श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीय:पति, श्रीमहालक्षमीजी के पति, बड़ी कृपा कर आल्वार श्रीशठकोप स्वामीजी, श्रीपरकाल स्वामीजी, श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी जैसे महानों को इस संसार में हम सांसारियों (भोगार्थी) को कलियुग कि नरक से मुक्त करने हेतु अवतरित किया। तत्पश्चात् उन्होने कृपा कर श्रीनाथमुनि स्वामीजी और श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी को अवतारित कर्के उनके जरिये इस संसार कि रक्षा की। गुरुपरम्परा प्रभावम (आचार्य और आलवारों कि परम्परा कि महानता) [श्री पिन्बऴगिय पेरुमाल जीयर] के जरिये जो भी बादमे इस संसार में आये उन सांसारियों को आचार्यों और आलवारों कि महानता के बारे मे बताया गया। यहाँ तक न रुके, श्रीय:पति, जो स्वयम सेषि हैं, चित और अचित दोनों तत्त्वों के स्वामी हैं कृपाकर विहित से यतीन्द्रप्रवणर (जो यतियों के स्रेष्ठ श्रीरामानुज स्वामीजी के प्रति अत्यन्त स्नेह है- श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को संबोधीत) को इस संसार में सभी चेतनों को जीयर (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) के कार्य और शब्दों से रक्षा करने हेतु लाये। श्रीपिळ्ळै लोकम जीयर स्वामीजी अपने आचार्य (श्रीशठकोपाचार्य जो उनके पिता भी थे) कि कृपा और श्रीकन्दाडै नायन (कोइल कन्दाडै अण्णन के पुत्र जो श्रीदाशरथी स्वामीजी के वंशज हैं) के कृपा से श्रीवरवरमुनि कि महानता को हम सब के सामने अपने ग्रन्थ यतीन्द्र प्रवण प्रभावम में लाये।
यह प्रबन्ध पूर्वाचार्यों पर पहिले विरचित प्रबन्ध का हीं आगे कि कथा हैं (जैसे गुरु परम्परा प्रभावम आदि)। शुरुवात से हि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कि महानता के विषय पर चर्चा करने के पूर्व श्रीपिळ्ळै लोकम जीयर स्वामीजी यह कहते हैं कि कैसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को सतसम्प्रदाय (पवित्र और पारंपरिक तत्त्व {दर्शनशास्त्र}) के विषय का ज्ञात हुआ। इसके लिए वह यह श्लोक कहते हैं।
श्रीवत्सचिन्न भवतः चरणारविन्द सेवामृतैक रसिकान् करुणासुपूर्णन् ।
भट्टार्यवर्य निगमान्तमुनीन्द्र लोकगुर्वादि देशिकवरान् शरणम् प्रपद्ये॥
(ओह, श्रीकूरेश स्वामीजी! मैं महान आचार्य जैसे श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी {श्रीकूरेश स्वामीजी के पुत्र}, श्रीवेदांती स्वामीजी, श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी, आदि के शरण होता हूँ जो कृपा से भरे हुए थे और जो कैंकर्य के अमृत को आपके दिव्य चरण कमलों तक लाने के लिये उत्सुक थे) यह बताने के लिये कि तत्त्वों के सिद्धान्त पूर्ण रूप से श्रीवेदांती स्वामीजी और श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के आरोपित हैं। आचार्यों के बीच जो श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को मानते हैं, पिल्लै लोकम जीयर स्वामीजी यह बताने के लिए कि कैसे परंपरागत तत्त्वों के सिंद्धांत श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास पहूंचा श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी के वर्णन को लेते हैं। उसे इस पाशुर के माध्यम से लाया गया:
कोदिल उलहासिरियन कूरकुलोत्तम तादर
तीदिल तिरुमलैयाऴ्वार चेऴुम कुरवै मणवाळर
ओदरियपुगऴ तिरुनावीऱुडैय पिरान तादरुडन
पोद मणवाळमुनि पोन्नडिगळ पोऱऱुवने
(हम इनके दिव्य चरण कमलों कि प्रशंसा करेंगे (१) निर्दोष श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी, (२) कूरकुलोत्तम दासर, (३)निर्दोष गुणों से भर्पूर् तिरुवाइमोऴिपिळ्ळै नाम से भी जाने जाते तिरुमलैयाऴ्वार, (४) श्रीकोट्टूर अऴगिय मणवाळर जिन्का अवतार कुरवै नगर मे हुआ, (५) यशस्वी तिगऴकिडन्दान तिरुनावीऱुडयपिरान दासर ऐवम (६) श्री वरवरमुनि स्वामीजी जिनका चरण दिव्य कमल के समान थे) [यह पाशुर श्रीवचन भूषण के अंत में गाया जाता है; ऊपर बताए गये ६ महान आचार्यों मे श्रीकोट्टूर अऴगिय मणवाळर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के नानाजी और तिगऴकिडन्दान तिरुनावीऱुडयपिरान दासर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पूज्य पिता] थे।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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