लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां – १३

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां

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121) शिष्यनुक्कु आचार्यानुवर्त्तनम् पण्णलावदु अवन् देह परिग्रहम् पण्णियुरुक्किर नाळिलेयिरे।पिन्भुळ्ळत्तेल्लाम् भगवदनुभवत्तिले अन्यविक्कुमिरे इरुवर्कुम् ।                        

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पिन्भऴगिय पेरुमाळ् (जो लोकाचार्य (नम्पिळ्ळै) के दिव्य चरणों मे आसीन) स्वामीजी को योग्य और आदर्श शिष्य मानते है)

अनुवर्त्तनम् – आज्ञा पालन और सेवा करना, पिन्बु – परमपद पहुँचकर

इस संसार मे, एक शिष्य, स्वाचार्य की सेवा स्वदेह के साथ ही करता है। परमपद मे अर्थात् परमपद प्राप्त करने के बाद, शिष्य और आचार्य दोनों ही परमपदनाथका निगूढ़ानुभव (भगवदानुभव) मे संलग्न रहते है। लेकिन इस अवस्था मे भी आचार्य के पुरुषाकार से ही, शिष्य को, भगवान् की सन्निकर्षता प्राप्त करना चाहिये।

अनुवादक टीका :  इस अभूतपूर्व तत्त्व को श्रीवरवरमुनि स्वग्रन्थ उपदेशरत्नमाला ६४वें पासुर मे कहते है :

तन्नारियनुक्कुत् तान् अडिमै सेय्वदु
अवन् इन्नादु तन्निल् इरुक्कुम् नाळ्
अन्नेररिन्तुम् अदिल् आशैयिन्रि आचारियनैप् पिरिन्तिरुप्पारार्
मनमे पेशु  

सरलानुवाद – हे मन! मनन और विचार कर! भगवान् की इच्छापूर्तिके लिये इस भौतिकजगत् मे प्रगट आचार्यकी सेवा एक शिष्य करता है। यह समझनेके बाद भी वह शिष्य स्वाचार्यसे अलग व दूर रहकर उनकी कैसे सेवा नही करें यह कैसे हो सकता है?

पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी स्वग्रन्थ श्रीवचनभूषण दिव्यशास्त्र मे शिष्य लक्षण अध्याय मे कहते है शिष्य को स्वाचार्य का लौकिक व शारीरिक आवश्यकताओं (जैसे भोजन, वस्त्र, निवास आश्रय इत्यादि ) का पूरा ध्यान रखना चाहिये। इस अभूतपूर्व तत्त्व को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीवचनभूषण दिव्यशास्त्र ग्रन्थकी व्याख्या और श्रीवचनभूषण दिव्यशास्त्र ग्रन्थ के सारसारतम प्रतिपाद्य तत्त्वों को स्वग्रन्थ उपदेशरत्नमाला के सुन्दर पासुरों मे दर्शाते है।

परमपद मे भी आचार्य के पुरुषकार से ही शिष्य भगवान् की सेवा करता है क्योंकि आचार्य के पुरुषकार से ही शिष्य को परमपद का सौभाग्य मिला। श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी स्वग्रन्थ स्तोत्ररत्नके दूसरे श्लोक मे आचार्य किङ्कर्ता भाव अर्थात् श्रीमन्नाथमुनि स्वामीजी के प्रति उनके दास्य भाव को प्रकाशित कर कहते है – अत्र परत्र चापि नित्यम् यदीय चरणौ मदीयम् शरणम् – इस संसार और परमपदमे, श्रीमन्नाथमुनि के दिव्यचरणार्विन्द ही मेरे (श्रीयामुनमुनि के) शरण है।

122) देहात्माभिमानियानपोदु देहत्तिले अहम् बुद्धियैप् पण्णुम्। देहात् व्यतिरिक्तम् ओन्रुण्डु एन्ररिन्तपोदु आत्माविले अहम् बु्द्धियैप्पण्णुम्। तन्नै भगवच्छेषभूतनाग अनुसन्धित्तपोदु तन्नै तदीय शेषत्व पर्यन्तमाग अनुसन्धिक्कक् कडवन्।

मधुरकवि-आऴ्वार जीव के वास्तविक स्वरूप को दर्शाते हुए – भागवत पारतन्त्रय (शेषत्व)
जब जीवात्मा अनित्य शरीर और आत्माके अभेद तत्त्वको समझकर एक मानता है, ऐसा प्राप्त ज्ञान उस जीवमे अभेद भाव को सिद्ध करता है। जब जीवात्मा अनित्य शरीर और आत्माके भेद तत्त्वको समझकर दोनोें को भिन्न मानता है, वह स्वस्वातन्त्र अर्थात् ‘अहम् भाव’ को सिद्ध करता है। जब जीवात्मा, भगवान् के प्रति जीवात्मा का दासत्व को स्वीकार कर समझता है जैसा उत्ततुम् उन् अडियार्क्कु अडिमै मे कहा गया है, वह जीवात्मा शनै: शनै: भागवतों के प्रति जीवात्मा का दासत्व तत्त्वको समझने लगता है अर्थात् वह भगवान् के भक्तों का दास है।

