तिरुप्पावै अनुभव – तिरुप्पावै – अर्थपञ्चकम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः

पराम्बा माँ गोदाम्बाजी (आण्डाळ् देवी) द्वारा रचित तिरुप्पावै उभय वेदांत का सार है| इस तिरुप्पावै के गूढ़ रहस्यार्थ को आत्मसात करने पर , परमपद प्राप्ति में आने वाली सारी बाधाएं , अड़चने ,स्वयमेव समाप्त हो जाती है| परमपद का मार्ग सुगम और सुलभ हो जाता है|

आण्डाळ् – रन्गमन्नार्, श्रीविल्लिपुतूर्

आचार्य पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने अपनी मुमुक्षुप्पडि में  कहा है की,  एक मुमुक्षुको ( इस संसार के बंधनो से मुक्त हो, मृत्यु लोक में आवागमन से मुक्त हो , परमपद में भगवान् के नित्य कैङ्कर्य में सलंग्न रहने की आकांक्षा रखने वाला) को  “अर्थ पञ्चकम्” (पञ्च भाव ) का पूर्ण रूपेण ज्ञान होना अति आवश्यक है  |

अर्थ पञ्चकम् के यह पांच भाव कुछ इस प्रकार है:

१.  परमात्म स्वरूपम्| (भगवान् के स्वरूप का ज्ञान) |

२.  जीवात्म स्वरूपम्| (स्व-स्वरूप/ पृथक आत्म स्वरूप/जीव का स्वरूप का ज्ञान) |

३.  उपाय स्वरुपम्| (भगवत प्राप्ति के साधन का का ज्ञान ) |

४.  उपेय स्वरूपम्|  (जीव के अपने लक्ष्य याने भगवत प्राप्ति के पश्चात की गतिविधियां का ज्ञान) |

५.  विरोधि स्वरूपम्| (लक्ष्य की प्राप्ति याने भगवत प्राप्ति में आने वाली बाधाएं \ रुकावटों का ज्ञान   होना) |

तिरुप्पावै के पहले पासुरम् में ही आण्डाळ् देवी संक्षेप में अर्थ पञ्चकम् बतलाकर समझाती है | यहां आण्डाळ् देवी कहती है  “नारायणने नमक्के परै तरुवान्”, पूर्वाचार्यों के अनुसार आण्डाळ् देवी की इस पंक्ति के भाव कुछ इस प्रकार है|

  • “नारयाण”  भगवान नारायण को सम्बोधित करने वाला यह नाम , यहाँ भगवान के परमात्म स्वरुप को दर्शाता है|
  • इस पंक्ति में नारायण नाम के दो अर्थ है, जो इस प्रकार है:
      • परत्व (स्वामित्व) – भगवान् के स्वामित्व को जतलाते हुये, इस चराचर जगत में जीवात्मा के आधार (अवलम्बन) हैं , दर्शाता है|और सभी जीवात्मा के नारायण ही आधेय है| , दर्शाता है (आधार \ अवलम्बन पर आश्रित है) |
      • सौलभ्य (भगवान का सुलभ गुण , उपगम्य-सर्व व्यापी) – भगवान के सौलभ्य गुण को दर्शाते हुये, इस का आभास करवाता है की , जीवात्माओं को भगवान बड़ी सरलता से मिल जाते है,  इसका अर्थ यह भी ले सकते है की ,भगवान अंतर्यामी रूप में सभी जीवात्माओ में विराजमान है |
  • “नमक्कु” यह शब्द, जीवात्म स्वरूप (स्व स्वरुप) को स्पष्ट रूप से सम्बोधित करता है|”ए” कार से यह शब्द (नमक्के) हुआ, देवी आण्डाळ् जीव को (स्वयं को) इंगित करते हुये कहती है,  जो  जीवात्मा स्वयं को, भगवान् को आत्म समर्पण करने के लिए तत्पर है अर्थात् जो अपना ” अकिंचनत्व ” (जिसके पास भगवान् को अर्पण करने के लिए स्वयं के आलावा कुछ नहीं), “अनन्य गतित्व” (उसका और कोई आश्रय नहीं) और  वह भगवान् का पूर्ण रूपसे शरणागत है |
  • “नारयणने तरुवान्” उपाय स्वरूप को स्पष्ट करता है – ” नारायणने तरुवान् “ का अर्थ है कि केवल नारायण ही मात्र जीवात्मा पर परम उपकार कर सकते हैं |
  •  “परै”  उपेय स्वरूप को दर्शाता है – परै का अर्थ है निस्वार्थ भाव से भगवत् कैङ्कर्य करना |
  • “विरोधी स्वरूपम्” अन्तर्निहित हमारे स्वतन्त्र्य भाव, जो हमें भगवान से विमुख कर ,भगवान् को हमारी सहायता करनेसे रोकता है|

