तिरुप्पावै अनुभव – नायनार् द्वारा रचित तिरुप्पावै सार

||श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः||

भगवान श्रीमन्नारायण की दिव्य महिषी “भूदेवी नाच्चियार”, इस कलयुग के शुरुआत में, जीवात्माओं के उद्धार के लिये, आण्डाऴ् (माँ गोदा देवी) का अवतार ले इस धरा पर प्रगट हुयी।

इस मृत्युलोक में, माया के कारण भटके हुए जीवों को अपना ध्येय जतलाने, भगवान की अर्चा विग्रह की सेवा कर, एक निष्ठ शरणागति कर भगवद कैंङ्कर्य में सम्मिलित हो और अपना ध्येय – परमपद को प्राप्त करने का सुगम मार्ग बतलाने अवतरित हुयी थी।

भगवान श्रीमन्नारायण के प्रेमोन्माद और उन्हें पाने / वरण करने की तीव्र लालसा में, पराँम्बा माँ गोदाम्बाजी अपनी तरुणावस्था में ही दो दिव्य प्रबंधों की रचना की थी। पहले तिरुप्पावै, जिसमें माँ गोदाम्बाजी धनुर्मास व्रत (दक्षिणात्य मार्गऴि माह में व्रत, तिरुप्पावै नोम्बु) का अनुष्ठान कर भगवान को सदा उनके ही आनंद के लिए, उनके कैंङ्कर्य में व्यस्त रखने की प्रार्थना करती हैं। धनुर्मास व्रत (तिरुप्पावै नोम्बु) में भगवान के श्रीचरणों में रखी प्रार्थना / विनती, को भगवान ने नहीं स्वीकारा, तब भगवान के वियोग में व्याकुल होकर, दुःखी होकर १४७ प्रबंधों से भगवद गुणानुवाद किया, जिसे नाच्चियार् तिरुमोऴि के नाम से जानते है।

हमारे लिये यह दोनों ही ग्रन्थ अनमोल रत्न हैं।

यह दोनों ग्रन्थ (तिरुप्पावै और नाच्चियार् तिरुमोऴि) माँ गोदाम्बाजी इस वैष्णव जगत के लिये, वैष्णवों के उद्धार के लिये दो अनमोल रत्न (तिरुप्पावै और नाचियार् तिरुमोळि) प्रदान करने के बाद, पराम्बा माँ गोदाम्बाजी भगवान श्री रंगनाथजी में समाहित हो नित्य धाम को पधारती है।

सम्प्रदाय के कई पूर्वाचार्यों ने जैसे, एम्पेरुमन्नार् (भगवद रामानुज स्वामीजी), भट्टर्, पेरियवाच्चान् पिळ्ळै, पिळ्ळै लोकाचार्य, अऴगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार्, वेदान्ताचार्य, मणवाळ मामुनिगळ (वर वर मुनि स्वामीजी), पोन्नडिक्काल् जीयर् (प्रथम तोताद्रि जीयर) जैसे कई पूर्वाचार्यो ने श्री गोदाम्बाजी और उनके द्वारा रचित तिरुप्पावै और नाच्चियार् तिरुमोऴि का वैभव गान अपने पाशुर , स्तोत्र, और व्याख्यानों में किया है।

हमारे पूर्वाचार्य तिरुप्पावै की महिमा का गुणगान कुछ इस प्रकार करते हैं:
पादगङ्गळ् तीरक्कुं परमनडि काट्टुम्
वेदं अनैत्तुक्कुं वित्तागुम्
कोदै तमिळ् अयैन्दुं ऐन्दुं अरियाद मानिडरै
वैय्यं सुमप्पदुं वम्बु

माँ गोदाम्बाजी द्वारा रचित तिरुप्पावै, जिसे हमारे पूर्वाचार्य सभी वेदों का सार कहते है, हमें हमारे परम लक्ष्य, भगवान श्रीमन्नारायण के कैंकर्य-प्राप्ति , शरणागति में (केवल भगवान के आनंद के लिए) आनेवाली सारी बाधाओं को दूर कर हमें भगवान श्रीमन्नारायण के चरणारविन्द का आश्रय दिला परमपद की प्राप्ति करवाता है। पूर्वाचार्यो का यहाँ तक मानना है जो वैष्णव तिरुप्पावै का गायन, मनन नहीं करता है वह इस पृथ्वी पर भार है |

