श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः
लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां
९१ ) शेषत्वम् आत्मावुक्कु स्वरूपमानाल् देहत्तुक्कु विरोधियाय् निर्कुम् निलै कुलैन्दु
यथा आत्म दास्यम् हरेः स्वाम्यं अर्थात् भगवान् श्रीमन्नारायण ही परमात्मा एवं सर्व शेषी है और अन्य चेतन उनके शेष व दास है । जीवात्मा अगर यह समझ जावें तो जीवात्माके भौतिक शरीर को अऴुक्कु उडम्बु नही माना जाएगा ।
अनुवादक टिप्पणी ः प्रायः मनुष्य देह को आध्यात्मिकता के दृष्टिकोण से बाधा माना जाता है क्योंकि देहात्मक बुद्धि और देहाभिमान हमे भगवद्विमुख कर देते है। लेकिन जीव जब वास्तविक स्वरूप को समझ जावें तो प्राप्त देह से प्रारंभ कर जीव समस्त वस्तुओं को स्वरूपानुरूप भाव से भगवद्-सेवा मे प्रयोग करता है। इस दृष्टिकोण मे, प्राप्त देह बाधक नही है। इस तत्त्व को श्रीतिरुमालै-आण्डान् (श्रीरामानुजाचार्य स्वामीजी के पंचाचार्यों मे से एक आचार्य) की दिव्य वचन से समझ सकते है। श्रीनाच्चियार्-तिरुमोऴि ११.६ व्याख्या मे, श्रीपेरियवाच्चान्-पिळ्ळै स्वामीजी श्रीतिरुमालै-आण्डान् स्वामीजी की आचार्य भक्ति का उदाहरण स्व शब्दों मे देते है। श्रीतिरुमालै-आण्डान् स्वामीजी कहते है कि हालांकि जीव को देह मे आसक्ति और देह संबंधित सर्व वस्तुओं का त्याग करना चाहिए। श्रीतिरुमालै-आण्डान् स्वामीजी आगे कहते है कि उनका यह देह अर्थात् जीव के देह को उपेक्षित नही करना चाहिए क्योंकि उनके इस देह से ही उनकों श्रीआळवन्दार का दिव्य संबंध प्राप्त किया है जो अन्ततः अपेक्षित लक्ष्य अर्थात् परमपद मे नित्य किङ्करता प्रदान करेगा।
९२) शेषवस्तुविन् व्यापारमडैय शेषितानक्कडिमैयाग निनैत्तिरुक्किरप्पडि
भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन का पूर्ण संरक्षण किया।सर्व शेषी भगवान् जीवात्माओं के सभी क्रियाओं को, उनके प्रति समर्पित क्रियाओं के रूप मे मानते क्योंकि जीवात्मा स्वयं भगवान् का दास व शेष है।
अनुवादक टिप्पणी: जब जीवात्मा भगवान् का शरणागत होता है तो भगवान् जीवात्मा का पूर्ण भार लेकर, उसके जीवन का पूर्ण नियत्रण स्वयं करते है। पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वामीजी के स्व ग्रन्थ मुमुक्षुप्पडि २५८वे सूत्र मे चरमश्लोक के विवेचन मे इस विषय को कहते है। चरमश्लोक मे भगवान् कहते है ‘मोक्षयिष्यामि’ अर्थात् मोक्ष व मुक्ति प्रदान करूंगा अर्थात् मै जीव का संरक्षण करूंगा। पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वामीजी स्व सूत्र मे कहते है इनि उन्कैयिलुम् उन्नैक्काट्टित् तारेन् , एन् उडम्बिल् अऴुक्कै नाने पोक्किक्कोळ्ळेनो – मै तुमको तुम्हारा ख्याल रखने नही दूंगा। क्या मै स्वशरीर की गंदगी को साफ स्वयं नही करूंगा। इस सूत्र के व्याख्याकार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अभूतपूर्व