हमारे संप्रदाय के अनेक पुर्वाचार्यों ने अपने व्याख्यानों में इस को और भी स्पष्ट रूपसे समझाया है |  

तिरुप्पावै व्याख्यान कर्ता (टीकाकार)


पेरियवाच्चान् पिळ्ळै- ३००० पडि


अळगिय मणवाळ पेरुमाळ् नयनार्-६००० पडि

आयि जनन्याचार्यर् – २०००पडि, ४००० पडि


पोन्नडिक्काल् जीयर्- स्वापदेशम्

भगवान के परमात्म स्वरूप को आण्डाळ् देवी द्वारा पुनः कई पदों में समझाया गया:

    • “पार्कडलुळ् पैय तुयिन्र परमन्” – परम पुरुष पुरुषोत्तम भगवान् श्रीमन्नारायण जो क्षीर सागर में शयन कर रहे हैं|
    • “ओंगि उलगळन्द उत्तमन्” -परम पुरुष पुरुषोत्तम, जिन्होंने अपने तीन पगों में तीनों लोकों को माप लिया|
    • “पर्पनाभन्” – जिनके नाभि से , कमल पर ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ|
    • “तूय पेरुनीर् यमुनै तुरैवन्” – जो यमुना तट पर रहते है|
    • “गोविन्दन्” – धेनुओं (गायों) को पालने वाले, धेनुओं को आनन्द प्रदान करने वाले, धरती माता को सुख प्रदान करने वाले|

जीवात्म स्वरूपम् :

आण्डाळ् देवी अपने तिरुप्पावै के छठवें से पन्द्रहवें पासुरम् में और भी स्पष्ट रूप से जीवात्मा के स्वाभाव और गुण का वर्णन कर रही है. इन पासुरम् में देवी आण्डाळ्, यह उपदेश देती हुई प्रमाणित कर रही है कि, जीवात्मा को सदा श्रीवैष्णवों के सङ्ग का जिज्ञासु होते हुये उन्ही के सहयोग और मार्ग दर्शन में भगवत प्राप्ति,परमपद प्राप्ति की और अग्रसर होना चाहिये |

अपने १६ वे और १७ वे पाशुरम में पराम्बा माँ गोदाम्बाजी भगवान को पाने , अपने व्रत पालन के लिये , सखियों के स्वरुप में नित्य सुरियों का संग लेने स्वयं इन उपदेशों पालन करते हुये , इस उपदेश को सिद्ध करती है की जीवात्मा को , भगवान के अति प्रिय उनकी सेवा में लीन नित्य सुरियों की शरण ले उनकी महिमा को गौरवान्वित करते हुये गुणगान करना चाहिये |

अठारवें से बीसवें पासुरम् में माँ गोदाम्बाजी  पुरुष्कार रूपा (नप्पिन्नै नाचियार्- नीला देवी का अवतार और वृन्दावान में भगवान् कृष्ण के प्रिय महिषी) को गौरवान्वित करते हुये , प्रमाणित करती है की भगवद प्राप्ति पुरुष्कार स्वरूपा माँ की कृपा से ही प्राप्त की जा सकती है |  