अनुवादक टीका : उपरोक्त सरलार्थ मे व्याख्याकार जीवात्मा के विभिन्न अवस्थाओं मे जीवके ज्ञानप्रगति को दर्शा रहे है। कहने का तात्पर्य यह हुआ की परमात्मारूपी भगवान् जीवात्माको नित्य मार्गदर्शन देकर और जीवके ज्ञानका पालन-पोषण करते है। और अन्तोगत्वा जीवको स्वस्वरूप ज्ञान की पूर्णानुभूति प्रदान करते है। अऴगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी इस तत्त्वको आचार्य-हृदय ग्रन्थ के १५वें सूत्र मे कहते है –

अदु तानुम् आस्तिक्य विवेक अन्य शेषत्वस्वस्वातन्त्रिय निर्वृत्ति पारतन्त्रियङ्गलै उण्डाक्किन वऴि

पूर्ववर्ति सूत्रों मे, अऴगिय मणवाळ पेरुमाळ् नायनार् स्वामीजी सभी जीवों के प्रति भगवान् की मातृत्व सहनशीलता को समझाते है। एक माता जिस प्रकार स्वशिशुको स्वतन्त्रता देकर, और स्वशिशुके,स्वतन्त्रताभिमानसे किये गये अपराधों व गलतियोंको अतिशीघ्रता से सुधारकर स्वशिशुको श्रेष्ठ बनाती है ठीक उसी प्रकार भगवान् भी जीवात्माके कार्यविधियों व कर्मों को शास्त्रोचितविधि से अग्रसर कर जीव को तदनन्तर श्रेष्ठ ऊर्ध्वपथ मे यथानुरूप मार्गदर्शन कराते है। इस सूत्रमे विविध-विविध सोपानों पर भगवान् का जीव को यथानुरूप मार्गदर्शन कराने की विधि द्रटव्य है। इस सूत्र की श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की टीका अभूतपूर्व है जिसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत कर रहे है –
    • सर्वप्रथम, एक नास्तिकावादिमे विश्वास व श्रद्धाको बढ़ानेके लिये, भगवान् शास्त्रोंके कुछ शीघ्रफलप्रदायक अंशोंको प्रकाशित करते है। यथा मान लीजिए – एक व्यक्ति के बहुत सारे शत्रु है। बहुशत्रु विषादसे पीडित इस व्यक्तिको केवल शत्रुनाशकी इच्छापूर्ति के लिये शास्त्रोचित विधि स्येन यज्ञ को भगवान् प्रदान किये है। योग्य ब्राह्मण के कर कमलों से इस स्येनयज्ञको शास्त्रोचित विधिसे सम्पन्न कराने के पश्चात् यज्ञके प्रतिरूप शत्रुनाशके सुखद समाचारके श्रवणसे इस नास्तिकावादिमे शास्त्रों के प्रति विश्वास बढ़ता है। यह शास्त्रों के प्रति विश्वास प्रगति का सर्वप्रथम सोपान है। कहने का तात्पर्य यह हुआ की शास्त्रो मे श्रद्धा के बिना आध्यात्मिक पथ मे प्रगति असंभव है।
    • शास्त्रो के प्रति श्रद्धालता जब जीव मे जागृक होती है, तब भगवान् जीवात्मा को, जीवात्मा और प्राप्त शरीर दोनों के भिन्नत्व को दर्शाते है। भगवान् ज्योतिष्टोमम् (इत्यादि) (एक प्रकार का यज्ञ जिसे सम्पन्न करने पर तथा देह त्यागनेके पश्चात स्वर्गके विभिन्न सुख उस जीवको प्राप्त होगा) को प्रकाशित कर जीवोंमे श्रद्धालताको जागृक करते है। इससे जीवात्मा और प्राप्त शरीर का भेद को और समझने लगते है।
    • तदनन्तर भगवान् यह दर्शाते है की उपरोक्त स्वर्गके सुख अनित्य है। नित्यसुख तो केवल परमपद मे भगवान् की सेवा करने मे ही है जो भगवद्भक्ति से ही साध्य है। इससे जीवात्माको यह समझ आता है की नित्यसुख प्राप्तिके लिये उसे केवल भगवान् की सेवा करनी चाहिए न की अन्यों की।
    • तदनन्तर भगवान् यह दर्शाते है की भगवद्भक्ति मे अंशमात्र भी अहंकार जीवात्माके वास्तविक स्वरूप को नष्ट कर देता है। अत: स्वस्वातन्त्र विचारधारा को परिपूर्णतया त्यागकर भगवान् की शरणागति करना जीवात्माका परमश्रेय कर्तव्य है।
  • अन्तोगत्वा भगवान् की निर्हेतुककृुपा से जीवात्मा परतन्त्र भाव (ऐसी अवस्था जहां जीव भगवान् पर परिपूर्णतया निर्भर है और केवल भगवान् के विशुद्ध परमसुख के लिये ही जीवित है) प्राप्त करता है ।