दृष्टिकोण मनमोहक है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते है – अब तक तुम अपने आपको स्वतंत्र मानते रहे। परन्तु अब स्वस्वरूप ज्ञान प्राप्त कर अर्थात् यह जानकर मै (जीव) स्वतंत्र नही परतन्त्र हूं इस भाव से मेरी शरणागति किए। जैसे शरीर आत्मा पर निर्भर है ठीक उसी प्रकार जीवात्मा भी परमात्मा पर निर्भर है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को सांत्वना देते हुए कहते है – हे अर्जुन, तुम्हारे मन की अज्ञानता को दूर करने का संरक्षण का पूरा भार भगवान् का है।
९३) अवतार कालत्तिल् उदवातवर्कुम् इऴक्क वेण्डातपडियिरे कोयिलागिळिले वन्दु काण्वळर्तु
भगवान् इस जगत् मे अनेकानेक अवतारों के माध्यम से अवतरित होकर स्वाश्रित भक्तों के तापत्रयों को हरते है। जो जीवात्माएँ भगवान् के इन विभिन्न अवतारों का लाभ नही उठा सकें उन सभी के लिए भगवान् स्वयं निर्हेतुक कृपा से अर्चावतार रूप मे श्रीरङ्गमित्यादि दिव्य क्षेत्रों मे अवतरित होकर शयन करते है।
अनुवादक टिप्पणी : श्रीमद्भगवद्गीता ४.५-४.९ श्लोकों मे, भगवान् श्रीकृष्ण अपने अवतारों के रहस्य का प्रतिपादन किया है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते है वह समय समय पर भक्त संरक्षण, दुष्ट शिक्षण और अधर्मों का संहार और धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए अवतार लेते है। प्रायः उनके अवतार हर युग मे होते है। त्रेता और द्वापर युग मे भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप मे प्रकट हुए। जिन जीवात्माओं ने भगवान् के इन अवतारों के अनुग्रह का अवलोकन नही किया उन सभी के लिए भगवान् स्वयं निर्हेतुक कृपा से विभिन्न दिव्यदेशों मे अर्चावतार रूप मे प्रकट होते है। श्रीतिरुमङ्गै-आऴ्वार स्व ग्रन्थ तिरुनेन्डुदाण्डगम् के १०वें पासुर मे इस विषय का प्रतिपादन किए है – पिन्नानार् वाणाङगुम् शोदि तिरुमुऴिक्कळत्तानाये – उन जीवों के लाभ के लिए भगवान् ने तेजोमय तिरुमूऴिक्कळम् अर्चावतार रूप मे प्रकट हुए है जिनने भगवान् के पर,व्यूह, विभव अवतारों का दिव्य अनुभव नही किया है।
९४) उगन्तरुळिन निलङ्गळिले मेय्ये प्रतिपत्ति विळैन्दार्क्कु अन्गुळ्ळवरै एल्लाम् उद्देश्यमाय्त्तोन्रुम्
अनुवादक टिप्पणी : दिव्यदेश भगवान् को सदैव अत्यन्त प्रिय है। भगवान् इन दिव्यदेशों मे प्रगट होकर आश्रित भक्तों और अन्य जीवों को उनके माधुर्य सुलभ स्वरूप के प्रति आकर्षित कर विशेष कृपा करते है। अतः हमारे आऴ्वार् और आचार्यों ने इन दिव्यदेशों के प्रति विशेष लगाव सदा दिखाया है। जिन भक्तों को भगवान् के अत्यन्त प्रिय दिव्यदेशों (श्रीरङ्गम, तिरुमला, मेलुकोटा) मे अपार विश्वास और रति है, इन दिव्यदेशों मे प्रस्तुत सर्व वस्तु सदा वांछनीय और अनूकल है। पूर्वाचार्यों के जीवन मे ऐसे अनेक