विरोधी स्वरूपम् का वर्णन माँ गोदाम्बाजी तिरुप्पावै के दूसरे पासुरम् में “नेयुण्णोम् पालुण्णोम्” कहते हुये उद्घृत करती है, अर्थात् जब हम भगवान् की प्राप्ति को ही लक्ष्य बनाकर चलते है, तब उनके सिवा और कोई वस्तु हमारे लिये भोग्य नहीं समझेंगे | आण्डाळ् यह भी कहती है “चेय्याधन चेय्योम”, जिसका अर्थ है हम वह निषिद्ध कार्य नहीं करेंगे जो हमारे पूर्वाचार्यों ने नहीं किया |  

मुख्यतः  उपाय स्वरूप और उपेय स्वरूप को समझना हमारे लिये अत्यंत आवश्यक है |  
देवी आण्डाळ्  तिरुप्पावै के अट्ठाईसवें और उन्तीसवें पासुरम् में “गोपी और गोप भाव” लेकर इसकी बहुत ही सुन्दर व्यख्या करती है |   

आचार्य पेरिय वाच्चान् पिळ्ळै स्वामीजी और आचार्य नायनार् स्वामीजी ने इन दोनों पासुरम् पर बहुत ही सुन्दर, अद्भुत व्याख्यान (टीका) लिखें है |  
आचार्य नायनार् स्वामीजी का विस्तृत व्याख्यान अनेक उत्कृष्ट विवरणों से भरा हुआ है | इन पासुरम् के आचार्य द्वारा तत्व निष्कर्ष कुछ इस तरह है |  

उपाय स्वरूप  – तिरुप्पावै का अट्ठाईसवां पासुरम् “करवैगळ् पिन्चेन्रु” (கறவைகள் பின்சென்று):

देवी आण्डाळ्, इस पासुरम् में प्रामाणित करती है, कि भगवान ही “सिद्ध साधन” हैं (स्थापित उपाय जिसे हमारे व्यक्तिगत प्रयास से प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं हैं) |

देवी आण्डाळ् आरम्भ में ही बताती हैं कि, उनका कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग में कोईअन्वय  (संबंध) नहीं है |  माँ गोदाम्बाजी इस पाशुर में भगवान की जीवो पर निर्हेतुक कृपा भी सिद्ध करती है|