हर वर्ष मार्गशीर्ष माह में सभी वैष्णव देवालयों में, वैष्णव मठों आदि स्थानों पर तिरुप्पावै का पारायण, प्रवचन, व्यख्यान होते हैं और आचार्यों, विद्वानों, वैष्णवों अपने अपने अनुभव से लेख लिखते हैं। तिरुप्पावै का वैभव और आकर्षण ही ऐसा है कि, तीन वर्ष के बालक से लेकर नब्बे वर्ष के वृद्ध तक सभी तिरुप्पावै के अनुसन्धान में व्यस्त रहते हैं।

इसका कारण है, आण्डाळ् का भगवद प्राप्ति के सभी उपाय और शास्त्रों का सार इन तीस पाशुरों में प्रस्तुत करना।

नम्माऴ्वार् आऴ्वार जिन्हें भगवद अनुगृह प्राप्त था, बहुत ही सरल भाषा में अपनी तिरुवायमोऴि (सहस्त्रगीति) के ४.६.८ में शास्त्रों के सार को कुछ इस प्रकार बतलाते हैं –“वेदं वल्लार्गळैक् कोण्डु विण्णोर् पॆरुमान् तिरुप्पादं पणि”, अर्थात जीवात्मा को शास्त्रों में पारङ्गत आचार्य का अनुग्रह प्राप्त कर, नित्य सूरियों को (महालक्ष्मी इत्यादि) मध्यस्थ बनाकर, भगवान की शरण लेनी चाहिए और उनके दिव्य चरणयुगल की सेवा कर शरणागत होकर रहना चाहिये।

यदि हर जीवात्मा इस सरल भाव को समझकर आचरण में लाता है, तो उसे निश्चित रूप से भगवान् की शाश्वत, दोषरहित सेवा, शरणागति प्राप्त होगी।

पिळ्ळै लोकाचार्य के अनुज, अऴगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् ने विस्तारसे तिरुप्पावै पर एक अद्भुत व्याख्यान की रचना की। उनका आऴ्वारों के अरुळिच्चॆयल् (प्रबन्धम्) में प्रावीण्य अप्रतिम है। उदाहरणार्थ, उन्होंने संपूर्ण रहस्य त्रयम् (तिरुमन्त्रम्, द्वयम् और चरम-श्लोकम्) को, अरुळिच्चॆयल् में प्राप्त शब्दों का प्रयोग करके एक सुन्दर ग्रन्थ, “अरुळिच्चॆयल् रहस्यम्” की रचना की।

आण्डाळ् अपने भगवद अनुभव में सभी जीवात्माओं को अपने साथ लेकर चली थी, यही सार इस जग को बतलाने माँ भूमि देवी आण्डाळ के रूप में अवतरित हुयी थी, यही गोदाम्बाजी की महिमा थी। शास्त्रों में यह कहा गया है कि “एको स्वतः न भुञ्जीथ”, अर्थात किसी पदार्थ को सबको बांटे बिना अकेले में उपभोग नहीं करना चाहिये। भगवद् विषय में यह बहुत ही उपयुक्त है। एकांत भोग भौतिक सुख (विषयान्तर), गुप्त भोगों में उपभोग किया जाता है, क्योंकि वह स्वभाव से दोषपूर्ण है, जबकि भगवद् विषय सार्वजनिक है और सबके साथ मिल बांटकर उसका आनन्द लेना चाहिए। आण्डाळ् ने अपने अनुष्ठान में इसे साकार कर दिखाया। अपने पिता के पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए, आण्डाळ् ने भी सभी जीवात्माओं को भगवद् कैङ्कर्य में संलग्न रहने को आह्वान किया। बिलकुल वैसे ही जैसे विष्णुचित्त आऴ्वार् ने अपनी रचना, “तिरुपल्लाण्डु” में, ऐश्वर्याथी (जो संपत्ति चाहता है), कैवल्यार्थी (जो आत्मानुभव चाहता है), और भगवद् कैङ्कर्यार्थी (जो भगवद् कैङ्कर्य करने के लिए उत्सुक है) इन तीनों को भगवान् का मङ्गलाशासन करने के लिए आमन्त्रित किया। अपनी “६००० पडि व्याख्यानम्” के “वङ्गक् कडल्” (तिरुप्पावै का अन्तिम पाशुर) की अवतारिका में नायनार् स्वामीजी तिरुप्पावै के पहले सभी २९ पाशुरों का बहुत ही सारगर्भित अर्थानुसंघान देते हैं। नायनार् का पूरे पाशुर के सार को एक ही पंक्ति में प्रतिपादन करने के कौशल्य प्रवीणता की सभी विद्वान् प्रशंसा करते हैं। अब हम तिरुप्पावै के तत्त्व को उनके ही दिव्य शब्दों में देखते है।

