विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ४३

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9”  पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ४२)

७३) पुम्स्त्व विरोधी – पौरुष विरोधी

श्रीराम – मर्यादा पुरुषोत्तम – आदर्श श्रेष्ठ पुरुष माता सीता और लक्ष्मणजी सहित – श्रीपेरूम्बूतूर

पुम्स्त्वम का अर्थ पौरुष / पुरुषार्थ – पुरुष होना है। दिव्य प्रबन्ध के व्याख्यानों में किसी के शारीरिक स्थिति को देखकर, पुरुषों को “मोवायेलुन्तार” कहते हैं – जिसके ऊँची ठोड़ी है या जबड़े के नीचले भाग जहाँ दाढ़ी होती है और नारी को “मुलैयेलुंतार” कहते हैं – जिसके ऊँचे स्तन हो। यह तो दैहिक / बाहरी विशेष लक्षण हैं जो उसके पूर्व कर्म का फल है। जैसे भगवद गीता में समझाया गया है कि “उत्तम: पुरुष:” – श्रेष्ठ पुरुष जो भगवान हैं वो हीं सर्वोच्च पुरुष हैं। जैसे प्रमाण में समझाया गया हैं कि “स्त्री प्रायम इतरम जगत” – इस ब्रह्माण्ड में बाकी सभी स्त्री वर्ग में हैं दैहिक (नर/मादा) कोई भी स्वरूप क्यों न हो। स्त्री के मुख्य पहलू में पूर्ण रूप से आश्रित, आज्ञाकारी, लज्जा, आदि शामिल हैं। जीवात्मा भी आंतरिक रूप से परमात्मा पर आश्रित है। अब इसकी व्याख्या देखेंगे। अनुवादक टिप्पणी: प्रणवम में भगवान को “अ” ऐसे दर्शाया गया हैं। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी अपने अष्ट श्लोकी (आठ अत्कृष्ठ और सुन्दर श्लोकों की रचना जिसमें रहस्यत्रय [तिरुमन्त्र, द्वय मन्त्र और चरम श्लोक] के अर्थो को बताया गया है) का प्रारम्भ  ऐसे किया है “अकारार्थों विष्णु:” “अकारम” भगवान है ऐसे गुंजता हैं। अकारम का एक मुख्य स्पष्टीकरण है रक्षकत्वम। रक्षकत्वम का अर्थ अनचाहे पहलुओं को निकालकर इच्छित पहलुओं को प्रस्तुत करना। केवल भगवान श्रीमन्नारायण हीं सर्वश्रेष्ठ स्वतन्त्र पुरुष है और अन्य सभी पूर्णत: उनपर निर्भर हैं। हम अपने पूर्वाचार्यों के जीवन की एक अद्भुत घटना को स्मरण कर सकते हैं। श्रीपेरियवाचान पिल्लै इस घटना को तिरुनेडुंताण्डगम के तीसरे पाशुर के व्याख्या में दर्शाते हैं। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी क्षीरसागर के मंथन की घटना के विषय में बताते हैं। वें समझाते है कि जब श्रीमहालक्ष्मीजी क्षीरसागर से प्रगट होती हैं वे सीधे भगवान श्रीमन्नारायण के पास जाकर उनके वक्षस्थल पर जाती है जो उनका स्थायी निवास है और उन्हें अपने पति रूप में स्वीकार करती हैं। इस समय श्रीवेदांति स्वामीजी श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी से पूंछते हैं कि “वहाँ कई देवता मौजूद थे – एक नारी होते हुए वे एक पुरुष के निकट सबके सामने पहुँचने में शर्म नहीं आयी?”। श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी बड़ी चतुराई से उत्तर देते हैं कि “जब पति के साथ सगाई होती है तो क्या पत्नी को अपनी सहेलियाँ जो अपने संग वस्तु, तोफे, आदि को देखकर शर्माती है?”। इसका अर्थ हुआ सभी जीवात्मा जो वहाँ पर उपस्थित थे सभी स्त्री स्वभाव के हैं हालाँकि वे दैहिक रूप से पुरुष रूप में हैं। इस तरह सर्वोच्च स्वतन्त्रता का पहलू पुरुषार्थ से जुड़ा हुआ है और अन्य सब इसके विपरीत नारीत्व वाले हैं।