जब ऐसी परतन्त्र भावरूपीलता जीवात्मामे विकसित होती है तो फलस्वरूप यह लता भागवत-शेषत्व और भागवत-सेवाके चरम रूपमे प्रकाशित होती है। इस तत्त्व को परकालन स्वामीजी पेरियतिरुमोऴि ८.१०.३ पासुर मे कहते है – हे तिरुक्कण्णपुर के स्वामी ! पेरियमहामन्त्र (तिरुवष्टाक्षर) के दिव्यार्थोंके अनुसन्धानके पश्चात् मै यह समझाकी आपका यह दास वास्तविकतामे आपकेदासों का दास है। इन्हीं शब्दों और इस तत्त्व को पुन: पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुपडि के ८९वें सूत्र मे दर्शाते है। इस ८९वें सूत्रकी टीका मे, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते है की जब जीवका अहंकार (भौतिक देह और आत्मा मे अभेद मानना) और ममकार (अपने आप को स्वतन्त्र मानना) पूर्णतया नष्ट हो जायें, तब जीव मे वास्तविकत स्वरूप अर्थात् भगवच्छेषत्व भाव प्रगट होता है। इस भावकी चरमसीमा भागवत-शेषत्व कहलाती है। इस प्रकारसे भगवान् अज्ञानी जीवात्मा (जिसे शास्त्रमे श्रद्धा नही है) को स्वस्वरूप ज्ञानप्रदान  कर उस जीवको स्वस्वरूप ज्ञानी मे परिवर्तित कर भागवत-शेषत्व की चरमसीमा मे प्रतिष्ठित करते है।

१२३) दिव्यमङ्गळ विग्रहमुम् , विग्रहगुणङ्गळुम् , दिव्यात्मस्वरूपमुम् , स्वरूपगुणङ्गुळुम् नित्यमुत्कर्कु प्राप्यमानाप्पोले, मुमुक्षुवाय् प्रपन्नान इव्वतिकारिक्कु द्वय शरीरमे प्राप्यमायिरुक्कुमिरे

मुमुक्षु – मोक्ष की इच्छा करने वाला, नित्य – भगवान् के पार्षदगण, मुक्त – वह जीव जिनको भगवद्धाम प्राप्त हुआ है।

नित्य और मुक्त जीव भगवान् के इन विभिन्न अंशों पर ध्यान कर प्राप्त करना चाहते है –

  • भगवान् का दिव्य स्वरूप
  • भगवान् के दिव्य मंगल स्वरूप के विभिन्न गुण जैसे सौकुमार्य (नम्रता व कोमलता), सौन्दर्य (अंग-अंग की सौन्दर्यता), सौगन्धय (दिव्य मंगल स्वरूप की परिमलता व महकता), यौवन (भगवान् का दिव्य यौवन स्वरूप)
  • यथा ‘एण्णुम् पोन्नुरुवाय् .. ‘ मे निर्दिष्ट भगवान् का दिव्यात्म स्वरूप
  • भगवान् के दिव्य स्वरूप को दर्शाने वाले दिव्यमंगल गुण यथा ज्ञान, शक्ति

अत एव, भगवच्छरणागतों को सदैव द्वयमहामन्त्र और इस महामन्त्र के दिव्यार्थ का चिन्तन-मनन और जाप करना चाहिए।

अनुवादक टीका : हमारे पूर्वाचार्य की अनुरक्ति सदैव द्वयमहामन्त्रमे ही थी। परम्परागत प्राप्त रहस्यत्रयों मे, शास्त्र सम्मत एवं सुखप्रदायक पेरियमन्त्र व तिरुमन्त्र है क्योंकि जीवात्मा और परमात्मा के विशिष्ट सम्बन्ध को यह मन्त्र स्पष्टता से दर्शाता है। चरमश्लोक भगवान् को अतिप्रिय है क्योंकि यह भगवान् को ही परमोपाय के रूप मे दर्शाता है। द्वयमहामन्त्र आचार्य को अतिप्रिय है क्योंकि यह महामन्त्र दर्शाता है की भगवती श्रीपिराट्टि ही पुरुषकार स्वरूपी है, भगवान् ही परमोपाय है, इनका युगल-स्वरूप ही जीव का एकमात्र शरण एवं संसेव्य है और इस युगल-स्वरूप की सेवा व कैङ्कर्य नित्यता की प्रार्थना कर जीव युगल-स्वरूप का शरण ग्रहण करता है।

श्रीरङ्गनाथ भगवान् के श्रीमद्रामानुजाचार्यको निर्देश दिया की वह उनके दिव्यक्षेत्र श्रीरङ्गममे द्वयमहामन्त्रके जाप और दिव्यार्थानुसन्धान से नित्य निवास करे। श्रीरङ्गनाथ भगवान् का यह निर्देश श्रीमद्रामानुजाचार्य स्वग्रन्थ श्रीगद्यत्रय मे दर्शाते है। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी स्वग्रन्थ श्रीवचनभूषण दिव्य शास्त्र मे यही कहते है – ‘ जप्तव्यम् गुरुपरम्परैयुम् द्वयमुम् ‘ जिसका वर्णन पूर्वोक्त १२०वें सू्त्र मे हो चुका है। श्रीमद्वरवरमुनि स्वामीजीने इस तत्त्वको स्वजीवनमे भरपूर पालनकर यही दर्शाया है की द्वयमहामन्त्रके जाप और दिव्यार्थानुसन्धान से नित्य निवास कैसे करे।