  • पहले पाशुर मार्गशीर्ष मास के प्रथम दिवस में आण्डाळ्, अपने निज स्थान को गोकुल मानकर अपनी सभी सखियों को गोपियों की तरह मानकर सभी को संग लेकर नन्द नंदन की आराधना के लिए मनाती है। सभी सदा भगवान् श्री कृष्ण का आश्रय लेते हैं, जो उन्हें कृष्णानुभव में निरत रहने में सहायता करते हैं। आण्डाळ् भगवान् का गुणगान करती हैं, कहती है, यही उपाय (मार्ग) और उपेय (लक्ष्य) दोनों हैं। जबकि उनका मुख्य ध्येय कृष्णानुभव में निरत रहते हुये भगवान को पाना है, आण्डाळ् अन्य गोपीका-सखियों के साथ भगवद् अनुभव में संलग्न रहने के लिए एक व्रत रखने का संकल्प करती हैं (जो कि एक अप्रधान लक्ष्य है)।
  • दूसरे पाशुर में, भगवद् अनुभव में निरत रहने के लिए, आण्डाळ् उन गुणों व पालनीय और अपालनीय नियमों का वर्णन करती हैं। हमें कौन से नियम स्वीकारना और त्यागना चाहिये वह स्पष्ट रूप से बतलाती हैं कि “मेलैयार् चॆय्वनगळ्” अर्थात जो हमारे पूर्वजों ने (आचार्यों नें) पालन किया है वही हमारे (प्रपन्नों) के लिए सर्वोपरि प्रमाण है।
  • तीसरे पाशुर में, भगवन नाम गुणानुवाद के लाभ के रूप में, वह गोकुल के निवासियों का कल्याण चाहती हैं क्योंकि इन्हीं से प्रेरित होकर गोदाजी और उनकी सखियाँ कृष्णानुभव में व्यस्त रहने का संकल्प लेती हैं। निश्चित रूप से मुख्य लक्ष्य तो सभी जीवात्माओं को कृष्णानुभव प्राप्त करना ही है।
  • चौथे पाशुर में वह पर्जन्य देव (वर्षा के देवता) को यह प्रार्थना करती हैं कि वह हर महीने में पर्याप्त (महीने में तीन बार- प्रति दस दिन में एक बार ब्राह्मणों के लिए, एक बार राजा के लिए और एक बार पतिव्रताओं के लिए) बरसे, ताकि वृन्दावन समृद्ध रहे और उन्हें कृष्णानुभव बिना किसी बाधा के निरन्तर होते रहे।
  • पाँचवे पाशुर में वह स्पष्ट करती हैं – पूर्ण निर्मल मन और निष्काम भाव से भगवद आराधना कर भगवन नाम संकीर्तन करते रहना चाहिये। निरन्तर नाम संकीर्तन में मग्न रहने से, हमारे प्रारब्ध वश संचित (अब तक के) और आगामी (भविष्य के) कर्म (अच्छे और बुरे) भगवत कृपा से कट जाते हैं। उपनिषदों में बताया गया है कि जब कोई भगवान् की शरणागति करता है तब संचित कर्मों का नाश होता है, बिलकुल उसी तरह, जिस तरह कपास आग में जल कर राख हो जाती है, और ऐसे ही आगामी कर्म प्रभावहीन हो जाते हैं, जैसे कमल पर जल नहीं ठहरता उसी के समान। यहाँ गोदाम्बाजी ने यह भी स्पष्ट समझाया कि भविष्य में अनजाने में किये कर्म कट जाते हैं, परन्तु जो पूर्ण ज्ञान में रखकर किये गये कर्म, उनका फल क्षीण मात्र भोगना ही पड़ता है।