  • सर्वश्रेष्ठ भगवान जो गरुड वाहन और पुरुषोत्तम है उनके बदले में स्वयं को पुरुष मानना बाधा है। पुरुषोत्तम हीं एक मात्र व्यक्ति हैं जो पुरुष कहलाने के योग्य है। अन्य सभी जीवात्मा स्त्री वर्ग में हैं। स्वयं को पुरुष का स्वरूप होने से पुरुष मानना अज्ञानता है। यह भी एक गलती है। अनुवादक टिप्पणी: सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मा को गरुड वाहनत्वम कहना उनके प्रमुख गुणों को दर्शाता है। गरुड को वेदात्मा कहते है – वह जो वेद की आत्मा है। भगवान गरुडजी की सवारी करना और गरुडजी उँगली कि नोक भगवान कि ओर करना यह भगवान श्रीमन्नारायण की सर्वोच्चता का संकेत है। और श्रीमन्नारायण को पुरुषोत्तम भी कहते हैं – पुरुषों में श्रेष्ठ। इसलिये पुरुषार्थ केवल भगवान श्रीमन्नारायण के साथ जुड़ा हैं।
  • देवताओं को जैसे ब्रह्म, रुद्र, आदि को उनके पुरुष स्वरूप होने के कारण पुरुष मानना बाधा है। जैसे पहिले समझाया गया है कि यह तत्व देवताओं पर भी लागू है। जब पुरुषोत्तम से तुलना करते हैं तो सभी अन्य देवता नारी प्रतिरूप है, हालांकि वे दैहिक रूप से पुरुष हैं। इसके विपरीत समझना अज्ञानता है।
  • हममें जो नारीत्व के लक्षण हैं वे स्वाभाविक जय जो कि भगवान के पुरुषार्थ के लक्षण के प्रतिरूप है। इसे न मानना बाधा है। हमारा स्वाभाविक गुण है भगवान पर पूर्णत: आश्रित रहना और उनकी सम्पूर्ण स्वतन्त्रता को संतुष्ट करते हैं।
  • पुरुष देह जो हमें प्राप्त हुआ है वह हमारे कर्म के आधार पर प्राप्त हुआ है और अस्थाई है। यह न जानना बाधा है। पुरुष रूपी जो बाहरी दिखावट है वह हमारे पूर्व कर्मो के आधार पर प्राप्त है। हमें यह जानना जरूरी हैं कि हमारे पूर्व कर्मों के आधार पर हम भिन्न भिन्न दैहिक रूप प्राप्त करते हैं। अनुवादक टिप्पणी: भगवद गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण इस शारीरिक बदलाव के सिद्धान्त को विस्तार रूप से समझाते है। वे समझाते हैं कि जैसे कपड़ा पुराना होने पर बेकार हो जाता है और उसके स्थान पर नया कपड़ा लाते हैं वैसे ही जब जीवात्मा के लिये एक शरीर निष्प्रयोजन हो जाता है वह शरीर का त्याग कर देता है और एक नया शरीर प्राप्त करता हैं। एक और उदाहरण के साथ समझाते हैं – जैसे आत्मा एक नन्हें बच्चे के शरीर में, एक किशोर के शरीर में, एक युवा और एक वृद्ध के शरीर में वास करके जब उस विशिष्ट देह के कर्म समाप्त हो जाते हैं तो आत्मा वह देह को त्यागकर नये देह में प्रवेश करती है। इस तरह हम बहुत सरलता से समझ सकते हैं कि हम प्रत्येक जीवन के पश्चात नया देह प्राप्त करते है और प्रत्येक ऐसे देह अस्थाई हैं।
  • यह न जानना कि पुरुष और स्त्री का देह जिसे अनादिकाल से प्राप्त करते हैं यह नश्वर है – बाधा है। अनन्त काल से हम इस संसार में हैं और कर्मों के फल स्वरूप भिन्न भिन्न देह प्राप्त करते रहे है। इसलिये यह कुछ भी शाश्वत नहीं है। यह सुस्पष्ट है।