पूर्वदिनचर्या मे, देवराजगुरु (एरुम्बियप्पा) स्वामीजी श्रीमद्वरवरमुनि स्वामीजीके विभिन्न कार्यों को श्लोकबद्ध कर कहते है –

मन्त्र रत्नानुसन्धान सन्तत स्पुरिताधरम् ।
तदर्थतत्त्वनिध्यान सन्नद्धपुलकोद्गमम् ।।   

सरलार्थ :  श्रीमद्वरवरमुनि स्वामीजीके अधर मन्त्ररत्नानुसन्धान (द्वयमहामन्त्र का) निरन्तर जपते रहते है। इस निरन्तर मन्त्ररत्नानुसन्धान (जो तिरुवाय्मोऴि ही है ) व जप के प्रभाव से उनके शरीर मे विभिन्न दिव्य प्रतिक्रिया दृष्टिगोचर है।

श्री अऴगिय-मणवाळ-पेरुमाळ्-नायनार्  स्वामीजी स्वग्रन्थ आचार्य-हृदय २१०वें सूत्र मे कहते है –  द्वयमहामन्त्र के अर्थों का विवरण ही तिरुवाय्मोऴि है। तथा – ‘ द्वयार्थम् दीर्घ शरणागति एन्रदु सारसङ्ग्रहत्तिले ‘ इसका यह अर्थ हुआ की श्रीमद्वरवरमुनि स्वामीजी कहते है की द्वयमहामन्त्र के दश तत्त्व (श्रिय:पतित्व, पुरुषकारत्व इत्यादि) तिरुवाय्मोऴि मे विस्तार मे वर्णित है। इसी माध्यम से पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वामीजी का विशेष सारसङ्ग्रह  ग्रन्थ की पूर्ण प्रतिलिपि को स्वटीका मे उद्धृत कर समस्त जीवों पर महोपकार करते है। समस्त जीवोंके उद्धार हेतु पूर्वाचार्योंकी कृतियोंको शुद्धता एवं सरलता पूर्वक प्रकाशित करने की उनकी यह अहैतुकीकृपा का एक सीधा उदाहरण है।

१२३) भगवत्विषयत्तिले नेञ्जै वैत्तनुभविक्कैये यात्रैयानावनुक्कु अन्यपरनावनन् ओप्पागप्पोरुमो

              श्रीमद्रामानुजार्य और श्रीगोविन्दाचार्य स्वामीजी

वह व्यक्ति जो नित्य भगवान् का स्वभाव, नाम, रूप, दिव्य गुणों का नित्यानुसन्धान क्रिया मे नित्य संलग्न है, उसकी तुलना किसी अन्य देवतान्तराश्रित व्यक्ति से कदापि नही की जा सकती है।

अनुवादक टीका : भागवत वह है जो नित्य भगवान् की स्तुति करने मे संलग्न है। श्रीमद्भगवद्गीता के १०.९ वे श्लोक मे भगवान् श्रीकृष्ण कहते है – निरंतर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले (मुझ वासुदेव के लिए ही जिन्होंने अपना जीवन अर्पण कर दिया है उनका नाम मद्गतप्राणाः है।) भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरंतर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेव में ही निरंतर रमण करते हैं।

तथा श्रीमद्भगवद्गीता ९.१४ मे कहते है –

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥9.14॥

वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।

ऐसे भक्तजनों की तुलना उन व्यक्तियों से कदापि नही की जा सकती है जो अल्पफलों की इच्छा पूर्ती के लिये अन्य देवतान्तराश्रित है।

तिरुवाय्मोऴि ४.४.८ पासु्र मे श्रीशठकोप स्वामीजी घोषणा करते है – ‘इनियावर् निगर् अगल्वानत्ते’ अर्थात् भगवान् का प्रेम और वात्सल्य के प्रभाव से उत्साहित श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है की श्रीवैकुण्ठ मे भगवान् की स्तुति करने वालों मे उन जैसा कोई नही है। गोविन्दाचार्य स्वामीजी श्रीमद्रामानुजार्य स्वामीजी का दिव्य एवं अलौकिक शरीर का रसास्वादन कर कहते है – इल्लै एनक्कु एतिर् ? अर्थात् श्रीमद्रामानुजार्य के कृपापात्रों मे मुझसे अधिक सौभाग्यशाली और कौन हो सकता है। ठीक इसी प्रकार श्रीमधुरकवि-आऴ्वार का कण्णिणु्न्-शिरुत्ताम्बुमे श्रीशठकोप-स्वामीजी (की) एवं श्रीरङ्गनाथगुरु का इरामानुश-नूत्तन्दादि मे श्रीमद्रामानुजार्य की कीर्ति एवं स्तुति से यह स्थापित करते है की भागवत-जन अतुल्य है, भगवान् की तुलना मे भागवत-जन ही श्रेष्ठ है, फिर देवतान्तराश्रित व्यक्तियों की क्या कहें ?