  • छठवें पाशुर से पन्द्रहवें पाशुर तक, आण्डाळ् विभिन्न दस सखियों को (गोपियों को, जो पहले से ही भगवान् कृष्ण की भक्ति में आसक्त हैं) जगाने उनके घर जाती हैं। अपने साथ वह कई अन्य गोपियों को भी ले जाती हैं, जो कृष्ण के नन्द भवन जाने के लिए उत्सुक रहती हैं। आण्डाल हर पाशुर में एक सखी को जगाती है। सब को साथ लेकर भगवान श्री कृष्ण को जगाना ही उद्देश्य रहता है। हर सखी को सुन्दर मधुर आवाज़ में भगवान के रूप लावण्य, यश- गौरव की गाथा गाते जगाती है। पूर्वाचार्यों ने तिरुप्पावै की इन गाथाओं को गूढ़ अर्थ वाली बताया है।
  • छठवें पाशुर में आण्डाळ् एक गोपीका को जगाती हैं जो कृष्णानुभव में अपक्व है, नवीन है। यह गोपीका स्वयं अकेले ही भगवान् कृष्ण की भक्ति का आनन्द लेना चाहती है, जो प्रारम्भिक अवस्था- है जिसे “प्रथम पर्व निष्ठा” कहते हैं। जब इस “भागवत सहचर्य (सङ्ग)” का मौलिक तत्त्व का ज्ञान होता है तब भक्ति “चरम पर्व निष्ठा” की ओर ले जाती है।
  • सातवें पाशुर में, आण्डाळ् उस गोपिका को जगाती है जो कृष्णानुभव में दक्ष है, जो जान बूझकर आण्डाळ् और उनकी सखियों की मधुर वाणी सुनने अन्दर ही सोयी है।
  • आठवें पाशुर में आण्डाळ् उस गोपिका को जगाती है जो अति उत्साह के कारण रात्रि में निद्रा भी नहीं लेती, पाशुर भाव में भगवन कृष्ण उसे बहुत चाहते हैं, जिससे गोपिकाओं में उसका सम्मान है।
  • नौवें पाशुर में वह एक और गोपिका को जगाती है जिसे एम्पेरुमान को उपाय मान उसी में अति दृढ़ है, इस गोपिका को भगवन के कई प्रकार से अनुभव हुये हैं, इसे माँ सीताजी की तरह महाविश्वास है, जैसे सीता माता ने हनुमान से कहा, “श्री राम ही आकर मुझे यहाँ से ले जायेंगे”, ऐसे ही विश्वास कि भगवान् ही “उपाय” हैं |
  • दसवें पाशुर में गोदाम्बाजी एक अन्य गोपीका को जगती हैं, जिसे हमारे साहित्य ने “सिद्ध साधना निष्ठ” बतलाया है। इस गोपिका ने स्वयंको संपूर्ण रूप से भगवान् को आत्मसमर्पित किया हुआ है, इस कारण यह गोपिका भगवान् कृष्ण को अत्यधिक प्रिय है|
  • ग्यारहवें पाशुर में आण्डाळ एक और गोपिका को निद्रा से उठाने जाती है। जिस तरह कृष्ण गोकुल/ वृन्दावन के सर्वप्रिय तरुण है, उसी तरह यह गोपिका वृन्दावन की प्रिय कन्या है। इस पाशुर में गोदाम्बाजी द्वारा वर्णाश्रम धर्म के पालन करने की महत्ता पर पूरी तरह से बल दिया है।
  • बारहवें पाशुर में माँ गोदाम्बाजी एक और गोपिका को निद्रा से उठाती है, जो भगवान् कृष्ण के प्रिय सखा की भगिनी है। भगवान का यह सखा किसी भी प्रकार के वर्णाश्रम धर्म के कार्य का पालन नहीं करता। गोदाजी यहाँ स्पष्टता से कहती हैं की, जब हम लगन से भगवान् की सेवा करने में लगातार मग्न रहते हैं, तब हमें और कुछ भौतिक कार्य करने के लिए समय अथवा आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु जैसे ही भगवान् की सेवा से निवृत होते हैं, दूसरे भौतिक कर्तव्य पूर्ण करने की आवश्यकता होती है और वे भौतिक कार्य प्राधान्यता ले लेते हैं।