घटनाएँ है जो पूर्वोक्त वाक्यों को प्रतिपादित करते है। एक ऐसी घटित घटना मे, श्रीअनन्ताळ्वान् स्वामीजी जी का उदाहरण बार बार दिया जाता है। एक बार, श्रीअनन्ताळ्वान् स्वामीजी श्रीतिरुवेंकट से उतरने के बाद, प्रसाद पाने के लिए प्रसाद पोटली को खोलते है। पोटली को खोलते ही श्रीअनन्ताळ्वान् स्वामीजी यह देखते है कि उनकी प्रसाद पोटली मे कई छोटे से बड़े चींटीयां है। श्रीअनन्ताळ्वान् स्वामीजी तुरन्त प्रसाद पोटली को बन्दकर श्रीतिरुवेंकट पहुँचकर इन चींटीयों को श्रीतिरुवेंकट पर्वत पर छोड देते है। इस दृष्टान्त से यह दर्शा रहें कि श्रीअनन्ताळ्वान् स्वामीजी को पूर्व आऴ्वारों के दिव्य वचनों मे अपार विश्वास है। आऴ्वारों का कथन है कि श्रीतिरुवेंकट मे श्रीनिवास भगवान् के सेवाभिलाषी देवगण एवं नित्यसूरीगण वहां विभिन्न रूपों मे उपस्थित रहते है। श्रीपराशरभट्ट स्वामी कृत श्रीरङ्गराजस्तव मे श्रीपराशरभट्ट स्वामी कहते है कि श्रीरङ्गम मे, नित्यसूरीगण, वृक्षों और पौधों के रूप मे प्रकट रहते है।
९५) अप्राकृत संस्थानत्तै इतर सजातीयमाक्का निर्पदु, तन् जन्मत्तै अनुसन्धित्तारुडैय जन्मङ्गळ् पोम्पडियायिरुप्पदु
संस्थान – रूप, अप्राकृत संस्थान – दिव्य रूप
आपके दिव्य (कलंकरहित) स्वरूप का, मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि मे रूपान्तरण होना आपके विभिन्न अवतारों का एक विशेष अङ्ग और कला है जिसके माध्यम से आप जीवात्माओं को आपके इन दिव्य स्वरूपों का ध्यान करने का लाभ प्रदान कर उनके जन्म-मृत्यु चक्र को रोकते है।
अनुवादक टिप्पणी : परमपद मे विराजमान भगवान् का वास्तविक कलंकरहित दिव्य स्वरूप इस भौतिक जगत् मे भी दृष्टिगोचर है। श्रीशठकोप स्वामीजी तिरुवाय्मोऴि ३.५.५ अङ्गु वैत्तु इङ्गुप्पिरन्दु पासुर मे यही बताये है। श्रीनम्पिळ्ळै इस पासुर व्याख्या अर्थात् ईडु व्याख्या मे भगवान् के दिव्य शब्दों भगवद्गीता ४.६ श्लोक – प्रकृतिम् स्वां अधिष्ठाय – का पुनः उद्धृत कर सुन्दरता से पासुर भाव को समझाते हुए कहते है भगवान् स्वयं इस भौतिक जगत् मे अहैतुकी कृपा से अवतार लेते है। जो जीव भगवान् के इस दिव्य जन्म के प्रति रतिवान होते है वह जीव इस जन्म-मृत्यु चक्कर से मुक्त होते है। भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता ४.४ श्लोक जन्म कर्म च मे दिव्यं मामेति सो$र्जुन – हे अर्जुन ! वह जो मेरे दिव्य जन्म अौर कार्यों को जानता है, वह (जीव) देह त्याग ने के पश्चात् इस भौतिक जगत् मे पुनः नही आता।
९६) ओरु प्रयोजनत्तिर्कागप् पोवार्गळन्रो अदुकोण्डु मीळलावदु। तन्नैये प्रयोजनमागप् पट्रप् पोवार्क्कुम् मीळविरङ्गुण्डो? इप्पडियिरे भगवदत् प्रावण्यमुडैयार् पडि।