१२५) आकिञ्चन्यमुम् स्वरूपमुम् प्रपत्तिक्कु परिकरमिरे

श्रीमन्नाथमुनि – श्रीयामुनाचार्य, काट्टुमन्नारकोइल् । पूर्णतया अकिंचनता भाव को श्रीयामुनाचार्य ने दर्शाया।

आकिञ्चन्यमुम् – पूर्ण निराश्रयता, स्वरूपम् – सत्स्वरूप (आत्मा भगवान् की किङ्कर्ता के लिये है)।

भगवच्छरणागति के अनुषंगी विषय – १) पूर्ण निराश्रयता और २) सत्स्वरूप के अनुसार जीवन का पालन करना है।

अनुवादक टीका : भगवान् को परमोपाय (एक मात्र शरण्य) के रूप मे स्वीकार करने से पहले जीव को यह समझना बहुत आवश्यक है की इस चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जीव को स्वसाधनाश्रय रहित होना चाहिये। श्रीशठकोप स्वामीजी इस तत्त्वको स्वग्रन्थ तिरुवाय्मोऴि ५.७.१ – नोत्त नोन्बिलेन् नुण्णरिविलेन् पासुर मे कहते है मेरे पास न तो कर्मयोग है, न ज्ञानयोग है, तथा भक्तियोग है परन्तु मै मेरे संरक्षण के लिये आप (भगवान्) पर पूर्णतया निर्भर हूं। तथा जीव को यह भी समझना चाहिये की जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप भगवान् पर पूर्ण निर्भरता है। यह दोनों तत्त्व प्रपत्ति के अनुषंगी है।

१२६) इरुवरुमान चेर्त्तियिलेयिरे इवनडिमै चेय्वदु। अच्चेर्त्ति तन्नैयेयिरे इवनुपायमागप् पत्तुवातुम। इत्ताल् शोल्लित्तगिरदु नित्यप्राप्यत्वमिरे। नित्यपूर्वविषयमिरे नित्यप्राप्यमाग वल्लतु।

जीवात्मा का चरमलक्ष्य युुगल-स्वरूप (पेरिय-पिराट्टि और पेरुमाळ्) जैसा ‘श्रीमते नारायणाय नम:‘ पद मे निर्दिष्ट, की सेवा करना है।श्रीमन नारायणाय  चरणौ शरणम् प्रपद्ये’ पद मे निर्दिष्ट युुगल-स्वरूप (पेरिय-पिराट्टि और पेरुमाळ्) को जीवात्मा उपायोपाय स्वरूप मानता है तथा उनका शरण ग्रहण करता है। इससे स्पष्ट है की जीवात्मा का नित्य कल्याण युुगल-स्वरूप (पेरिय-पिराट्टि और पेरुमाळ्) की सेवा करना है। वह जो अपूर्व एवं अतुल्य होता है वह ही वास्तविक चरमलक्ष्य होता है।

अनुवादक टीका : पेरिय-पिराट्टि और पेरुमाळ् सदा एक साथ रहते है। श्रीशठकोप स्वामीजी, पिराट्टि के शब्दों को दोहराते हुए तिरुवाय्मोऴि ६.१०.१० मे कहते है – अगलगिल्लेन् इरैयुम् अर्थात् एक क्षण के लिए भी भगवान् के वक्षस्थल का त्याग नही कर सकती। जिस प्रकार एक पुत्र-पुत्री का अपने माता-पिता (उभय) की सेवा करना सहजस्वभाव है ठीक उसी प्रकार युुगल-स्वरूप की सेवा करना जीवात्मा का सहज स्वभाव है। इस तत्त्व को पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वग्रन्थ मुमुक्षुपडि द्वय-प्रकरण मे द्वयमहामन्त्र के दूसरे खण्ड का श्रीमते ‘ शब्द की परिभाषा मे समझाते है। हम यहां श्रीमद्वरवरमुनि प्रणीत टीकाके कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे है :