  • तेरहवें पाशुरम् माँ गोदाम्बाजी एक और गोपीका को उठाती हैं जो एकांत में अपनी आंखों के सौन्दर्य का सुख अनुभव कर रही है। शास्त्र में नेत्रों को ज्ञान का प्रतीक मानते हैं, इस गोपी को भगवान् का यथार्थ ज्ञान है, और विश्वास है भगवान् कृष्ण जो अरविन्द लोचन हैं, स्वयं ही उसके समक्ष आएँगे। यह सखी मानती है कि उसके कमल नयन से नेत्र भगवन के अरविन्द लोचन के समान हैं और यही उनके मेल हैं।
  • चौदहवें पाशुरम्- आण्डाळ एक अन्य गोपिका को जगाती है। इस गोपिका ने माता गोदाम्बाजी को उनके साथ सभी सखियों को निद्रा से जगाने साथ चलने का वचन दिया था, पर अपने वचन को विस्मृत कर अपने घर के अन्दर ही निद्रा लेने में मगन है।
  • पन्द्रहवें पाशुरम् – आण्डाळ एक अन्य गोपिका को जगाती है, जो आण्डाळ् की अप्रतिम सुंदरता निहारने और उनकी सखियों को देखने अपने घर में प्रतीक्षा कर रही है।
  • सोलह और सत्रहवें पाशुरम् में माँ गोदाम्बाजी नित्य सूरियों के स्थानिक प्रतिनिधिओं को, क्षेत्र पालक, द्वार पालक (मुख्य प्रवेशिका के रक्षक), आदिशेष इत्यादि को जगाती है। सोलहवें पाशुरम् में माँ आण्डाळ, नन्द भवन के द्वारपालक, मुख्य प्रवेषिका के संरक्षण-पाल और श्री नन्दगोप के शयनकक्ष के बाहर स्थित द्वारपालकों को जगाने जाती हैं।
  • सत्रहवें पाशुरम् में माँ आण्डाळ श्री नन्दगोप, मैया यशोदा और भैया बलरामजी को जगाती हैं।
  • अठारहवें, उन्नीसवें और बीसवें पाशुरम् में, आण्डाळ् नन्दगोप कुमार (कृष्ण) को जगाने का प्रयास करती है, इन पाशुरों में आण्डाळ् नप्पिन्नै पिराट्टी (नीला देवी) का पुरुषकार प्राप्त करने उन्हीं से प्रार्थना करती हुयी उनकी अपरिमित आनन्द प्रदान करने की क्षमता, कोमल स्वभाव, अप्रतिम सौन्दर्य, भगवान् कृष्ण के प्रेयसी होने का गौरव, भगवान् कृष्ण से सायुज्य का बखान करते हुये गौरवान्वित करती है। अन्ततः देवी नप्पिन्नै का पुरुषकारत्व (अनुशंसा करने की क्षमता) का गुणगान करती हैं। इस प्रसंग से माता गोदाम्बाजी यह स्पष्ट करती है कि माता महलक्ष्मीजी की उपेक्षा कर, केवल भगवान् के प्रेम के लिये मनोरथ करना शूर्पणखा (जो केवल श्रीराम को चाहती थी) की कामवासना के समान है, और भगवान् श्रीमन्नारायण की उपेक्षा कर केवल माँ लक्ष्मीजी का मनोरथ करना रावण (जो केवल सीता देवी को चाहता था) की कामवासना के समान है। सम्प्रदाय साहित्य में ऐसी मान्यता है कि अठारहवां पाशुरम्, “उन्दु मद कळित्तन्” भगवान् को अति प्रिय है। अनुवादक टिपण्णी- ऎम्पेरुमानार् (भगवद रामानुज स्वामीजी) मधुकरी के समय यही पाशुरम् गया करते थे, इसी से पॆरिय नम्बि (गोष्ठी पूर्ण स्वामीजी) ने उन्हें “तिरुप्पावै जीयर्” के नाम से अलंकृत किया |