जब जीव भगवान् के अलावा अन्य वस्तुअों की अभिलाषा से भगवान् की अोर बढता है तो अभिलाषित प्राप्त कर फल प्रदाता भगवान् को जीव भूल जाता है। परन्तु भगवान् को उपेय (लक्ष्य) मानने वाले जीवों को भगवान् को भूलने या छोडने का कोई कारण नही होता है। भगवान् मे पूर्णतया भावुक जीवों की यह वास्तविक स्थिति है।
अनुवादक टिप्पणि : अन्याभिलाषा रहित भगवान् की सेवा करना ही जीवों का स्वभाव है। विभिन्न प्रकार के जीव भगवान् का आश्रय लेते है जैसे भगवान् कृष्ण स्वयं भगवद्गीता ७.१६ श्लोक मे कहते है :
चतुर्विधा भजन्ते माम् जनस्सुकृतिनोर्जुन । अार्तो जिज्ञासुरार्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी (सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला), आर्त (संकटनिवारण के लिए भजने वाला) जिज्ञासु (मेरे को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजने वाला) और ज्ञानी (जीव के यथार्थ रूप अर्थात् जीव भगवान् का दास है को जानने वाला) – ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझे भजते हैं।
आगले श्लोकों मे, भगवान् कहते है की इन भक्तजनों मे ज्ञानी उनका सर्व प्रिय है क्योंकि ज्ञानी और भगवान् मे एक दूसरे के प्रति पारसपरिक अनुरक्ति है। आगे यह भी कहते है की ऐसे ज्ञानी जन उनके आत्मा के समान है – ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतम् ।
इस विषय की सम्मति श्रीपोइगै-आऴ्वार् मुदल्-तिरुवन्दादि के २६वें पासुर मे कहते है –
एऴुवार् विडै कोळ्वर्
ईन् तुऴायानै वऴुवा वगै निनैन्दु वैगल् तोऴुवार्
विनैच्चुडरै नन्दुनिक्कुम् वेङ्गडमे
वानोर् मनच्चुडरैत्तूण्डुम् मलै
ईन् तुऴायानै – (वह) जो अति सुन्दर तुलसी माला से सुशोभित है, एऴुवार् – (वह) जो धन की अभिलाषा से प्रार्थना कर, वांछित फल पाकर भगवान् को छोड देता है, विदै कोळ्वर् – (वह) जो कैवल्य की प्राप्ति के लिए प्रार्थना कर, वांछित फल पाकर भगवान् को सदैव के लिए छोड देता है, वऴुवा वगै निनैन्दु वैगल् तोऴुवार् – (वह) जो भगवान् के साथ नित्य रहने और उनकी सेवा करने के लिए प्रार्थना करता है।
इन तीन प्रकार के भक्तजनों के लिए, तिरुवेंकट पर्वत ही, उनके पापों का नाश करेगा। श्रीनम्पिळ्ळै स्वामीजी इस पासुर व्याख्या मे उपरोक्त भगवद्गीता के श्लोक का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण देकर समझाते है।
९७) अनन्तशायित्वम् सर्वाधिक वस्तुक्कु लक्षणमागैयाळे सर्वाधिकने शरण्यन् एन्गिरदु
भगवान् की भगवत्ता को इंगित करने वाला विशेष गुण यह है की भगवान् आदिशेषजी के स्वामी है जो श्रीआदिशेषजी पर योगनिद्रावस्था मे शयन करते है। ऐसे परात्पर परमात्मा भगवान् सभी के आश्रय है।