  • भगवान पर पूर्णत: आश्रित रहना यह जीवात्मा का शाश्वत गुण है। इसे न जानना बाधा है। भगवद पारतंत्रयम यह जीवात्मा का शाश्वत व मूल भूत गुण है। पारतंत्रयम का अर्थ भगवान के पूर्णत: नियन्त्रण में रहना। अनुवादक टिप्पणी: हमने पहले प्रमाणों में देखा है “स्वत्वम आत्मनि संजातम स्वामित्वम ब्राह्मणी स्तिथम” – जीवात्मा का स्वभाव भगवान की संपत्ति होना है और भगवान के गुण स्वामी के हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि जीवात्मा का स्वभाव भगवान के आश्रित बनकर रहना है।
  • स्वतन्त्रता की झलक पाना और दैहिक स्वरूप पुरुष का होने के कारण स्वयं को समझना यह जानते हुये भी कि हम पूर्णत: भगवान के आश्रित हैं – बाधा है। एक बार यदि हम पारतंत्रीयम (सम्पूर्ण आश्रित) का सही ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो स्वयं को पुरुष मानने का कोइ प्रश्न ही नहीं उठता है चाहे स्वतन्त्रता की झलक ही क्यों न हो जो पुरुष में स्वाभाविक गुण है। अनुवादक टिप्पणी: मूलभूत विषय देहात्मा अभिमानम (आत्मा और शरीर को एक समझना)। इतने कालक्षेप सुनने के पश्चात और इस सिद्धान्त को समान जानकर भी हम आत्मा और शरीर के विषय में भ्रमित हैं। इस महत्त्वपूर्ण मूलभूत अन्तर को समझने के लिये निरन्तर ध्यान मग्न होकर इसे अपने दैनंदिन जीवनी में लागू करने की कोशिश करना चाहिये।
  • स्वयं को स्त्री गुण वाला समझकर भगवान पर पूर्णत: आश्रित रहना और अन्य नारीत्व के सुखों को पाने की इच्छा रखना बाधा है। स्वयं को स्त्री समझने के पश्चात जो भगवान पर आश्रित है स्वयं के दूसरी नारीत्व का आनन्द की इच्छा सिर्फ अज्ञानता (स्वयं को देह के साथ जोड़ना आत्मा के साथ नहीं) है। यह सही नहीं हैं। हमें श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के १०१वें सूत्र को इस सन्दर्भ में स्मरण करना चाहिये “विहित विषया निवृत्ति तननेररम”। अनुवादक टिप्पणी: ९९, १०० और १०१वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी इंद्रिय, सुख और अन्य के सभी इंद्रियों का नियंत्रण से अलग करने के पहलू के विषय में चर्चा करते हैं। पहिले उन्होंने कहा है कि इस भौतिक सुख को अलग रखना यह आध्यात्मिक उत्थान के लिये मूलभूत योग्यता है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस सूत्र को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रमाणों के भावपूर्ण सम्बन्धों को समझाते हैं। ९९वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि जो मनुष्य भौतिक सम्पत्ति, आदि की चाहना रखता है, जो भक्ति योग में व्यस्त रहता है और अन्त में प्रपन्नों के लिये यह अलग रखना आवश्यक है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी समझाते हैं कि यदि कोई मनुष्य बहुत अधिक भौतिक सम्पत्ति की चाहना रखता है और उसे पाने की प्रक्रिया में उसे अपने इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखना जरूरी है। उपासक और प्रपन्न में स्पष्ट रूप से अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण है और वे भौतिक आनन्द से पूर्णत: भिन्न हैं। १००वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी कहते है कि प्रपन्नों