    • देवी आण्डाळ् कहती है कर्मयोग हमारे लिए नहीं है क्योंकि कर्मयोग की आवश्यकताओं का पालन हम नहीं कर सकते, जैसे:
      • मनुष्य को महान पण्डितों / विद्वानों का अनुसरण करना चाहिये, परन्तु हम इनकी जगह गायों के पीछे जा रहे हैं |  
      • मनुष्य को दिव्यदेश के दर्शन करने जाना चाहिये, पर यहाँ हम वन में जा रहे है , वन में भी जाकर तपस्या करना कर्मयोग का अङ्ग है, पर हम वन में केवल धेनु चराने जाते हैं ,  धेनु चराना भी वर्ण-धर्म में मान लें , पर हम तो केवल उन धेनुओं को चराते हैं जो दूध देती हैं (दुधारू है) और अन्य पशुओं की उपेक्षा करते हैं |
      • भोजन में भी अनेक नियम हैं, पर हम किसी भी नियम का पालन नहीं करते |हम बिना स्नान किये भोजन करते हैं, हम किसी भी हाथ से भोजन कर लेते है ( बगैर धोये , उच्छिष्ट हाथों से भी,, हम चलते- फिरते भी भोजन कर लेते हैं |  
  • हम ज्ञानयोग नहीं जानते क्योंकि हम “अरिवोन्रुं इल्लाद आय्क्कुलम् ” (अनपढ/अज्ञानी ग्वाले) ग्वाल कुल के लोग हैं, अर्थात हम में सच्चा ज्ञान नहीं है |  
  • भक्ति ज्ञान-विशेष (ज्ञान की विकसित स्थिति) | चूंकि हमें ज्ञान ही नहीं, भक्तियोग करनेका प्रश्न ही नहीं उठता |
  • भगवान भागवतों पर निर्हेतुक कृपा कर , स्वयं के लालन पालन का अवसर प्रदान करते है , जैसे माता कौशल्या और माता यशोदा को प्रदान किया था | हम को यह सौभाग्य भी भगवान स्वयं प्रदान करते है, और यह जीवों का मौलिक धर्म है  (“कृष्णं धर्मं सनातनम्” – भगवान् कृष्ण शाश्वत धार्मिक सिद्धान्त हैं)  | यह स्व-प्रयास से नहीं हुआ है, भगवान स्वयं हम जीवो पर कृपा कर हमारे साथ रहने आते है  | अतः न तो हमारे बाह्य शत्रु हैं (कर्म/ज्ञान/भक्ति योग)  और न ही आन्तरिक शत्रु हैं (“स्वागत स्वीकारम्”- हम स्वयं भगवान् की ओर उपगमन कर, इस प्रयास को “उपाय” ) समझते रहना चाहिये |
  • जिस तरह हमारे पास कोई ज्ञान नहीं है,  वैसे ही भगवान “दोष” रहित है | भगवान मङ्गलमय गुणों से परिपूर्ण है | भगवान का यह मङ्गलमय गुण पूर्णतया उनके ग्वालों के साथ “गोविन्द” के स्वरुप में रहते  प्रकट होता हैं | जब नित्यसूरियोंके के साथ रहते है तब भगवान का “प्रभुत्व” पूर्णतया प्रकट होता है, और  गोप गोपियों के साथ रहते है तब भगवान का “सौलभ्य”  पूर्ण रूपेण प्रकट होता है|
  • भगवान न केवल मङ्गलमय गुणोंसे परिपूर्ण है, बल्कि सिद्ध-साधन भी है (स्थापित उपाय है, जीव को  विशेष प्रयास से प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती) | भगवान का हर जीवात्मा से सम्बन्ध है | भगवान अन्तर्यामि है , हर जीवात्मा के मूल है | भगवान द्वारा प्रसादित “तिरुमन्त्र”, परमात्मा और जीवात्मा के बीच नौ प्रकार के सम्बंधों को दर्शाता है | पिता-पुत्र, रक्षक-रक्ष्य, शेषी-शेष, भर्ता-भार्या, ज्ञेय-ज्ञाता, स्वामि-स्वम्, आधार-आधेय, आत्मा-शरीर और भोक्ता-भोग्य | अतः शरण में आये शरणागत की रक्षा करने का उत्तरदायित्व भी भगवान का है |
  • माँ गोदाम्बाजी कहती है , हे गोविन्द आप हम जीवो पर निर्हेतुक कृपा कर , अपने सरल सुलभ स्वभाव वश ,  आप हमारे अपने सखा बन हमारे मध्य , हमारे ही साथ रहने आते है, जिसका अहसास हम नहीं कर पाते , हम अज्ञानी अज्ञानतावश , प्रेमवश आपको सखा न मान , सर्वे सर्वा मान  “नारायण” नाम से सम्बोधन करते है , पर हे गोविन्द हमारी इस भूल को क्षमा करना | यहाँ हमारी गुरु परंपरा के आचार्य नायनार कहते है की, शरणागति में हमेशा क्षमा याचना करते रहना चाहिये, कारण की जीवात्मा गलतियों का पुतला है, और गलती और भूल इसका स्वाभाव है|
  • पराम्बा माँ गोदाम्बाजी बतला रही है , भगवान स्वयं परमपद प्राप्ति के परम उपाय है , जीव मात्र अकिञ्चन है, जिसको कोई और शरण नहीं है (अनन्यगतित्वं), भगवान से परम कैंकर्यं की प्रार्थना करते हुये कहती है की , वह भगवान को स्वयं की रक्षा करने से रोक नहीं  सकती | (“विलक्कामै”) |
  • इस प्रकार इस पासुरम् में आण्डाळ् भगवान् का निरपेक्ष उपायत्व (अनपेक्षित हमारी रक्षा करना) को दर्शाती है | यह स्मरण रहे कि भगवान् को हमारी रक्षा करने के लिए, हममें आकिञ्चन्य भाव, अनन्य गतित्व और विलक्कामै होना आवश्यक है – ये उपाय के अंश नहीं हैं, बल्कि केवल अधिकारी विशेषण (मुमुक्षुके गुण) हैं | ये गुण ही अन्तर है एक जीवात्मा में जो भगवान् को शरणागति करना चाहता है और जो नहीं चाहता |