    • सूत्र १६५ – ‘श्रीमते’ अर्थात् पेरुमाळ् जो सदैव पिराट्टि के साथ रहते है
    • सूत्र १६६ – जब भगवान् उपाय है, तो पिराट्टि परुषकार है। जब भगवान् प्राप्य (लक्ष्य) है, तो पिराट्टि भी इस प्राप्य (लक्ष्य) का अंग है और कैङ्कर्यवर्धन मे सहायता करती है। द्वयमहामन्त्र के प्रथम भाग मे, पिराट्टि पुरुषकारस्वरूपी है का वर्णन है। जब भगवान् जीवात्मा के दोषों को देखते है, तब पिराट्टि, भगवान् को समझाती है की, आप, जीवके, आप तक पहुंचनेके प्रयासकार्यको ही देखें और जीवात्मा के दोषों की अपेक्षा आप स्वयंकी महतीकृपाको अधिक महत्त्व दीजिए और जीव पर अनुग्रह कीजिए। इस प्रकार से श्रीजी, भगवान् को शान्त कर तथा भगवान् के मत को दृढ़ कर जीव को स्वीकारने को कहती है।द्वयमहामन्त्र के द्वितीय भाग मे दोनों अर्थात् श्रीजी और भगवान् प्राप्य लक्ष्य है यह सप्रमाण सिद्ध है।श्रीजी जीवात्मा को नित्यकैङ्कर्य करने मे प्रोत्साहन देती है। जब जीव स्वरूपानुरूप नित्यकैङ्कर्य मे सहर्ष संलग्न होता है तो इस हर्ष विषय को भगवान् के समक्ष प्रस्तुत कर भगवान् का मुखोल्लास करती है।
    • सूत्र १६७ – तिरुमन्त्र के नारायण ‘ शब्द मे वर्णित कैङ्कर्य का विस्तृत वर्णन है। तिरुमन्त्रमे भगवान् और श्रीजीका अप्रत्यक्ष संबंध है। परन्तु द्वयमहामन्त्र मे प्रत्यक्ष संबंध है।
    • सूत्र १६८ – इळय-पेरुमाळ् (श्रीलक्ष्मणजी) कहते है की वह श्रीसियपिय की सेवा नित्य करना चाहते है तथा यही आजीवन भर दर्शाया। यह एक श्रीवैष्णव का स्वरूपानुरूपाचरण है – भगवान् और श्रीजी की सेवा करना।
  • सूत्र १६९ – यथा माता-पिता के प्रति सन्तान की सेवा, माता-पिता को रसास्वादनीय है, तथाजीवात्मा की किङ्करता पूर्णभाव से ,भगवान् और श्रीजी के समक्ष, सन्तुष्ट है तथा रसास्वादनीय है।

१२७) इवनुडैय अपराधकालम् पार्त्तिरुन्दु प्रतिपत्ति पण्णुगैकु अवणुक्कु अवकाशमिल्लै – अवळ् कूड इरुक्कैयाले

श्रीरामचन्द्र के प्रकोपसे काकासुर का संरक्षण करती हुई पिराट्टि का दृश्य

प्रतिपत्ति – विचार करना !

पिराट्टि के संगमे रहने वाले परमेश्वर भगवान् को जीव के दोषों तथा तदनुसार जीव को दण्ड देने का विचार व अवकाश भी नही है क्योंकि पिराट्टि पुरुषकारत्व से जीव को भगवान् के प्रकोप से बचाती है।

अनुवादक टीका : जीवात्माओं के प्रति पिराट्टि सदैव चिन्ताग्रस्त रहती है। आप सदैव जीवात्माओं का योग-क्षेम देखती रहती है। अत एव आप यह सुनिश्चित करती है की जीवात्माओं के दोषों को देखकर भगवान् कुपित न हो और जीवों को दण्ड न दे। भगवान् के हृदय मे गुप्त कृपा को भीतर प्रकाशकर तथा यह सुनिश्चित करती है जीव भगवान् से संरक्षित/स्वीकृत है। पिराट्टि के इस गुणको पुरुषकार कहते है। पुरुषकार तत्त्व का वर्णन श्रीपिळ्ळेलोकाचार्य स्वामीजी स्वग्रन्थ के द्वयप्रकरण मे विस्तारपूर्वक किये है। इस सन्दर्भ मे श्रीवरवरमुनि प्रणीत टीका के कुछ अंश प्रस्तुत है –

    • सूत्र १२७ – भगवान् का हृदय चन्द्रमा की तरह शीतल और उपशामक है। लेकिन जीव के दोषों को देखते ही कुपित हो जाते है क्योंकि यह शास्त्रानुसार है। ऐसे सन्दर्भों मे भगवान् का कोप, पिराट्टि के सुन्दर और मनमोहक वचनों को सुनकर, शान्त हो जाता है और जीव पर कृपा करते है।
    • सूत्र १२८ –  पिराट्टि का पुरुषकार (अनुरोध) अचूक है। यह दो कारणों से सदैव सफल होता है – पहला १) आपश्री को जीवों के प्रति मातृ वात्सल्य है। दूसरा २) आप भगवान् की अनपायिनी व स्वामीनी है तथा भगवान् की प्रिया है। इसलिये भगवान् आपके विचारों व वचनों को सुनते है।
    • सूत्र १२९ – रावण संहार के पश्चात्, सीताजी को हानी तथा कष्ट पहुंचाने वाली राक्षस स्त्रियों के प्रति श्रीहनुमानजी बहुत कुपित थे। परन्तु लोक-माता सीताजी श्रीहनुमानजी से कहती है – हे कपि श्रेष्ठ ! आप इन राक्षस स्त्रियों पर आपका क्रोध न करें। इन्हें कृपा कर छोड़ दीजिये। लोकमाता के वचनों को सुनते ही श्रीहनुमानजी ने राक्षस स्त्रियों को छोड़ दिया। जब लोकमाता  श्रीहनुमानजी को समझाने मे सक्षम है तो भगवान् (जो प्रिया-श्रीजी के प्रति सदैव आकर्षित है) को समझाने मे क्या आपत्ति होगी?
  • सूत्र १३५ – श्रीरामजीके साथ उनकी (पिराट्टि की) सहज समीपता (उपस्थिति) के कारणार्थ काकासुर भगवान् के कोप से बच गया। परन्तु पिराट्टिकी असमीपता व अनुपस्थिति के कारण ही रावण की मृत्यु हुई।