के ३ वर्गों में इंद्रियों पर नियंत्रण अति मुख्य है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत सुन्दर और स्पष्टता पोरवाक दर्शाते हैं कि श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी प्रपन्नों के अन्य २ वर्ग कोनिर्लिप्ता के महत्त्व को समझाने के लिये शामिल किया है। १०१वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं कि जिसे भौतिक सम्पत्ति कि आस है और उपासकों को शास्त्र में वर्जित चीजों से स्वयं को अलग रखना चाहिये। प्रपन्नों के लिये तो जो शास्त्रों में मान्यता प्राप्त को भी अलग रखना चाहिये क्योंकि वह स्वरूप विरोधी (जीवात्मा के स्वरूप के विपरीत) है। शादी की परिधी में इंद्रियों के सुख की शास्त्र में मान्यता है हालांकि कई शर्तें हैं जैसे कि कब और कैसे शारीरिक सम्बन्ध होना चाहिये। यहाँ प्रपन्नों के लिये श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी दर्शाते हैं कि हमें अपनी पत्नी के प्रति भी वियोग होना चाहिये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने व्याख्यानों में इस विषय को बहुत ही अद्भुत तरीके से विस्तृत रूप से समझाते है। आचार्य के मार्ग दर्शन में इसे सुनना अती उत्तम है। किसी की स्पष्ट समझ कि वह स्वयं एक नारी होने से स्वाभाविक रूप से भगवान का दास है और इसलिये उसे दूसरी नारी के प्रति दासता की चाह नहीं रखनी चाहिये चाहे वह शादी के सिलसीले में ही क्यों न हो।
  • भगवान के सन्दर्भ में हम सब स्त्री है और यह न समझना बाधा है। हमें यह जानना चाहिये कि परमपुरुष के दृष्टी से देखेंगे तो सभी जीवात्मा स्वभाव से नारी हैं।
  • स्वयं कि पत्नी के साथ जिसे भगवद और भागवतों के सेवा हेतु स्वीकार किया है के साथ दास बनकर बाधा है। गृहस्थाश्रम – पत्नी के साथ रहना। जैसे श्रीरामायण में कहा गया है “सहपत्न्या विशालाक्षया नारायणमुपाकमत” श्रीराम स्वयं माता सीता से विवाह कर श्रीरंगनाथ भगवान की सेवा किये। यही गृहस्थाश्रम का धर्म हैं। हालाँकि यह पति पत्नी का सम्बन्ध हैं परन्तु भगवान के सन्मुख आने पर दोनों नारीत्व में आजाते है और दोनों भगवान के हीं दास हैं। अनुवादक टिप्पणी: ४ आश्रमों में (ब्रह्मचार्या, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थान और सन्यासाश्रम) गृहस्थाश्रम दूसरों कि सेवा करने पर पूर्णत: केन्द्रित करता हैं। ब्रह्माचार्या के समय वह अध्ययन पर केन्द्रित होता है और कमाने का कोई साधन नहीं होता हैं। वानप्रस्थ जो जंगलों में निवास करता है और ध्यान में अपना समय केन्द्रित रखता है। सन्यासी ज्ञान बाँटने व सिखाने का कार्य करता है और धन संग्रह नही कर सकता है। केवल गृहस्थ ही धन ब्रह्मचारी और सन्यासी के कैंकर्य हेतु कमा सकता हैं। यात्रीगण भी स्थानीय गृहस्थों पर यात्रा के समय आश्रित रहते हैं। अत: गृहस्थाश्रम पूर्णत: भगवान और भागवतों पर पूर्णत: केन्द्रित होते हैं। इसलिये स्वयं की पत्नी के साथ इंद्रियों के सुख के बदले भगवान और श्रीवैष्णवों के कैंकर्य में पूर्ण ध्यान देना चाहिये।