उपेय स्वरूपम् -उन्तीसवां पासुरम्- चिट्रम् चिरुक्काले

इस पासुरम् में आण्डाळ् समझाती हैं कि भगवत् कैङ्कर्य जो भगवान् को तुष्ट करता है वही अन्तिम ध्येय है |

  • बडे सवेरे हम सब आपकी शरण में आये हैं | नायनार् उषा काल की तुलना मुमुक्षु बनने की प्रारम्भिक अवस्थासे कर रहे हैं –  यह वह स्थिति हैं ,जब हम अज्ञानता से मुक्त हुये हैं , परन्तु भगवान् से प्रेम , लगाव , उनमें आसक्ति पूर्णतया विकसित नहीं हुयी है, प्रातःकाल की बेला में उठकर भगवान की शरणागति करना ज्ञानमय अवस्थाका प्रतीक है |
  • आप स्वामी है, हम पर आपका स्वामित्व है, आपको हमारी रक्षा के लिए आना था, पर हम आपसे मिलने आ गये| भगवान रामजी के वनवास के समय दंडकारण्य में, जब सारे ऋषि मुनि उन्हें मिलने उनके आश्रम पहुँच अपनी व्यथाएँ बतलायी  , तब भगवान श्री रामजी को बड़ा क्लेश हुआ की ,  जहाँ मुझे उनके पास जाकर उनके कुशलक्षेम पूछना चाहिये था , ऋषि मुनियों को कष्ट उठा कर स्वयं मेरे पास आना पड़ा | ऐसे जिससे भगवान को क्लेश हो, उसे स्वागत स्वीकाराम संज्ञा दी गयी, कारण की यह स्थिति अस्वाभाविक है|
  • इस में यह भाव भी बतलाया गया, भागवत आपके सम्मुख आकर दंडवत प्रणाम कर श्रद्धा से आपकी आराधना भी कर रहे है|  भगवान इतने स्वराध्य है की , वह भक्तों से प्रणाम की अपेक्षा भी नहीं रखते| भक्त को स्वयं की और आता देखकर ही आनन्दित हो जाते है| जैसे पिता बिना किसी अपेक्षा के पुत्र को देखते ही हर्षान्वित हो जाता है| जबकि देवतान्तर में अन्य देवता अपने उपासको से सदा उपासना  की कामना रखते है|
  • हमनें आपके स्वर्ण से भी बहुमूल्य पाद पद्मों का गुणगान कर रहे है, जो सभी वैदिकों को अति प्रिय है | हम आपकी और आपके चरणकमलों का महिमा मंडन किसी अपेक्षा से नहीं किये है – हमारा ध्येय केवल उनका गुणगान करना है, और आपके चरणों की शरणागति ही हमारा ध्येय है |
  • देवी आण्डाल कह रही है , हम आपको हमारा व्रत क्या है बतलाती है  | आपका वृन्दावन में अवतरित होना ही पर्याप्त नहीं है | आप अपनी मर्जी से हम गोप गोपियों के कुल में अवतरित हुये है|  आप हमारे मनो को निर्मल करते हुये अपने प्रति हमारा लगाव , आसक्ति बढ़ाई है| इसलिए अब आपको, हमारी इच्छाओं की पूर्ति करते हुये,  हम सभी को अपने यथोचित निज कैंकर्य में सम्मिलित करना होगा|
