श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ओन्बदिनायिरप्पडि को विशिष्ट अर्थो के साथ उनके शिष्य श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै को सिखाना प्रारम्भ किया। श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै ने प्रतिदिन इन अर्थों का पट्टोंलै (ताड़ के पत्ते पर पहिली प्रति) बनाना प्रारम्भ किया। कालक्षेप के अन्त में उन सभी हस्तलिपि को लाकर श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के दिव्य श्रीचरणों में निवेदन करते थे। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी इससे बहुत प्रसन्न हो गये, उन्होंने हस्तलिपि पर अपनी कृपा बरसाई और श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी को मूल के कई प्रतियाँ बनाकर उसे दूर दूर तक प्रचार करने को कहा ताकि सब जानकार इसका लाभ ले सके। यहाँ यह समझना उचित हैं कि श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी श्रीसहस्रगीति पर व्याख्या उसके आचार्य श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के कहने पर किया नाकि श्रीनडुविल्तिरुवीदिप्पिळ्ळै और श्रीवडक्कुत्तिरुवीदिप्पिळ्ळै के तरह जिन्होंने अपनी इच्छा से पहिली प्रति बाहर निकाली। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने प्रबन्ध उपदेशरत्नमाला में विशेषता अपने ४३वें पाशुर में यह बताया “नम्पिळ्ळै तम्मुडैय नल्लरुळ्ळै एवियिड पिन् पेरियवाच्चान् पिळ्ळै अदनाल् इन्बावरूपत्ति माऱन् मऱैप्पोरुळैच् चोन्नदु इरुबत्तिनालायिरम्” (श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के आज्ञा करने के पश्चात उनकी दिव्य कृपा से श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी ने इरुपत्तिनालायिरप्पडि कि रचना किये जो श्रीसहस्रगीति कि व्याख्या हैं जिसे श्रीशठकोप स्वामीजी ने रचा जो भगवान के कृपा से अवतार लिए हैं)।
एक दिन श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी श्रीकृष्णपाद स्वामीजी और सिऱियाऴ्वान्पिळ्ळै(ईयुण्णि माधवर) को बुलाकर ओन्बदिनायिरप्पडि पढ़ने को कहा। श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै स्वामीजी ने भी इसे पढ़ने के लिये इन सब के साथ शामिल होने की इच्छा प्रगट कि। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने भि अनुमति दी और उन्हें अर्थ कहा। श्रीकृष्णपाद स्वामीजी ने प्रतिदिन् श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के कालक्षेपों कि टिपण्णी अपने तिरुमाळिगै में बनाना प्रारम्भ किया। एक दिन श्रीकृष्णपाद स्वामीजी ने श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को अपनी तिरुमाळिगै में प्रसाद ग्रुहण् कर्ने के लिये आमंत्रित किया। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने कहा कि वें प्रसाद ग्रुहण् कर्ने के आगे श्रीकृष्णपाद स्वामीजी के तिरुमाळिगै के सन्निधि में तिरुआराधन करेंगे। जब उन्होंने तिरुआराधन करने हेतु तिरुमाळिगै के भगवान के मंदिर के पट खोले तब उन्होंने वहाँ पर ताड़ के पत्ते कि हस्तलिपि कि एक गठरी देखि। उन्होंने श्रीकृष्णपाद स्वामीजी को इसके बारे में पूछा। पिळ्ळै स्वामीजी ने कहा कि उन्होंने टिप्पणी इसलिये बनायी ताकि श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी द्वारा श्रीसहस्रगीति के पाशुरों के अर्थों को वें कभी न भूलें। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने उन्हें स्वयं हीं तिरुआराधन करने को कहा और स्वयं बहुत समय तक हस्तलिपि कि जांच कर रहे थे। जब वें स्वयं प्रसाद ग्रुहण् कर्ने को गये तो उन्होंने श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै और ईयुण्णि माधवर को हस्तलिपि कि जांच करने को कहा। प्रसाद ग्रुहण् कर्ने के पश्चात वें स्वयं भी जांच करने लग गये। जब वें जिस शानदार तरिके से व्याख्या लिखा गया हैं उसका गुणगान कर रहे थे, श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने श्रीकृष्णपाद स्वामीजी को बुलाकर पूछा “आपने ऐसा क्यों किया ? क्या आपने सोचा कि ‘सिर्फ श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै हीं व्याख्या लिख सकते हैं? क्या हम नहीं कर सकते हैं?’ क्या आप् यहीं सोचरहेहैं?” यह शब्द सुनते हीं श्रीकृष्णपाद स्वामीजी डर से कांपने लगे और बेहोश हो गये। जब उन्हें पुनः होश आया तब उन्होंने श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी से कहा “ओ जीयर! मैंने इस तरह नहीं सोचा था। मैंने तो इसे सिर्फ कोई गूढ़ार्थ भूल जाने पर उसे वापिस देखने मात्र के लिए हीं इसे लिखा है” और उनके श्रीचरणों में गिर पड़े और कहा कि उतावले पन के वशीभूत होकर ऐसा किया है। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी उन्हें कहते हैं “मैं आपको क्षमा करता हूँ। ऐसा लगता है कि आपका एक अलौकिक विशिष्ट जन्म हुआ है। मैंने श्रीवेदांती स्वामीजी के कालक्षेप से जो कुछ भी आपको सुनाया है उसमें कहीं भी अर्ध विराम या पूर्ण विराम तक का भि गलति नहीं हुवा है। आपकी इस क्षमता का मैं कैसे गुणगान करूँ।” उन्होंने आगे फिर कहा कि मैं चाहता हूँ कि माधवर (ईयुण्णि माधवप्पेरुमाळ्, उनके शिष्य) जिनका नाम और उनके आचार्य का नाम एक हीं हैं (सन्यासाश्रम ग्रहण करने के पहिले श्रीवेदांती स्वामीजी का नाम माधवर था) इस व्याख्या का प्रचार प्रसार करे। श्रीकृष्णपाद स्वामीजी इन सब घटनाओं को देखकर बहुत प्रसन्न हो गये। श्रीकृष्णपाद स्वामीजी ने उस हस्तलिपि के गठरी को ईयुण्णि माधवप्पेरुमाळ् को देकर कहा “इस मूल के ४ या ५ प्रति बनाये और इसका सब स्थानों पर प्रचार प्रसार करें”। ईयुण्णि माधवप्पेरुमाळ् यह कहने के लिए घबरा गये कि “क्या मैं इस कार्य करने में सक्षम हूँ? क्या मुझे स्वीकृति प्राप्त होगी?” श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने उन्हें कहा “क्या आपके लिए यह बहुत बड़ा कार्य हैं जबकि आपके पास श्रीवेदांती स्वामीजी का आशिर्वाद और नाम हैं? इसका पौराणिक वर्णन हैं। इसे सुने। कांची के श्रीवरदराज भगवान तोन्नु पुगऴ् कन्दाडैत्तोऴप्पर् के स्वप्न में आकार कहा,
जगतरक्षापरोऽनन्दो जनिश्यत्यपरोमुनिः।
तदरश्रयास्स्दाचारा सात्विकाः तत्वदर्शिनः॥
(तिरुवनन्दाऴ्वान् जो संसार कि रक्षा में निरत है (केवल श्रीरामानुज मुनि के अवतार को छोड़) वें एक और मुनि (जो सब के उद्धार के लिए तपस्या करते हैं) के रूप में अवतार लेंगे; जो उनके शरण होंगे उनके पास अच्छा चरित्र और गुण होगा)। तब तक आप इसी आधार पर कालक्षेप करते रहे”। माधवर भी इस हस्तलिपि के पाँच प्रतियाँ बनाये और अपने पुत्र ईयुण्णि पद्मनाभ पेरुमाळ् को सिखाया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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