१२८) वेरुमैयुम् स्वरूपमुम् इरण्डुम् प्रपत्तिक्कु परिकरिमिरे

भगवच्छरणागति के अनुषंगी विषय – १) पूर्ण निराश्रयता और २) सत्स्वरूप के अनुसार जीवन का पालन करना है।

अनुवादक टीका : भगवान् को परमोपाय (एक मात्र शरण्य) के रूप मे स्वीकार करने से पहले जीव को यह समझना बहुत आवश्यक है की इस चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये जीव को स्वसाधनाश्रय रहित होना चाहिये। श्रीशठकोप स्वामीजी इस तत्त्वको स्वग्रन्थ तिरुवाय्मोऴि ५.७.१ – नोत्त नोन्बिलेन् नुण्णरिविलेन् पासुर मे कहते है मेरे पास न तो कर्मयोग है, न ज्ञानयोग है, तथा भक्तियोग है परन्तु मै मेरे संरक्षण के लिये आप (भगवान्) पर पूर्णतया निर्भर हूं। तथा जीव को यह भी समझना चाहिये की जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप भगवान् पर पूर्ण निर्भरता है। यह दोनों तत्त्व प्रपत्ति के अनुषंगी है।

१२९) अधिकारिस्वरूपमादु अनन्यगतित्वमुम्, प्राप्यरुचियुम्, स्वरूपप्रकारशमुम् एन्-गिर-इवैयिरे

योग्य अधिकारी के लक्षण व गुण इस प्रकार है : १) केवल श्रीभगवान् को अनन्य शरण्य के रूप मे मानकर जीवन व्यतीत करना, २) भगवद्-कैङ्कर्य के प्रति रुचि रखना, ३) स्वरूपानुरूप स्वभाव को प्रकाशित करना अर्थात् मै भगवान् का दास हूं यह मानते हुए जीवन व्यापन करना।

अनुवादक टीका : यहां उपरोक्त तीन लक्षण प्रपन्न (भगवान् का शरणागत) के अत्यावश्यक गुण है। इन गुणों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है –

    • अनन्यगतित्वम् –  यह स्वीकारना की भगवान् के अलावा कोई और शरण्य नही है। भगवान् को अनन्यगति मानकर इसी परमेच्छा से उनका शरण लेना जीव का परम कर्तव्य है। जीव को अन्याभिलाषा रहित भगवान् की शरणागति करनी चाहिए। भगवान् जब यह देखते है की जीव अन्य देवी-देवताओं मे रुचि रखते है व स्वयं की स्वातन्त्रता मे विश्वास रखता है, तो भगवान् यह निश्चित करते है की वह जीव स्वकर्म के चक्रबन्धन मे फंसकर कर्मों के फलों को भोगता है तथा अन्योपायों मे जीव की रुचि बढ़ती है, अन्तोगत्वा देवतान्तरों के पूजार्चन मे संलग्न होता है। हम बारंबार सुनते आये है –  ‘ सणप्पनार् कण्ड ब्रह्मास्त्रम् पोले ‘ अर्थात् जब एक व्यक्ति ब्रह्मास्त्र प्रयोग से बन्धित है, अगर उस व्यक्तिको अन्य रस्सी से बान्ध दिया जाये तो ब्रह्मास्त्र निरस्त्र हो जाता है और वह व्यक्ति ब्रह्मास्त्र से मुक्त हो जाता है। ठीक इसी प्रकार से जीव को केवल भगवान् की ही अनन्यता से प्रपत्ति करनी चाहिए। अत एव जीव को देवतान्तर और स्व-स्वातन्त्रता को त्याग देना चाहिए। पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वामीजी इस तत्त्व को समझाने के लिये एक अभूतपूर्व ग्रन्थ ‘ प्रपन्न परित्रान ‘ प्रदान किये है। इस अभूतपूर्व ग्रन्थमे पिळ्ळै-लोकाचार्य स्वामीजी यह स्थापित करते है की भगवान् के अलावा अन्य कोई भी सच्चा रक्षक नही है।
    • प्राप्य रुचि – प्रपन्न होने के दो आवश्यक पहलू है १) जीवको भगवाद्धाम पहुंचने की तीव्रता तथा २) युगल-स्वरूप की सेवा करने मे जीव की रुचि और तदनुसार जीवन व्यापन करना। हमारे पूर्वाचार्य कहते है – ‘ इच्छैये अधिकारम् ‘ – इच्छा होना ही अधिकार है अत एव जीव को इच्छा होना अत्यावश्यक है। इसी कारण से भगवान् की कृपा से नियुक्त श्रीमद्रामानुजाचार्य ने अनेक आचार्यों को नियुक्त किया, तथा उनको निर्देश दिया की इस दिव्य ज्ञान का अभिवर्धन करे और जो कोई भी जानने की इच्छा रखते है उनको दिव्य ज्ञान का उपदेश दे। यही श्रीवरवरमुनि स्वामीजी स्वग्रन्थ उपदेशरत्नमाला मे कहते है – ‘ ओरण्वऴियै उपदेशित्तार् मुन्रोर् एरार् यतिराजर् इन्नरुळाल् पारुलगिल् आशैयुडैयोर्क्केल्लाम् कूरुम् ‘ – श्रीमद्रामानुजाचार्य ने अहैतिकीकृपा से निर्देश दिया की इस दिव्य ज्ञानको इच्छुक जीवों को उपदेश करें तथा सम्प्रदाय का अभिवर्धन करें।
  • स्वरूपप्रकाश – स्वस्वरूप ज्ञान प्राप्त जीव को स्वस्वरूपानुरूप स्वभाव को प्रकाशित करना चाहिए। शास्त्र कहता है – ‘अकिञ्चतकरस्य शेषत्वनुपपत्ति:‘ – अर्थात् जीवात्मा का स्वरूप ही भगवान् की सेवा करना है। अगर ऐसा सेवा-भाव प्रकाशित न हो, तो जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप नष्ट हो जाता है।