अनुवादक टिप्पणी : ऐसे कई विशेष गुण है जो केवल भगवान् मे ही विराजमान है। उभयविभूतिनाथत्व – दोनों विभूतियों अर्थात् त्रिपादविभूति (आध्यात्म जगत्) और एकपादविभूति (भौतिक जगत्) के स्वामी भगवान् है। उभयलिंगत्व – दोनों प्रकार के तादात्म्य से भगवान् ज्ञेय है अर्थात् कल्याणमय एवं मंगलमय गुणों का संगम स्थल एवं अमंगलमय गुणों के विपरीत गुणों (कल्याणमय गुणों) का संगम स्थल भगवान् है – कहने का तात्पर्य यह हुआ की भगवान् मे केवल कल्याणमय एवं मंगलमय गुण सन्निहित है। अनन्यशायित्व – वह भगवान् जो श्रीआदिशेषजी पर योगनिद्रावस्था मे शयन करते है। पुण्डरीकाक्षत्व – वह भगवान् जिनके नयन सुन्दर कमल के फूलों के समान है अर्थात् कमल नयन भगवान्। गरुडवाहनत्व – वेदात्मा शब्द से गौरान्वित गरुडजी पर विराजमान (आरोही) भगवान् अर्थात् वह भगवान् जिनकी सवारी (वाहन) वेदात्मा रूपी गरुडजी है। ऐसे विशेगुण किसी अन्य व्यक्तित्व मे विराजमान होना असंभव और नामुमकिन है। ऐसे विशेषगुण सम्पन्न व्यक्तित्व ही सभी जीवों का आश्रय है। श्रीशठकोप स्वामीजी स्व ग्रन्थ तिरुवाय्मोऴि ५.१०.१० पासुर – नागणै मिशै नम्पिरान् चरणे शरण् नमक्कु मे उपरोक्त भाव को प्रगट किए है। श्रीनम्पिळ्ळै स्वामीजी उपरोक्त पासुर के स्व व्याख्या मे इसी प्रसंग को निर्दिष्ट किए है।
९८) आचार्यन् वार्त्तै केट्टु धरित्तल्, अवन् अभिमानत्ताले धरित्तलोऴिय वेरोन्रिल्लै
स्वाचार्य के निर्दिष्ट उपदेशों का अनुपालन और उनकी कृपा का अवलंब से निर्वीह करना ही एक शिष्य का कर्तव्य है और कुछ नही।
अनुवादक टिप्पणी : सभी उपायों मे, आचार्याभिमान जीवोत्थापन का सबसे सरल और योग्य उपाय है। आचार्य सर्व प्रथम भगवद्विषय के प्रमुख विषय तत्त्वों का प्रतिपादन कर शरणागत जीव को समझाते हुए सतत कहते है – हे जीव, परमात्मा और तुम्हारा संबंध नित्य है। श्रीवचनभूषण दिव्य शास्त्र ग्रन्थ के अन्तिम प्रकरण मे पिळ्ळै लोकाचार्य स्वीमीजी इस विषय तत्त्व का प्रतिपादन किए है। इस ग्रन्थ मे पञ्चमोपाय के गौरवमय तत्त्व को समझाकर, आचार्याभिमानमे उत्ताकरम् सूत्र मे तत्त्व सार प्रस्तुत करते है। इस सूत्र की टीका मे टीकाकार कहते है – शिष्य की परिस्थिति भौतिक जगत् मे देखकर एक आचार्य की कृपा दृष्टि एवं अनुग्रह ही शिष्य का उत्तारक है अर्थात् शिष्य के प्रति आचार्य का परगत स्वीकारता। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सत्साम्प्रदाय के प्रमुख तत्त्व को प्रकाशित करते हुए कहते है की पिळ्ळै लोकाचार्य स्वीमीजी इसी प्रमुख तत्त्व को प्रकाशित कर रहे है। यथा कर्म, ज्ञान, भक्ति, स्वगत आचार्य स्वीकारता (अर्थात् जीव स्व प्रयासों से एक आचार्य को स्वीकारना और मानना की यह जीव का पसन्द है) इत्यादि मोक्ष के उपाय माने जाते है, परन्तु वास्तविकता मे ये सभी असली उपाय नही है क्योंकि यह सभी जीव के स्वरूप के प्रतिकूल है। भगवान् के प्रति प्रपत्ति करना भी एक दृष्टिकोण से भयानक है क्योंकि स्वतन्त्र भगवान् जीव को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते है। अतः वह आचार्य जो शिष्य के कल्याण की सदा चिन्ता करता है और जो अद्वितीय कृपा के निधि है ऐसे आचार्य की निर्हेतुक कृपा कटाक्ष ही शिष्य के उत्थापन का एक मात्र आश्रयोपाय है।
