यतीन्द्र प्रवण प्रभावम – भाग ७

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम

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श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी एक बार एक व्यक्ति जिसका नाम पेरिय कोयिल् वळ्ळलार् हैं उनसे पूछा की श्रीपरकाल स्वामीजी द्वारा रचित तिरुमोऴि के पहिले पद्य का अर्थ बताये, १-१-९ पाशुर कुलं तरुं (यह पाशुर श्रीमन्नारायण के दिव्य नाम संकीर्तन करने के लाभ बताता हैं; पहला पाशुर कहता हैं दिव्य नाम संकीर्तन करने से एक अच्छा वंश {एक श्रीवैष्णव बनके जन्म लेना} प्राप्त होगा) वळ्ळलार् उत्तर देते हैं कि “अगर मैं अछूत वंश में भी जन्म लूँ और नम्बूर (श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी इस गाँव से थे) वंश का दास बनाया गया हो तो मुझे अच्छा वंश प्रदान किया गया हैं ऐसा मैं समझूँगा”। दूसरे शब्दों में आचार्य के वंश में सेवा करने को एक उच्च वंश का हूँ ऐसा समझना। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के शिष्य उन्हें पूछते हैं कि “भगवान का अवतार कैसे होगा?” वें कहते हैं “दिव्य स्वरूप फीका होगा और जीभ सूखी होगी” वें पुनः पूछते हैं “वे ऐसे क्यों हैं?”। वें प्रतिक्रीया प्रगट करते हैं “उनका स्वरूप फीका होगा क्योंकि उन्हें एक उचित व्यक्ति नहीं मिला जिन्हे वो मोक्ष प्रदान कर सकें; उनकी जीभ सूखी होगी क्योंकि अगर वें ऐसे व्यक्ति को देखते भी हो तो भी उस व्यक्ति मे प्रयोजनान्तपरर् (जो दूसरे लाभ को पूछेगा स्वयं भगवान को नहीं) होगा”। इसका लक्षित अर्थ यह है कि अगर भगवान सभी स्थानों पर खोज भी करें तो भी उन्हें वह व्यक्ति नहीं मिलेगा जो अपने आचार्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो और जो अन्य लाभ को नहीं देखता हो। 

इस प्रकार जब श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी इस संसार से कालियुग (युगों में चौथा युग जब भगवान के प्रति अज्ञान निकृष्टतम पर हैं) का अंधेरा दूर करने में अपना जीवन व्यतित कर रहे थे, जब सब जगह आनंद बह रहा था, सभी को सुधार कर भगवान का भक्त बना रहे थे तब उनका दिव्य शरीर बीमार हो गया। उन्हें यह ज्ञात हो गया कि उनका अन्त निकट आ गया हैं तब उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बुलाकर साष्टांग दंडवत किया और अगर किसी भी कारणवश उन्होंने उनके प्रति कोई अपराध किया हो तो सभी से क्षमा मांगे। उन्होंने अपने सभी शिष्यों को प्रसाद पवाया और उनके पाने के पश्चात उनका शेष प्रसाद पाया।  उनके शिष्य उपनिषद से ब्रह्मवल्लि का अनुसन्धान करने लगे और श्रीसहस्रगीति के ९वें दशक के १०वें शतक से सूऴ्विसुम्बणि मुगिल्  का गान करने लगे। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने अपना दिव्य मस्तक नडुविल् तिरुवीदिप् पिळ्ळै भट्टर (मद्यवीदि श्रीउत्तण्ड भट्टर स्वामीजी) के गोद पर रखा और अपने दिव्य चरण श्रीपिन्बऴगिय पेरुमाळ् जीयर् के गोद पर रख अपने नेत्र को बन्द किया और अपने आचार्य श्रीवेदांती स्वामीजी का ध्यान किया। उन्होंने श्रीवैकुंठ के लिये इस संसार का त्याग कर दिया। उनके शिष्य श्रीपेरियवाच्चान पिळ्ळै, नडुविल् तिरुवीदिप् पिळ्ळै भट्टर, श्रीकृष्णपाद स्वामीजी, श्रीपिन्बऴगिय पेरुमाळ् जीयर् आदि शिष्य सागर के ध्वनि के समान रोने लगे और अपने आचार्य से बिछड़ने के कारण अचेत अवस्था में चले गये। जब उन्हें चेत आया, तब आचार्य से जुदाई के कारण बहुत दु:ख हुआ और प्रचुर अश्रु बहाने लगे, एक दूसरे को सहानभूति देने लगे। पुष्प हार और परिवट्टम श्रीरन्ङ्गनाथ् भगवान के पास से आने के पश्चात श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के अंतिम संस्कार कि तैयारी करने लगे जिसमे स्वयं के सिर को मुंडन करना शामिल था। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी कि महानता थी कि उन्हें लोकाचार्य नाम कि पदवी श्रीकन्दडै तोऴप्पर्  (श्रीदाशरथी स्वामीजी के पोते) से प्राप्त हुई। लोकाचार्य याने पूरे संसार के लिये एक आचार्य को संदर्भित करता है। 

उनमे आऴवारों द्वारा रचित दिव्यप्रबन्धों के विशेष अर्थों को जानने कि और सभी को समझाने कि महानता थी। एक और महानता उनमें यह कि थी एक पत्र उन्होंने अपने पड़ोसी (एक स्त्री जिसने अपनी तिरुमाळिगै श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को दी क्योंकि उनके शिष्य बहुत थे और उनके तिरुमाळिगै में सभी को स्थान देना कठिन था) को लिखकर दिया जिससे वह परमपद पहूंच गयी। तीसरी घटना को श्रीपिळ्ळै  लोकाचार्य स्वामीजी ने उल्लेख नहीं किया परन्तु श्रीपिन्बऴगिय पेरुमाळ् जीयर् स्वामीजी ने इस घटना को अपने आऱायिरप्पडि गुरूपरम्परा प्रभावम में लिखा हैं। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/07/22/yathindhra-pravana-prabhavam-7-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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