  • इक्कीसवें पाशुरम् में, आण्डाळ् भगवान् कृष्ण के उत्तमता का गुणगान करती है, जैसे श्रीकृष्ण का नन्दगोप के प्रिय पुत्र के रूप में अवतरित होना, भगवान कृष्ण का परत्व (प्रभुत्व), दृढ प्रामाण्यत्वं (शास्त्रों द्वारा सर्वोच्चता से प्रमाणित किया जाना कि वही परमेश्वर हैं) इत्यादि स्तुति करती हैं।
  • बाईसवें पाशुरम् में, आण्डाळ् भगवान् से कहती हैं, हे कृष्ण, मेरे लिये और मेरी सखियों के लिये आपके सिवा अन्य कोई शरण, आश्रय नहीं है। जैसे विभीषण भगवान श्री रामजी की शरण में गये, उसी तरह हम भी सारे बंधनों को त्याग कर आपके दिव्य अनुग्रह के लिये आपकी शरण में आए हैं।
  • तेईसवें पाशुरम् में, भगवान् कृष्ण इस बात का आभास करते हैं कि उन्होंने आण्डाळ् को बहुत प्रतीक्षा करवाई है। तब भगवान कृष्ण आण्डाळ् से उनकी क्या इच्छा है पूछते हैं। आण्डाळ् भगवान् से निवेदन करती हैं कि आप निद्रा त्यागकर, शय्या से उठकर, सिंहराज की तरह चलते हुये, सभागार में सिंहासन पर बिराजमान होकर मेरी प्रार्थना सुनें।
  • चौबीसवें पाशुरम् में, आण्डाळ् भगवान कृष्ण को सिंहासन पर आसीन देखकर आनन्दभाव से प्रसन्नचित होकर भगवान का मङ्गलाशासन् करती हैं। पेरियाऴ्वार् की पुत्री होने के नाते, अपने पिता की तरह, दंडकारण्य के ऋषियों की तरह, माता सीताजी की तरह, आण्डाळ् का परम ध्येय ही भगवान् का मङ्गलाशासन करना है। भगवान को स्वयं से और सखियों के साथ मिलकर कष्ट दिया, इस बात को अनुभव कर, भगवान का मङ्गलाशासन करती हैं।
  • पच्चीसवें पाशुरम् में जब सिंहसनाधीश भगवान कृष्ण आण्डाळ् और उनकी सखियों से पूछते हैं, उनके व्रत अनुष्ठान के लिये और कोई वस्तु, द्रव्य की आवश्यकता तो नहीं? आण्डाळ् कहती हैं, भगवन आपके गुणानुवाद से हमारे सारे दुःख कष्ट दूर हो गये, भगवान् को अपने कोमल पादारविन्द आगे बढाते देख कहती है , हमें तो बस आपके चरण कमलों का कैंकर्य चाहिये।
  • छब्बीसवें पाशुरम् में आण्डाळ् व्रत को परिपूर्ण रूप से संपन्न करने के लिये भगवान् से कुछ सामग्री के लिये निवेदन करती है। यद्यपि, पिछले पाशुरम् में आण्डाळ् ने भगवान् के पूछने पर कहा था कि चरण सेवा के सिवा किसी और वस्तु सामग्री नहीं चाहिए। इस पाशुरम् में अब आण्डाळ् व्रत सम्पन्न करने के लिये कुछ सामग्री वस्तु निवेदन करती है। आण्डाळ् भगवान से इन वस्तुओं का निवेदन करती है- पाञ्चजन्य शंख, मङ्गलाशासन करने के लिये परिकर, भगवान् के सुन्दर स्वरुप के स्पष्ट दर्शन करने के लिये दीप, एक ध्वज जो भगवान की उपस्तिथिति की अनुभूति कराये और एक वस्त्र जो छतरी की अनुभूति करवा सके। हमारे पूर्वाचार्य अपने व्याख्यानों में यह व्यक्त करते है कि आण्डाळ् को इन वस्तुओं की आवश्यकता उनके पूर्णरूपेण कृष्णानुभव के लिये चाहिये थी। इस पाशुरम् में आण्डाळ् स्वयं सिद्ध करती हैं कि आण्डाळ् और उनके सखियों पर भगवान् का प्रेम उनके प्रेम से बृहत्तर है।
  • सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें पाशुरम् में, आण्डाळ् ने स्पष्ट रूप से प्रमणित किया है कि प्राप्य (लक्ष्य / ध्येय) और प्रापक (साधन / युक्ति ) दोनों भगवान् श्रीमन्नारायण ही हैं।
  • सत्ताईसवें पाशुरम् में आण्डाळ् ने भगवान के विशिष्ट गुण की व्याख्या करते हुये कहती है कि भगवान् श्रीमन्नारायण दोनों ही “आस्तिक / अनुकूल” लोग (भक्त) और “नास्तिक / प्रतिकूल” लोगों को (भगवान् को अस्वीकार करनेवाले) अपनी ओर आकर्षित करते हैं ।साथ यह भी स्थापित करती है कि जीव का चरम लक्ष्य “सायुज्य मोक्ष” प्राप्त कर भगवान के दिव्य धाम में उनकी नित्य सेवा (भगवत् कैङ्कर्य) का आनन्द प्राप्त करना है।
  • अट्ठाईसवें पाशुरम् में आण्डाळ्, यह स्पष्ट समझाती है कि भगवान् का सभी जीवात्माओं से “निरुपाधिक सम्बन्ध” (शाश्वत सम्बन्ध ) है। भगवत प्राप्ति के लिये किसी भी साधना को अनुष्ठान करने स्वयं को असमर्थ समझती है। भगवान् का गुणानुवाद करते हुये भगवान की महानता समझाती है। भगवान अपने भक्त के उद्धार के लिये, बिना उससे किसी अपेक्षा के (जीवात्मा से बिना किसी अपेक्षा के, वृन्दावन के धेनु जैसे) सदा तत्पर रहते हैं, और यह तथ्य प्रमाणित करती है।
  • यह पाशुरम् हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है। एक शरणागत के लिये नायनार् छः गुणों का समीकरण बतलाते हैं: भागवत को “सिद्धोपाय निष्ठ” (भगवान् को ही उपाय स्वीकार करने वाला) होना चाहिये, उसके पास भगवान् को प्राप्त करने के लिये, अर्पित करने सिवाय अपनी निष्ठा के अलावा कुछ नहीं होना चाहिये, स्वयं को कोई योग्य न मानते हुये सदा स्वयं को अधम मानना चाहिये, सदा नम्र रहना चाहिये, भगवान को सदा “मूल सुकृत” (सभी मङ्गल् के कारण) जानते हुए, सदा उनके दिव्य गुणों का चिन्तन करते रहना चाहिये। भगवान का और जीवात्मा के शाश्वत सम्बन्ध का अनुभव करते रहना, अनादि काल से करते आ रहे अपराधों के लिये क्षमा याचना करते रहना चाहिये। सदा भगवान् से नित्य कैङ्कर्य के लिए प्रार्थना करना चाहिए।
  • उन्तीसवें पाशुरम् में, आण्डाळ् देवी यह प्रकट करती है कि भगवद कैङ्कर्य, केवल भगवान् के आनन्द के लिए है (न कि स्वयं के लिये ), और यह तत्व शरणागति में अति महत्वपूर्ण है। यहाँ पराम्बा गोदाम्बाजी स्पष्ट कहती है की “व्रत” तो केवल कृष्णानुभव करने का प्रयोजन मात्र था, उन्हें तो कृष्ण से मिलने की लगन थी |
  • तीसवें पाशुरम् में श्री भगवान पराम्बा माँ गोदाम्बा देवी के सभी मनोरथ पूर्ण करने का आश्वासन देती है।
