवार में विशेष माता पिता के यहाँ होना हमारे कर्म पर आधारित है और शास्त्र के आधार पर उनके प्रति हमारी सेवा सीमित है। परन्तु भगवान सभी के लिये माता और पिता हैं। इसलिये भगवान के प्रति सेवा अति श्रेष्ठ है। अनुवादक टिप्पणी: अगर माता पिता श्रीवैष्णव हैं तो हमें स्पष्ट रूप से उनकी सेवा अच्छी तरह से करनी चाहिये जैसे अन्य श्रीवैष्णवों की करते हैं जो पहिले समझाया जा चुका है।
- केवल विवाह सम्बन्ध मात्र से पति की सेवक होना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान श्रीमन्नारायण परम पुरुष हैं। भगवान और जीवात्मा के मध्य एक मुख्य सम्बन्ध है भार्तृ – भार्या (पति – रक्षक और पत्नी रक्षिका)। यद्यपि एक स्त्री अपने कर्म के कारण एक पुरुष से विवाह करती है परन्तु सभी जीवात्मा के सच्चे पति तो भगवान ही हैं। यद्यपि एक स्त्री को धर्म शास्त्रानुसार अपने पति की ही सेवा करनी हैं – फिर भी भगवान के संग नित्य सम्बन्ध के मूलभूत को समझना और निरन्तर स्मरण रखना चाहिये। जैसे पहिले समझाया गया है कि अगर पति श्रीवैष्णव है तो उससे बड़े आदर और सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिये। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी जो बड़े आचार्य हैं उनको दो पत्नियाँ थी। वो एक बार अपनी पत्नियों से अलग अलग एक प्रश्न पूछते हैं। पहले वों अपनी पहली पत्नी से पूछते हैं “तुम मेरे बारें में क्या सोचती हो?”। पहली पत्नी उत्तर देती है “मैं आपको स्वयं श्रीरंगनाथ भगवान के समान और मेरे आचार्य ऐसे देखती हूँ”। वह बहुत खुश होकर उसे तिरुवाराधन और उनके लिये प्रसाद बनाने को कहते है। फिर वही प्रश्न वें अपनी दूसरी पत्नी से पूछने पर वो कहती है “मैं आपको मेरा पती मानती हूँ”। वो उसे अपनी पहली पत्नी को प्रसाद बनाने में सहायता करने को कहते हैं। परन्तु जब उनकी पत्नी के मासिक काल के समय वो प्रसाद नहीं बना सकती तब वें अपनी दूसरी पत्नी से प्रसाद बनाने को कहते हैं परन्तु वह अपने प्रिय शिष्य को उस प्रसाद को पहिले छूने को कहकर फिर पाते हैं। अत: हम समझ सकते हैं कि सच्चे श्रीवैष्णव का उनकी पत्नी द्वारा आदर होना चाहिये।
- सांसारिक लाभ के लिये सांसारिक जनों का सेवक बनना बाधा है। हमें कैंकर्य का नित्य लक्ष्य रखना चाहिये न कि अस्थाई लाभ पाना। अनुवादक टिप्पणी: एक बार एक राजा श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी की कीर्ति सुनकर श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी को उससे मिलकर आर्थिक मदद लेने को कहते है। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी कहते हैं अगर भगवान श्रीरंगनाथ के अभय हस्त भी अपनी दिशा बदल दे तब भी वे किसी के पास मदद के लिये नहीं जायेंगे। हमारे पूर्वाचार्यों की ऐसी निष्ठा थी। किसी भी परिस्थिती में वे पूर्णत: भगवान पर ही निर्भर रहते थे और कभी भी किसी के लिये भी सांसारिक जनों के पास नहीं जाते थे।
- तुच्छ सांसारिक सुख की ओर लगाव रखना और अपना मान गँवाना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: सामान्यता श्रीवैष्णवों की राजकुमार जैसी स्तुति होती है – अति आनंदमय श्रीमन्नारायण के सुन्दर और धनी सन्तान। किसी को उस अवस्था से नीचे नहीं आना चाहिये और सांसारिक जनों कि सेवा कर के अपना मान न गवाँये।