  • स्वयं को पूरुष दास मानना बाधा है। यह पहिले ही समझाया गया है कि स्वयं को पूरुष नहीं मानना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: हमें भगवान और भागवतों का स्त्री रूप में दास समझना चाहिये।
  • यह ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात अपनी पत्नी के साथ शयन करने के बजाय अपने साथ शारीरिक रूप से व्यस्त रहने की कोशिश करना उसके लापरवाह स्वभाव के कारण है यह बाधा है। जैसे पत्नी स्वयं को पती को समर्पित करती है वैसे हीं हमें स्वयं को भगवान को समर्पित करना चाहिये। हमारा पूरुष का देह हो तो भी हमें स्वयं को स्वतन्त्र नहीं समझना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: यह किसी के सही गुणों को जानना महत्वपूर्ण है। हमें उस स्थिति तक पहूंचना चाहिये कि अगर कोई अपनी पत्नी के साथ शयन कर रहा है तो उसे एक स्त्री दूसरे स्त्री के साथ शयन कर रही है जहां कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं हैं ऐसा महसूस होना चाहिये। किसी को स्वयं कि पत्नी के साथ भी काम भावना नहीं रहना है और यहाँ तक कि करीबी सहवास में भी ऐसे विचारों से दूर रहते हैं। विशेषकर ब्रह्म के विषय में और रागम (इंद्रियों के सुखों के लिये लगाव) – या कोई एक की उपस्थिती में नर और मादा एक दूसरे के शारीरिक सम्बन्धों में व्यस्त हो जाते हैं।
  • आल्वारों का जन्म पूरुष रूप में हुआ था फिर भी वें नारी मनो दशा में रहकर और भगवान के दिव्य स्वरूपों की लालसा करते थे। यह पाशुरों का अध्ययन करने और उनके अर्थों को समझने के पश्चात और अपने पुराने अनुभावों से मतिभ्रम हो कर, शारीरिक सम्बन्धों से लगाव होना और ऐसे शारीरिक सुख की चाह करना सब बाधा है। आलवारों में विशेषकर श्रीशठकोप स्वामीजी और श्रीपरकाल स्वामीजी ने स्त्री भावना में भगवान के दिव्य रूप पर कई पाशुरों की रचना किये हैं। उन्होंने अपने बिछुड़ने के वियोग के दर्द को इन पाशुरों में भरा है। इन पाशुरों के शब्दार्थ और गूढ़ार्थ को सुनने के पश्चात हमें फिर यह नहीं सोचना चाहिये कि “मैं पुरुष हूँ” और इसी तरह इंद्रियों सुखो की लालसा करना जिसे हमें त्यागना चाहिये। श्रीपरकाल स्वामीजी द्वारा रचित तिरूमोही के पाशुर में कहा गया है “आविये अमुधे एन निनैन्तुरुगी अवरवर पणैमुलै तुणैया पावीयेणुणरातु एत्तनै पगलूम पलुतु पोयोलिन्तन नालगल” – मैं पापी हूँ क्योंकि मैं बिना समझे सिर्फ औरतों के विषय में जिनके उभरे हुये स्तन हैं जिन्हें मेरी जिंदगी! मेरी अमृत! आदि कह कर मेरी जिन्दगी के कई दिनों को बर्बाद कर चुका हूँ। फिर वें ज़ोर देकर कहते हैं कि श्रीमन्नारायण की कृपा से ऐसी दयनीय स्थिति से छुटकारा मिल गया है।
  • आस्तिक – नास्तिक बनकर रहना और आचार्य द्वारा त्याग होना बाधा है। सामान्यतया आस्तिक व नास्तिक वह है जिसने भगवान के अस्तित्व को तो माना है परन्तु पूर्ण विश्वास नहीं है और कोई किसी सिद्धान्त का पालन नहीं करता है। अधिक समझने हेतु हमें उपदेश रत्नमाला के ६८वें पाशुर को देखना चाहिये “नास्तिकरूम नर्क्कलैयिन् नन्नेरिशेरास्तिकरुम् आस्तिकनास्तिकरूमामिवरै ओर्त्तु नेञ्जे! मुन्नवरूम पिन्नवरूम मूर्खरेन विट्टु नडुच्चोन्नवरै नालुम