९९) स्वरूपान्तरगतैयान कृपैक्कऴिविल्लैयिरे। अदु सत्तैयुळ्ळतनैयुम् विलैच्चेल्लुमिरे
कोलप्पिरान् – तिरुवल्लवाऴ्
अनुवादक टिप्पणी ः भगवान् की कृपा भगवान् का सबसे प्रमुख और महत्त्वपूर्ण गुण है। आपकी यह स्वाभाविका कृपा निर्हेतुक है जिससे आप जीवात्माओं का उत्थान सतत करने मे प्रयत्नशील है। आप जीवात्माओं के हृदय मे आपकी इस निर्हेतुक कृपा से आपके प्रति रति को जागृक करते है। जीवात्मा जब भगवान् के सम्मुख होकर सतत उत्थान करने वाली आपकी कृपा का अवलंब करता है तो स्वतः जीवके हृदय मे स्वस्वरूप का तेजोमय ज्ञानका प्रकाश होता है। अऴगिय-मणवाळ-पेरुमाळ्-नायनार् स्वामीजी का अद्भुत ग्रन्थ श्रीसम्प्रदाय का अनोखा एवं श्रेष्ठ ग्रन्थ है। इस श्रेष्ठ ग्रन्थ मे ग्रन्थ रचना कारने श्रीशठकोप स्वामीजी के विभिन्न दिव्य मनोभावों और उनके सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। २१८ सूत्र मे ग्रन्थरचनाकार कहते है – तिरुवाय्मोऴि के प्रत्येक शतक भगवान् के प्रत्येक गुणों को प्रकाशित करते है और तदनुसार कृपा के प्रभाव से श्रीशठकोप स्वामीजी के शरीर मे प्रगट विभिन्न दिव्य मनोभावों का रसमय परिचय विस्तार से करते है। इस सूत्र मे ग्रन्थ रचनाकार कह रहे है की तिरुवाय्मोऴि का पाँचवाशतक भगवान् की कृपा व करुणा का द्योतक है। पूर्वाचार्यों का मत है की इस करुणा के अवलंब से श्रीशठकोप स्वामीजी मे भगवान् के प्रति असीमित प्रेम का उद्भव हुआ था। ग्रन्थ रचनाकार १६५ सूत्र मे कहते है की श्रीशठकोप स्वामीजी को भगवान् की कृपा की दिव्यानुभूति तिरुवल्लवाऴ् दिव्यदेश (तिरुवाय्मोऴि ५.९ – मानेइ् नोक्कु – मेलिविलुम् चेमम् कोळ्विक्कुम् कृपै तेन्नगरिले नित्यम्) मे हुआ। अतः भगवान् की दिव्य एवं गौरव मय कृपा का स्वभाव स्पष्टता से निर्दिष्ट हुआ और ऐसी कृपा का प्रभाव का प्रकाशन श्रीशठकोप स्वामीजी के वैभवमय जीवन और प्रतिपादित सिद्धान्तों से हुआ।
१००) नम्माचार्यर्गळ् व्यापक मन्त्रङ्गळ् मून्रिलुम् द्वयत्तैये आधारिप्पर्गळ्
श्रीनम्पेरुमाळ् (श्रीरङ्गनाथ-भगवान्) और श्रीनाच्चियार् (श्रीमहालक्ष्मी-अम्माजी) – द्वयमहामन्त्र का प्रतिपाद्य विषय
भगवान् का स्वभाव और उनकी महिमाका वर्णन दो श्रेणियों के मन्त्रों मे वर्णित है। मन्त्रों की कई श्रेणियाँ है परन्तु मुख्य श्रेणियाँ दो है – व्यापक औऱ अव्यापक। व्यापक श्रेणि मन्त्रों को अव्यापक श्रेणि मन्त्रों की तुलना मे सर्वाधिक माना जाता है। व्यापक श्रेणि के तीन सर्वविदित मन्त्र है – तिरुमन्त्र (तिरुवष्टाक्षर) (भगवान् श्रीमन्नारायणका अष्टाक्षरमन्त्र), तिरुद्वादशाक्षरमन्त्र (श्रीवासुदेवमन्त्र), षडाक्षरमन्त्र (श्रीविष्णुमन्त्र) जो सर्वश्रेष्ठ है। इन सभीकी तुलना मे पूर्वाचार्यों ने द्वयमहामन्त्र को अधिक महत्त्व दिया है।