- यह न जानना बाधा है कि जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण की ही सेवक हैं, जो सभी जीवों के नित्य संबंधी है, जो सभी जीवात्मा के नित्य रक्षक है और सभी जीवात्मा के नित्य स्वामी हैं। जैसे श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी के नव विध सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान ही ऐसे पूर्ण व्यक्ति हैं जो पूर्णत: कई रीति से जीवात्मा के सम्बन्धी हैं। जीवात्मा की पूर्ण सेवा ही तिरुमन्त्र का मुख्य विषय हैं जो सभी वेदों व वेदांतों का तत्व है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान श्रीमन्नारायण को सर्वस्वामी, लोकभर्ता (पती या सबका रक्षक), जगन्नाथ (संसार के स्वामी), आदि कहकर बुलाते हैं। अत: हमें इस सत्य को मानना चाहिये कि हम ऐसे महान भगवान के सेवक हैं और उसी तरह कार्य करना चाहिये।
- अपने आप को पूरी तरह भगवान की ओर जो कि स्वामी है, उपलब्ध नहीं करना बाधा है। किसी की सेवा की अन्तिम स्थिति को पारतंत्रय कहते हैं – भगवान ही जीवात्मा को नियंत्रित करते है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीरामायण में श्रीभरतजी पूर्णत: भगवान राम को समर्पित रहते हैं। भगवान श्रीराम की जो भी इच्छा है भरतजी उसका पालन कर उस इच्छा को पूर्ण करते थे। सभी जीवात्मा को अपना सच्चा स्वभाव स्थापित करने के लिये ऐसे ही होना चाहिये।
- पूर्णत: भगवान का होना आर्थात भागवतों का सेवक होना। यह न जानना बाधा है। तत शेषत्व (भगवान की ओर सेवा) तदिय शेषत्व (भागवतों कि ओर सेवा) की ओर ले जाता है। विशेषकर सभी को अपने आचार्य की सेवा करनी चाहिये – यह सभी जीवात्मा के स्वभाव के लिये मुख्य और योग्य है। अनुवादक टिप्पणी: जीवात्मा की सामान्य स्थिति भगवद दास्यत्व है और पूरी तरह भगवान कि सेवा में रहना। इससे भी मुख्य – स्वरूप यातात्मयम (सच्चे स्वभाव का तत्व) – भागवत दास्य (भागवतों के सेवक होना)। पेरिया तिरुमोली में श्रीपरकाल स्वामीजी स्वयं भगवान को ही तिरुमन्त्र का तत्व इस तरह घोषित करते हैं “निन तिरुवेट्टेळुत्तुम् कट्रु नान उर्ट्रथुम उन्नडियार्क्कडिमै कण्णपुरत्तुरेयम्माने” (हे तिरुक्कण्णपुरम के प्रिय भगवान तिरुमन्त्र का तत्व सीखने के पश्चात मैंने यह समझा कि मैं आपके दासों का दास हूँ)। श्रीभक्तिसार स्वामीजी नान्मुगन तिरुवन्दादि के पाशुर में यह दर्शाते हैं “एत्तियिरुप्पारै वेल्लुमे मटवरै शारत्ति इरूप्पार तवम” (भागवतों कि ओर भक्ति स्वयं भगवान से अधीक है)। एत्तियिरुप्पवर – भगवत शेष भूतर – वह जो भगवान के शरण हो गया हो। ऐसे भक्तों की शरण में जो हुए हो उनकी स्थिति और अधिक महान है। श्रीरामायण में श्रीलक्ष्मणजी और श्रीभरतजी पूर्णत: श्रीरामजी के शरण थे। श्रीशत्रुघ्नजी पूर्णत: श्रीभरतजी के शरण थे। श्रीरामायण में कहा गया है कि “चत्रुघ्नो नित्यचत्रुघ्न:” (वह जिसने नित्य बाधाओं को पाराजित किया है)। हमारे पूर्वाचार्य कहते हैं कि “श्रीशत्रुघ्नजी भगवान राम के सुन्दर और दिव्य गुणों का पूरी तरह त्याग कर श्रीभरतजी की सेवा किये”। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते हैं “अवनदियार सिरुमामनिसराय एन्नैयाण्दार” – सिरुमामनिसर – वो जो पूर्णत: भगवान के शरण हुए हैं जो छोटे हैं पर बड़े ज्ञानी हैं। श्रीशठकोप स्वामीजी ऐसे भक्तों को अपना स्वामी मानते हैं, यह घोषणा किये हैं। जब ऐसे भागवात हैं तो कोई कैसे उन्हे निर्लक्ष्य कर भगवान के श्रीचरण कमलों की सेवा कर सकता है? अत: जीवात्मा के लिये भागवत कैंकर्य भगवद कैंकर्य से भी अधिक मुख्य है।
- यह न जानना कि अपने स्वामी की रुचि और अरुचि ही हमारी रुचि और अरुचि होना चाहिये। इस विषय में श्रीवैष्णवों को अपने बड़ों की राह पर चलना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी कैंकर्य के पहलू को समझाते हैं। २७५वें सूत्र में वे कहते हैं भगवद कैंकर्य हमें शास्त्र के जरिये सिखना चाहिये और आचार्य कैंकर्य शास्त्र और स्वयं आचार्य के जरिये सिखना चाहिये। फिर वें २७६वें सूत्र में समझाते हैं कि कैंकर्य में दो पहलू हैं। २७७वें सूत्र में वे क्या हितकारी (भगवान/आचार्य की पसन्द) हैं और क्या अहितकारी (भगवान/आचार्य की ना पसन्द) हैं कहते हैं। २७८वें सूत्र में समझाते हैं कि हितकारी / अहितकारी पहलू वर्णाश्रम धर्म और आत्मा स्वरूप के आधार पर हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस २७८वें सूत्र पर विस्तार से व्याख्या देते हैं। वे इस सूत्र के लिये ३ अलग व्याख्या देते हैं परन्तु अन्त में स्वयं कहते हैं पहली व्याख्या ही योग्य हैं। पहिले व्याख्या का तत्व हैं:
- वर्णाश्रम में हितकारी उतने ही (नित्य / नैमित्तिक) कर्म करना जो शिष्य व बच्चों को वैधिक धर्म पालन करने के लिये आवश्यक हो और दूसरों के प्रति दया भाव से – यह अन्य जीवों के कल्याण पर केन्द्रित है (दया भाव)
- नित्य / नैमित्तिक कर्मों को इस तरह से निभाना कि ऐसा न करने से पाप लगेगा, यह वर्णाश्रम के प्रतिकूल है – यह स्वयं को पापों से बचाने पर केन्द्रित है (स्वार्थ भाव)।
- आत्म स्वरूप में हितकारी कर्म- स्वयं को भगवान के पूर्ण आधीन रखना।
- आत्म स्वरूप में प्रतिकूल कर्म – ऐसे कर्म जिसमें भगवान को भागी नहीं बनाना जो हमारे दास्य स्वभाव को प्रभावित करता है (भगवान हमारे स्वामी है और हम उनके दास हैं) । उदाहरण के लिये एक पिता (जो उच्च है) प्रेमवश और खेल-खेल में अपने स्वयं के पुत्र को उठाता है और उसके पैरों को अपनी छाती से लगाता है। परन्तु उस पुत्र को यह कहकर अपने पैरों को नहीं हटाना चाहिये कि “पिताजी आप मुझसे उच्च है मैं कैसे अपने चरणों से आपके मस्तक को छु सकता हूँ” बजाय इसके वह अपने पिता को इसका पूर्ण आनन्द लेने दे।
- अपने स्वयं के दासत्व के डर से भगवान को पूर्ण आनंदित न होने देना बाधा है। एक दास का धर्म है कि व अपने स्वामी को खुश रखें। इसके लिये उसे अपना सम्मान ही क्यों न खोना पड़े। हमें अपने स्वामी की खुशियों को लाने के लिये हमेशा उनकी सेवा के लिये तैयार रहना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: मुमुक्षुप्पड़ी के १७७वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि एक शेष्दभूत (दास) को अपने शेषी (स्वामी) की खुशी को लाना स्वरूप (सच्चाधर्म) और प्राप्यम (लक्ष्य) है। इसलिये जीवात्मा को हमेशा इसके लिये कार्य रत रहना चाहिये।