तोड़र्”। नुवादक टिप्पणी: आस्तिक का अर्थ वह जो वेद शास्त्र को प्रमाण रूप में स्वीकार करता हैं। शास्त्र प्रमाण है जिसके जरिये हम हम भगवान को समझ सकते हैं जो प्रमेय हैं। यहाँ वेद शास्त्र में उपनिषद, स्मृति, इतिहास, पुराण, पांचरात्रम, आदि शामिल हैं। दिव्य प्रबन्ध, पूर्वाचार्य के स्तोत्र और व्याख्या को  हमारे आचार्यो द्वारा बहुत आदर सम्मान किया गया है क्योंकि वे हमें शास्त्रों का सार दिखाते हैं। नास्तिक आस्तिक के विपरीत है। जिसका अर्थ वह जो वेद शास्त्रों को प्रमाण रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। तीसरा वर्ग हैं आस्तिक-नास्तिक। आस्तिक-नास्तिक यानि वह जो वेद शास्त्रों को प्रमाण की तरह स्वीकार करता हैं परन्तु जब स्वयं के जीवन में उतारना होता हैं तब अनादर करता हैं। इन पाशुर के व्याख्यानों में श्रीपिल्लै लोकम जीयर विस्तार से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शब्दों को समझाते हैं। इस पाशुर में सबसे मुख्य पहलू है – यह पाशुर आचार्य की पूर्ण शरणागति एक विषय पर केन्द्रित होता है। इस सन्दर्भ मे आस्तिक, नास्तिक और आस्तिक-नास्तिक के उच्चतम पहलू को समझना है यानि क्रमश: से आचार्य के पूर्ण शरण होना, स्वयं के आचार्य के प्रति पूर्ण विश्वास न होना और विश्वास होना पर उनके मार्ग पर न चलना। अगर आचार्य आस्तिक-नास्तिक के कारण अपने शिष्य पर अपनी निर्हेतुक कृपा न करें तो उस शिष्य को दूसरी कोई आशा बाहीं है। ज्ञान और अनुष्ठान दो मुख्य पहलू हैं। उपदेश रत्नमाला प्रबन्ध में स्वयं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आचार्य के इन दो महत्त्वपूर्ण गुणों को दर्शाते हैं। यह सभी श्रीवैष्णवों के लिये लागू होता है।
  • विद्वानों और बड़ों के द्वारा दोषी ठहराना क्योंकि वे सारम और असारम पहलू में भेद नहीं बताते हैं बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य के शरण होने का कारण है उनसे विवेक ज्ञान (सार और बाहरी विषयों में भेद की क्षमता) प्राप्त करना है। हंस को विशेषकर उसके दूध और जल को अलग करने कि योग्यता के लिये स्तुति करते हैं। हमारे पूर्वाचार्यों को भी हंस की तरह स्तुति करते हैं क्योंकि शास्त्रानुसार सार विषय को दर्शाना और बाहरी विषयों को निकाल बाहर फेंकने में समर्थ हैं। हमारे पूर्वाचार्यों के पदचिन्हों पर चलकर विद्वानों से ज्ञान प्राप्त कर हमें सार और बाहरी विषयों में भेद समझने की योग्यता को विकसित करना चाहिये। जो सार हैं उसे बचा कर रखना और जो बाहरी पहलू का त्याग करना चाहिये। ऐसे न करना और बाहरी विषयों के पहलू मे लगे रहे तो विद्वानों द्वारा निन्दा होगी। उदाहरण के लिये विद्वानों से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भी अगर कोई सांसारीक सुख, आदि रखता हैं और आध्यात्मिक उत्थान पर ध्यान केन्द्रित नहीं करता हैं तो विद्वान ऐसों कि निन्दा कर दोषी मानते हैं।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: https://granthams.koyil.org/2014/11/virodhi-pariharangal-43/

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