  • भगवान देवी आण्डाल को आश्वासन देते है की “व्रत का फल जरूर प्रदान करेंगे”, तब देवी आण्डाल कहती है की , हम ने व्रत, फल के लिये नहीं किया, व्रत आपकी सेवा – स्मरण में रत रहने के लिये किया है , हमें आपके निज कैंकर्य के सिवाय और कोई अभिलाषा नहीं है |
  • देवी आण्डाळ् कहती हैं कि भगवान् जहाँ कहीं भी हों- परमपद में या इस भौतिक चराचर जगत में – वह सदा उनके साथ ही रहना चाहती हैं | ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मणजी “इळैय पेरुमाळ् ” , भगवान् श्री रामजी का विरह सहन नहीं की स्थिति में, भगवान रामजी के साथ ही वन गमन को गये थे | उसी प्रकार देवी आण्डाळ् भी कहती है कि, भगवान् स्वामी हैं और वह स्वामी की संपत्ति है, इसलिये सदा भगवान कृष्ण के साथ ही रहना चाहती है | कहती है की , यह सम्बन्ध शाश्वत है, और चाहती है की, यह सम्बन्ध स्पष्ट रूपसे प्रकट हो |
  • अन्त में देवी आण्डाळ् स्थापित करती हैं कि, उनका परम ध्येय भगवान् की प्रसन्नता के लिये, भगवत कैंकर्य में रत रहना है | वह लक्ष्मणजी की तरह, सदा भगवान् का कैङ्कर्य करते रहना चाहती है,  न कि भरताळ्वान् (भरतजी) की तरह जो श्रीरामजी से कुछ समय के लिये दूर रहे थे |”मट्रै नम् कामंगळ् माट्रु” अर्थात् भगवान से प्रार्थना करती है की, हमारी सभी कामनाओं को मिटा दे, यहाँ देवी आण्डाल स्पष्ट करती हैं कि,  उन्हें स्वयं के आनन्द की कोई कामना नहीं  है,  साथ यह भी कहती है की  भगवान् को भीलगना चाहिये की, वहकोई कामना नहीं रखती है |इसी अवधारणा को तिरुवाय्मोळि में नम्मळ्वार् “एम्मा वीडु” (२.९) दशक “तनक्केयाग एनैकोळ्ळुमीदे” में स्पष्ट किये है अर्थात् भगवान् अपने ही आनन्द के लिए आळ्वार् संत को कैङ्कर्य में रखें |

इस प्रकार इस पासुरम् में आण्डाळ् परम लक्ष्य को प्रकट कर स्थापित करती हैं | इसके अतिरिक्त “मट्रै नम् कामंगळ् माट्रु” विरोधी स्वरूप को स्पष्ट करता है – अपने स्वार्थ के लिये ,भगवान् के निजी आनन्द के बजाय, स्वयं के आनंद के लिये भगवान् का कैङ्कर्य करना |

इस प्रकार हम “अर्थ पञ्चकम्” को आण्डाळ् के तिरुप्पावै की दिव्य वाणि और अनेक आचार्यों के इस दिव्य प्रबन्ध के व्याख्यानों में दिये गये उत्कृष्ट व्याख्यान  उपदेश द्वारा समझ सकते हैं |

अडियेन विजयकुमार रामानुज दासन्
अडियेन श्याम्सुन्दर् रामानुज दासन्

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/01/thiruppavai-artha-panchakam/

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