- भगवान जब जीवात्मा के शेषत्व को नष्ट करते हैं तब घबराना बाधा है। जब स्वयं भगवान नीचे आकर जीवात्मा की प्रेम से सेवा करते हैं तब जीवात्मा को भगवान को रोकना नहीं चाहिये – उन्हें सेवा करने देना चाहिये – ऐसे न करना हानिकारक हैं। अनुवादक टिप्पणी: मुमुक्षुप्पड़ी के ९२वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी इसी तत्व को समझाते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपनी व्याख्या में एक सुन्दर उदाहरण देते हैं। भगवान जो श्रेष्ठ हैं आल्वार श्रीशठकोप स्वामीजी को ऊपर उठाने के लिये उनके हृदय में प्रवेश करते हैं। परन्तु आल्वार के प्रति प्रेम के कारण भगवान उनके सेवक बन जाते हैं और उनकी सेवा करते हैं। उस समय आल्वार यह नहीं कहते हैं कि “मैं साधारण जीवात्मा हूँ भगवान मेरी सेवा क्यों कर रहे हैं? मैं उन्हें ऐसे करने से रोकूँगा क्योंकि कि मुझे शास्त्र तत्व का ज्ञान है कि जीवात्मा सेवक है और भगवान स्वामी”। इससे विपरीत आल्वार ने भगवान को उनकी इच्छा पूर्ण करने दी यह जानते हुए कि भगवान को क्या चाहिये और यही मुख्य पहलू है।
- सेवा में न रमकर (शामील होकर), बाधाओं में जुड़े रहना बाधा हैं। अनुवादक टिप्पणी: शास्त्र में कहा गया हैं “अकिंचितकरस्य शेषत्व अनुपपत्ति:” – भगवान कि सेवा करना जीवात्मा का स्वभाव है, अगर यह सेवा स्पष्ट नहीं है तो वह जीवात्मा स्वयं अपनी पहचान खो देता है। सभी को बाधाओं से बचना चाहिये – जैसे कोई अपने शरीर पर आनेवाली बाधाओं से बचता है वैसे ही हमें आत्मा को जो हानी पहुँचाता है उससे बचना चाहिये।
- आचार्य की ओर हमारी सेवा अस्थाई / नियमबद्ध मानना बाधा है। आचार्य को भगवान के अपरावतार माना गया है – इसलिये आचार्य-शिष्य के मध्य के सम्बन्ध को भी नित्य मानना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य को भगवान के चरण कमल माना गया है। श्रीवचन भूषण के ४२७ सूत्र में इस तत्व को सुन्दरता से श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं। भगवान के निकट सीधे जाना अर्थात “उनके हाथ पकड़ना और सहायता माँगना” और भगवान के निकट आचार्य के जरिये जाना अर्थात “उनके चरण कमलों को पकड़ना और उनकी सहायता माँगना” – स्पष्ट रूप से दूसरा विकल्प ही सही है। इस समझ से आचार्य के साथ सम्बन्ध भी नित्य माना जाता है।
- यह न जानना कि हम भगवान के नित्य सेवक हैं, और भगवान नित्य स्वामी हैं, बाधा है। भगवान और जीवात्मा के मध्य स्वामी-दास्य भाव स्थायी है। यह समय, स्थान और परिस्थिति के सीमा से परे है।
- देवतान्तर और पितृ (पूर्वज) की सेवा करना बाधा है। क्योंकि हम भगवान के नित्य सेवक हैं देवतान्तर, पितृ, आदि की सेवा का यहाँ त्याग किया गया है। यहाँ पितृ तर्पण, आदि (नैमितिक कर्म) जो शास्त्र से नियत किया गया है उसका त्याग नहीं करना है – क्योंकि इसे हम पहिले ही समझ चुके हैं कि हम आज्ञा कैंकर्य की सीमा में हैं।
-अडियेन केशव रामानुज दासन्
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