श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
लगभग उस समय एक व्यक्ति जिन्का नाम देवराज (नम्बूर वरदराजर) था,वह पदुगै चक्रवर्ती मन्दिर के समीप रहता था। उन्हे सभी सामान्य और प्रतिष्ठित जन पसंद करते थे। वह बड़ा दयालु और सत्व गुणों का प्रदर्शन करता था। श्रीवेदांती स्वामीजी को एक दिन स्वप्न आया जिसमे उन्होने देवराज को बुलाकर विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त के विषयों पर निर्देश देने को कहा गया और उसे उनके ओन्बदिनायिरपडि कि हस्तलिपि बनाने को कहा। श्रीवेदांती स्वामीजी सोचा कि यह शठगोप स्वामीजी के कृपा हैं और उन्होंने अपने शिष्यों से देवराज के विषय में जाँच करवाई। उन्होंने देवराज को उनके समक्ष ले आया। श्रीवेदांती स्वामीजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और एक ताड़ का पत्ता दिया और उन्हें उसपर लिखने को कहा। श्रीदेवराज ने लिखा “श्रीवेदांती स्वामीजी के दिव्य चरण हीं मेरे शरण हैं” और श्रीवेदांती स्वामीजी के चरणों को पकड़कर उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। श्रीवेदांती स्वामीजी ने खुश होकर उन्हें आशीर्वाद दिया और कृपा कर उन्हें संक्षिप्त में श्रीसहस्रगीति के सटीक अर्थों को बताया। उन्होंने श्रीदेवराज को रिक्त ताड़ के पत्ते दिये और उन्हें ओन्बदिनायिरपडि के स्पष्ट प्रतियां बनाने को कहा। श्रीदेवराज ने उनकी आज्ञा लेकर वहाँ से चले गये और जब कावेरी नदी को पार कर रहे थे तो बाढ़ आगयी। एक माहिर तैराक होने के कारण श्रीदेवराज ने ओन्बदिनायिरपडि कि मूल हस्तलिपि और रिक्त ताड़ के पत्ते को अपने मस्तक पर बांध लिया और तैरने लगे। क्योंकि बाढ़ बहुत तेज हो गई हस्तलिपि और रिक्त ताड़ के पत्ते उनके मस्तक से फिसल गये और बाढ़ के पानी में बह गये। श्रीदेवराज बहुत उदास होकर सोच रहे थे “मैंने अपने आचार्य के प्रति बहुत बड़ी अपचार कि हैं” और शोकाकुल हो गये। दो श्रीवैष्णवों ने उनकी हालत देखकर उन्हें उनकी तिरुमाळिगै में ले गये। इस घटना को सुनकर उनकी पत्नी भी बहुत उदास हुई। दोनों ने उस दिन उपवास किया। उनकी पत्नी ने फिर उनसे कहा “हमें तिरुवाराधन [तिरुवाराधन भगवान के पूजा की एक व्यवस्थित और स्थापित विधि हैं] करने से बचना नहीं चाहिये”। श्रीदेवराज ने तत्पश्चात स्थान कर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक (तिरुमण काप्पु, भगवान के चरण चिन्ह जिसे कोई धारण करता है) धारण कर अपनी तिरुवाराधन को प्रारम्भ किया। क्योंकि वें बहुत कमजोर महसूस कर रहे थे वें अपनी निद्रा को भूल गये जब उनके तिरुमाळिगै के सन्निधि (किसिके घर का पवित्र गर्भगृह) के श्रीरङ्गराज भगवान ने कहा “हे देवराज! आओ! शोक मत करो। ताजे ताड़ के पत्ते लेकर लिखना प्रारम्भ करो। मैं तुम्हारे साथ रहूँगा”। तुरन्त श्रीदेवराज ने “श्रीय: पतियै” (श्रीमहालक्ष्मीजी के पति) यह शब्द कहते हुए प्रारम्भ किया और श्रीवेदांती स्वामीजी के “विशिष्ट तरीके से उन्होंने मुझपर कृपा कर आशीर्वाद दिया” इन शब्दों को स्मरण कर समाप्त किया । क्योंकि श्रीवेदांती स्वामीजी की सभी शिक्षा दृढ़ता से उनके विचार में थी इसलिए वें सभी पुनः स्मरण कर सके और उसे ताड़ के पत्ते पर लिखा। उन्होंने तिरुमाळिगै की सन्निधि में भगवान को प्रसाद अर्पण कर उसमें से थोड़ा ग्रहण कर ओन्बदिनायिरपडि का श्रीकोसम (ग्रंथ के रूप मे एक दिव्य कार्य) को सम्पूर्ण कर श्रीवेदन्ती स्वामीजी के पास जा कर साष्टांग दंडवत प्रणाम कर हस्तलिपि को उन्हें अर्पित कि। श्रीवेदांती स्वामीजी अत्याधिक आनंदित हुए और हस्तलिपि लेकर पढ़ने लगे। उन्होंने देखा कुछ जगहों पर जहा उन्हें शंखा थी और वहा उन्होंने व्याख्या को पूर्ण नहीं किया, हालाकी वहाके अर्थों को बड़ी सुन्दरता समझाया गया हैं। उन्होंने श्रीदेवराज को बुलाया और कहा “यह कितना अद्भुत हैं! यह क्या बुद्धिमानी हैं! यह कैसे हुआ?”। श्रीदेवराज ने उन्हें (जब उन्होंने श्रीवेदांती स्वामीजी की सभा को छोड़ा) क्या हुआ सब कुछ विस्तार से बताया। जीयर प्रसन्नता से खड़े होकर श्रीदेवराज को आलिंगन कर कहा “क्या आप नम्पिळ्ळै हैं?” (हमारे महान पुत्र)। उन्होंने तब अपने तिरुआराधन भगवान “आयर्देवु” की पूजा कि और श्रीदेवराज को नम्पिळ्ळै (श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी) नाम देकर अपने आचार्य श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के इच्छानुसार इस सम्प्रदाय के मुखिया बनाया और अंगूठी दी जो इस सम्प्रदाय के मुखिया को दि जाती हैं। उन्होंने श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को “अपने बुद्धि अनुसार श्रीसहस्रगीति पर व्याख्या कर श्रीरामानुज संप्रदाय को विकसीत करने को कहा”। तत्पश्चात स्वामि नम्पिळ्ळै ज्ञान कि भन्डार्,भक्ति, लौकीय विशयों से वैराग्य भरा जीवन जीने लगे। कई श्रीवैष्णव उनको अनुसरण करने लगे और वहाँ उन्के कालक्षेप मे आये जन समूह को देखकर कई जन यह पूछते थे कि क्या “यह नम्पेरुमाळ कि सभा हैं? या स्वामि नम्पिळ्ळै कि सभा?”।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/07/19/yathindhra-pravana-prabhavam-4-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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