अनुवादक टिप्पणी : श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वग्रन्थ मुमुक्षुप्पडि के प्रारम्भ मे ही कहते है की मन्त्रों की श्रेणियाँ दो प्रकार है। मन्त्र का यह अर्थ है कि वह जो जापक व पाठक की रक्षा करता है। साधारणत: मन्त्र के तीन भाग होते है – प्रणव (यह जीवात्मा और परमात्मा के यथार्थ संबंध को बतलाने वाला भाग है), तिरुनाम (दिव्यनाम) – दूसरा भाग भगवान् का ऐसा नाम जो ध्यान का केन्द्र बिन्दु है, नम: – तीसरा भाग यह स्वीकारना की भगवान् ही उपाय है। व्यापक मन्त्र तीन है – तिरुमन्त्र (तिरुवष्टाक्षर) (भगवान् श्रीमन्नारायणका अष्टाक्षरमन्त्र), तिरुद्वादशाक्षरमन्त्र (श्रीवासुदेवमन्त्र), षडाक्षरमन्त्र (श्रीविष्णुमन्त्र)। अव्यापक मन्त्र भगवान् के कल्याण गुणों, लीलाओं का महिमागान करते है यथा केशव नाम का अर्थ केशि राक्षस का नाश करने वाला व सुन्दर केश वाला हुआ। व्यापक मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि भगवान् श्रीमन्नारायण के यथार्थ स्वभाव को प्रकाशित करते है।
उपरोक्त तीन व्यापक मन्त्रों का संक्षिप्त अर्थ :
१) षडाक्षरमन्त्र (श्रीविष्णुमन्त्र) – अोम् विष्णवे नम: – विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति (विषि – व्याप्ति) के अनुसार अर्थ – वह जो व्याप्त है।
२) तिरुद्वादशाक्षरमन्त्र (श्रीवासुदेवमन्त्र) – अोम् नमो भगवते वासुदेवाय – सर्वस्य वसतीति वासुदेव: – वह जो सर्व व्याप्त है। यह मन्त्र कहता है कि भगवान् सर्व व्याप्त है लेकिन मन्त्र प्रतिपाद्य भगवान् का मुख्य कल्याण गुण को पूर्णतया प्रकाशित नही करता। इस मन्त्र मे भगवते शब्द से षाडगुण सम्पन्न भगवद्-स्वरूप प्रतिपाद्य है परन्तु मन्त्र पूर्ण नही है।
३) तिरुमन्त्र (तिरुवष्टाक्षर – अष्टाक्षरमन्त्र) – अोम् नमो नारायणाय – नारायण शब्द षाडगुण सम्पन्न भगवद्-स्वरूप एवं भगवान् का मुख्य कल्याण गुण को पूर्णतया प्रकाशित करता है। नारायण शब्द से हम यह समझते है की भगवान् चिदाचित मे व्याप्त है (सर्वव्यापकत्व) और सभी चिदाचित वस्तुओं का संपोषण भगवान् स्वयं करते है (आधारत्व)। अत: यह मन्त्र भगवान् का मुख्य कल्याण गुण को पूर्णतया प्रकाशित करता अत: यह मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है।
तिरुमन्त्र का अधिक विस्तारक रूप द्वयमहामन्त्र है। द्वयमहामन्त्र भगवान् श्रीमन्नारायण और भगवती श्रीमहालक्ष्मी के संबंध का प्रतिपादन सुस्पष्टता से करता है। अतः हमारे पूर्वाचार्यों ने श्रद्धा से इस महामन्त्र को अधिक मान्यता दिया और इस महामन्त्र मे अत्यन्त रति दिखाया भी है।
अडियेन् सेट्टलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास
आधार – https://granthams.koyil.org/2013/08/divine-revelations-of-lokacharya-10/
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