श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
एक समय श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी और उनके शिष्य श्रीरङ्गम् में श्रीवैष्णव संप्रदाय को देख्बाल कर्ते हुये निवास कर रहे थे, वहाँ एक स्त्री थी जो स्वामीजी कि शिष्या भि थी,और स्वामीजी के तिरुमळिगै के सटे हुए तिरुमळिगै में रहती थी। एक दिन जब श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे तो उनके एक शिष्य ने उस स्त्री को उसकी तिरुमळिगै स्वामीजी को देने को कहा, क्योंकि श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी कि तिरुमळिगै उनके सभी शिष्यों के रहने के लिये छोटी पड़ रही थी। उस स्त्री ने उस शिष्य को कहा “क्या कोई मंदिर में मुझे भूमि का एक टुकड़ा रहने को देगा? जब तक मैं जीवित हूँ मैं अपनी तिरुमळिगै किसी को नहीं दूँगी”। उस शिष्य ने श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को यह वार्तालाप सुनायी। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने उसे बुलाकर कहा “अगर तुम्हारे शरीर को विश्राम करने के लिये भूमि मिल जाये तो क्या यह तुम्हारे लिये पर्याप्त नहीं है? इसमे कई शिष्य निवास करते हैं अब यह स्थान बहुत संकुल हो गया है। अत: तुम्हें अपनी तिरुमळिगै देनी हीं होगी”।
उस स्त्री ने उत्तर दिया “आप कैसे कहेंगे मैं वैसा हीं करूँगी परन्तु इसके बदले में आप मुझे परमपद में स्थान देंगे?”। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी उसे कहते हैं “क्या केवल परमपदनाथ को हीं इसका अधिकार नहीं हैं? मैं उनसे निवेदन कर तुम्हें वहाँ स्थान दिलाऊँगा”। वह कहती है “स्वामीजी! मैं अज्ञानी स्त्री हूँ, कुछ जानती नहीं हूँ। यह पर्याप्त नहीं हैं कि आप परमपदनाथ भगवान को मेरे लिये वहाँ एक स्थान के लिये कहेंगे। आप को इसे लिखकर, हस्ताक्षर कर मुझे देना होगा”। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी ने एक ताड़ के पत्ते पर लिखा “इस दिन, महिने और वर्ष को मैं तिरुक्कलिकन्ऱिदास (श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी का एक ओर नाम) इस स्त्री को लिखित मैं देता हूँ कि इसे परमपद में एक स्थान मिले। मैं संसार के भगवान जो मेरे भी आराध्य हैं से निवेदन करता हूँ कि उसे यह अनुदान करे”; इसे हस्ताक्षर कर उन्होंने उसे दिया। वह स्त्री बहुत व्याकुल हुई और उसे अपने मस्तक पर रखा, श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी से प्रसाद ग्रहण कर और श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को उस दिन, अगले दिन और उसके अगले दिन साष्टांग दण्डवत प्रणाम किए और अपने शरीर का त्याग कर परमपद के लिये प्रस्थान की।
हम श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के तनियन को देखेंगे (विशेष श्लोक, उनकी महानता को दर्शानेवाले):
वेदान्त वेद्यामृत वारिराशेः वेदार्थ सारामृत पूरमर्ग्यम।
आदायवर्शन्तम् अहम् प्रपद्ये कारुण्य पूर्णम् कलिवैरिदसम॥
(मैं तिरुक्कलिकन्ऱिदास के शरण होता हूँ जो दया से पूर्ण हैं और जो वेदान्त के तत्त्वों के अर्थों को अमृत के बाढ़ समान बरसाते हैं जो श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के अमृत के सागर से लिया गया हैं)
नमामि तं माधवशिष्य पादौ यत्सन्नितम् सूक्तिमयम् प्रविष्ठाः।
तत्रैव नित्यस्ठिति मात्रियन्ते वैकुन्ठ सम्सार विमुक्त चित्ताः॥
(मैं श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के दिव्य चरणों को नमन करता हूँ जो श्रीवेदांती स्वामीजी के शिष्य हैं। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के शिष्य श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के सन्निधी में रहने को पसंद करते हैं जहाँ आऴ्वारों और आचार्यों के दिव्य स्तोत्र और भजन निरन्तर होते हैं और उनका मन श्रीवैकुंठ या संसार कि इच्छा नहीं करते हैं।)
वार्तोज्च वृत्त्यापि यदीयघोष्ठ्यां घोष्ठ्यन्तराणां प्रथमाभवन्ति।
श्रीमद्कलिद्वम्सन दासनाम्ने तस्मैनमस्सूक्ति महार्णवाय॥
(मैं उन तिरुक्कलिकन्ऱिदास के सामने झुकता हूँ जो श्रीसूक्तिमहार्णवम (आऴ्वारों के दिव्य प्रबन्धों के विशाल सागर) हैं। जो श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के श्रीवैष्णव सभा के कालक्षेपों से कुछ शब्दों को हीं ग्रहण करता है वह अन्य श्रीवैष्णव सभा का मुखियाँ हो जाता हैं)
नेज्जत्तिरुन्दु निरन्दरमाग निरयत्तुयिक्कुम्
वज्जक्कुऱुम्बिन् वगैयऱुत्तेन् मायवादियर्ताम्
अज्जप्पिऱन्दवन् सीमाधवनडिक्कन्बु सेय्युम्
तज्जत्तोरुवन् शरणाम्बुयमेन् तलैक्कणिन्दे
(मैं श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों को आभूषण बनाकर अपने मस्तक पर पहनुंगा। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी एक महान आचार्य हैं जिनके विषय में निरन्तर विचार करने से सभी अमंगल कार्य जो मुझे नरक कि ओर लेजाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। वैकल्पिक के तीन अहंमानी जड़ जो कि अच्छा शिक्षित, धनी होना और एक महान वंश में होना यह सभी श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के विषय में निरन्तर सोचने से जड़ से मिट जाते हैं। वें ऐसे व्यक्ति हैं जो श्रीवेदांती स्वामीजी के चरण कमलों कि सेवा करते हैं जिन्हें देख सभी मायावादी कांपते हैं। वें सभी के शरण हैं।)
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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