यतीन्द्र प्रवण प्रभावम – भाग ६

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम

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श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी की दो पत्नीयाँ थी। पहिली पत्नी एक दिन प्रसाद बनाती थी और दूसरे दिन दूसरी पत्नी। जब ऐसे हीं प्रतिदिन चल रहा था तब श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने अपनी पहिली पत्नी को बुलाकर कहा “आप मेरे विषय में अपने मन क्या सोचती हो?” उन्होंने उन्हें प्रणाम कर शरमाते और घबराते हुए उत्तर दिया कि “आप श्रीरन्ङ्गनाथ भगवान के अवतार और मेरे आचार्य हो। मैं आपके दिव्य चरणों में जो भी कैंकर्य करती हूँ वही मेरी जीविका और आपके शब्द ही मेरे लिए पालनीय हैं”। तत्पश्चात यही प्रश्न उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से पूछा। उन्होने  भी शरमाते और घबराते हुए उत्तर दिया “आप मेरे पति हो और मै आपकी पत्नी हूँ”। दोनों कि प्रतिक्रीया सुनकर श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने अपनी पहिली पत्नी को नित्य प्रति प्रसाद बनाने की और दूसरी पत्नी को पहिली पत्नी कि सेवा करने कि आज्ञा कि। महीने के उन दीनों मे जब पहिली पत्नी प्रसाद नही बनाती थी तब दूसरी पत्नी प्रसाद बनाती थी। तब स्वामीजी उस प्रसाद को भगवान को अर्पण कर उसे एक उच्च वर्ण के श्रीवैष्णव को छूने को कहते जो रासायनिक सोने के समान हैं जो जिस वस्तु को छूते है वह स्वर्ण हो जाता, जो शुद्ध सत्व गुणोंमे डूबे रहते हो और श्रीवैष्णवों में सबसे उत्तम हो और इसके पश्चात वें प्रसाद को ग्रुहण कर्ते थे। इससे यह समझ आता है कि,  वह प्रसाद भगवान ने ग्रुहण किया है तो भि परम सात्विक श्रीवैष्णव द्वारा  इसे छुवाना आवश्यक है क्योंकि दूसरी पत्नी में पवित्रता कि कमी थी। 

श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को दूसरी पत्नी से एक पुत्र हुआ। जैसे ही श्रीवैष्णवों ने इसकी घोषणा कि तिरुप्पेराच्चान नामक एक भागवत ने कहा “मेरे बड़े भाई ने अवतार लिया है”। इसका अर्थ यह है कि आचार्य पुत्र अगर हमसे उम्र मे छोटा भी हो तो उसे बड़ा माना जाता है। 

एक दिन श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी दयापूर्वक अपने एक शिष्य श्री पिन्बऴगिय पेरुमाळ् जीयर् के मठ (तिरुमाळिगै) में गये। उनके शिष्यों ने उन्हें पूछा कि “हालाकि हमे अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये आऴ्वार् जैसे होना चाहिये परन्तु हम अभी भी स्त्री, प्रसाद, मदपान आदि मे ही लगे हुए हैं। अब हमे क्या करना चाहिये?”। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी दयापूर्वक कहा “भले हीं हम सांसारिक पहलू मे निरत हैं, अपना शरीर त्यागने से पश्चात और अपना अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने से पहिले भगवान हमें आऴ्वारों कि स्थिति में लायेंगे और ऐसे करना ही होगा”। इसका प्रमाण यह सूक्ति है “नखलु भागवता यम विषयं गच्छन्त” (श्रीवैष्णव जो भगवान कि भक्ति करते हैं वें यम के (नीतिपरायणता के देवता) निवास स्थान नहीं पहूंचेंगे) और मुदल तिरुवन्दादी के ५५वें पाशुर में “अवन् तमर् येव्विनैयारागिलुम् एङ्गोन् अवन् तमरे एन्ऱु ओऴिवदल्लाल् नमन् तमराल् आरायप्पट्टु अऱियार् कण्डीर्” (आप यह देख सकते हो कि यम के दूत श्रीवैष्णवों से कभी भी प्रश्न नहीं करेंगे बल्कि श्रीवैष्णवों के निरपेक्ष कार्य कि प्रशंसा करेंगे “क्या वें हमारे भगवान के अनुयायी नहीं हैं!”)। अत: ये आत्मायें (सवेन्दंशील अस्तित्व) निरंतर स्वयं को ऊपर उठाने में डुबे रहते हें। जब आत्मा इस शरीर को छोड़ता है तब भगवान आत्मा को उस शरीर में घृणा उत्पन्न कराते हैं और जब वे अर्चिरादिक मार्ग (दीप्ति कि राह जो श्रीवैकुंठ कि ओर ले जाता हैं) में अपनी यात्रा प्रारम्भ कर्ता है  तब वे आत्मा को अपना दिव्य रूप प्रधान् करते हैं वैसे हीं जैसे उन्होंने श्रीमालाकार (श्रीकृष्ण अवतार के समय पुष्पहार बनानेवाला) को प्रधान् किया और आत्मा में परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति (भगवान का ज्ञान, भगवान के अनुपस्थिति में पोषण करने में असमर्थ होना और अन्त में भगवान के पास पहूंचना क्रमश:) के गुण उत्पन्न करते हैं। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/07/21/yathindhra-pravana-prabhavam-6-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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