१३०) त्रिविध चेतनरैयुम् मातृत्व प्रयुक्तमाग नियमिक्कुम् । इश्वरनै प्रणयित्व निबन्धनमाग नियमिक्कुम्

चेतन (जीवात्मा) तीन प्रकार के होते है – १) बद्धजीव (वह जीव जो भौतिक जगत् मे बद्ध है), २) मुक्तजीव (वह जो पूर्व काल मे बद्ध थे परन्तु अब परमपद मे है), ३) नित्यजीव – वह जीव जो नित्य मुक्त है तथा परमपद मे है। पिराट्टि सभी जीवों के प्रति मातृ-वात्सल्य दर्शाकर नियन्त्रण करती है। भगवान् की अनुरागशील पट्टरानी होने के एक मात्रकारण से, पिराट्टि, भगवान् का नियन्त्रण करती है।

अनुवादक टीका : भगवान् और जीवात्माओं को यथारूप निर्देश व पुन: संभावित करने का उत्तरदायित्व मात्र पिराट्टि का है। श्रीजी यह सुनिश्चित करती है की मुक्त-जीवात्माओं और नित्य-जीवों को नियंत्रित कर तथा भगवद्-सेवा का मार्गदर्शन कराकर भगवद्-सेवा मे संलग्न करती है।श्रीजी स्वयं की कृपा से बद्धजीवों को सुधारकर भगवान् के सन्मुख कराती है। पिराट्टि का, भगवान् के साथ उनकी पट्टरानी होने का जो सम्बन्ध है, मात्र उससे भगवान् का नियन्त्रण कर, भगवान् को जीवात्माओं का संरक्षण करने का मार्गदर्शन देकर,जीवात्माओं के प्रति भगवान् के क्रोध को शान्त करती है। परुषकार विषय सन्दर्भमे पिळ्ळै-लोकाचार्य ने विस्तारपूर्वक इस तत्त्वको स्वग्रन्थ श्रीवचनभूषणदिव्यशास्त्र मे समझाया है। उसी के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है :

  • सूत्र ११ – स्व-उपदेशों से पिराट्टि, भगवान् और बद्धजीवों को सुधारती है।
  • सूत्र १२ – स्व-उपदेशों से पिराट्टि, भगवान् और जीवों के कर्मबन्धन को नष्ट करती है। भगवान् जीवके कर्मोंका फल देने तथा जीव उन कर्मों के फलों का उपभोग करने के बन्धन मे है। श्रीजी स्व-उपदेशों से इन दोनों को इस बन्धनसे मुक्त कर तथा जीव के कर्मों की उपेक्षा भगवान् की दिव्यकृपा को अग्रस्थान मे प्रकाशमय कराकर जीव पर दोनों की वात्सल्यवर्षा बरसाती है।
  • सूत्र १३ – जब जीव श्रीजी के दिव्य उपदेशों के श्रवण तथा अनुग्रह से अपरिवर्तित व असुधारा है, तब केवल स्वाहैतुकी कृपा वर्षा से दिव्यानुग्रह कर जीव को शु्द्ध करती है। जब भगवान् का हृदय उनके दिव्य उपदेशों से अपरिवर्तित है तब स्वयं की मनमोहक सुन्दरता से भगवान् को वशकर तदनन्तर जीव के योगक्षेम के लिये भगवान् को नियन्त्रित करती है।

अडियेन् सेट्टलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास

आधार – https://granthams.koyil.org/2013/09/divine-revelations-of-lokacharya-13/

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