    २९ वें पाशुरम् तक देवी आण्डाळ् भगवान का गुणानुवाद, और भगवान से मिलने की अभिलाषा लिये गोपी भाव से प्रार्थना कर रही थी। इस पाशुरम् में भगवान से आश्वासन पाकर, अब स्वयं के भाव से इस जगत के जीवों को सम्बोधित कर अपार करुणावरुणालय माँ गोदाम्बा जी कह रही है, इन ३० पाशुरों का जो भी अनुसंधान करता है, वह उन्हीं की तरह भगवान के कैंङ्कर्य को प्राप्त करता है। साथ यह भी स्पष्ट दर्शाती है की इस अनुसंधान में, प्रेमभाव या निष्ठा भले ही उनकी तरह या वृन्दावन की गोपियों की तरह न हो, फिर भी वात्सल्य मूर्ति माँ आण्डाळ् की कृपा से, भगवत कृपा के प्रसाद की प्राप्ति होती है। भगवान कृष्ण के समय की वृन्दावन की व्रज वनिताओं (गोपियों) की तरह ही, देवी आण्डाळ् ने श्रीविल्लिपुत्तूर को वृन्दावन मानकर व्रज की गोपियों की तरह ही अपनी सखियों के साथ भगवान वटपत्रशायि के मंदिर को नन्द भवन मानकर, भगवान को पाने इस व्रत में इन पाशुरों को गाकर भगवान को सुनाया था। यहाँ पूर्वाचार्य श्री पराशर भट्टर स्वामीजी कहते हैं, जिस तरह गाय अपने बछड़े को खोने के बाद भी, नकली बछड़े को देखते ही उसके थनों में दूध प्रवाहित होने लगता है, ऐसे ही भगवान की अति प्रिय करुणामूर्ति माँ गोदाम्बाजी द्वारा गाये इन पाशुरों का गान जो भी करता है, उसे भी वही फल मिलता है जो देवी आण्डाळ् को मिला था। देवी आण्डाळ् तिरुप्पावै को क्षीराब्दि मन्थन प्रसङ्ग से विराम देती है, कारण कि गोपियाँ भगवान् कृष्ण को पाना चाहती है, और भगवान् को पाने के किए माता लक्ष्मी के “पुरुषकार” की आवश्यकता है। भगवान् ने क्षीरसागर का मन्थन मुख्यतः इसलिए किया था, ताकि माता लक्ष्मी देवी का समुद्र से आविर्भाव हो और भगवान उनका वरण करें।
    अतः आण्डाळ् तिरुप्पावै इस प्रसङ्ग का उल्लेख करते हुये समाप्त करती है। और अपने व्रत के अंत में देवी आण्डाळ् अपनी आचार्य निष्ठा अभिमान जतलाते हुये स्वयं का परिचय “पट्टर्पिरान् कोदै” (पेरियाऴ्वार् की सुता) कहती हुई इस प्रबन्ध को और अपने व्रत में तिरुप्पावै गायन को विराम देती हैं।

इस तरह नायनार् अपनी उत्तम विद्वत्ता का परिचय देते हुए, अपनी अवतारिका में बहुत ही शोभायमान रूप से तिरुप्पावै गाथा का सारांश, एक बडे अनुच्छेद के रूप में देते हैं। दास समूह, नयनार् की विद्वत्ता को वर्णन करने का सामर्थ्य नहीं रखते, किन्तु उनके इस ज्ञान पर विस्मय होता है। ऐसा ज्ञान जब भगवान् की परम भक्ति के साथ मिश्रित हो तब परिणाम, हमारे लिए परम भगवत् अनुभव हो जाता है। हमारे पूर्वाचार्यों ने तिरुप्पावै को बहुत सराहा है और हमारे सम्प्रदाय और नित्यानुसन्धान में तिरुप्पावै का विशेष स्थान है। हम केवल देवी आण्डाळ् के चरणकमलों में प्रार्थना कर सकते हैं कि उनके भगवान् और भागवतों के प्रति जो प्रेम है, उसका लेशमात्र भी हमारे मन में भी विकसित हो।

अडियेन विजयकुमार रामानुज दासन्
अडियेन श्याम्सुन्दर् रामानुज दासन्

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