श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवडक्कुत्तिरुवीदिप्पिळ्ळै (श्रीकृष्णपाद स्वामीजी) का वैभव
श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के पश्चात जब श्रीकृष्णपाद स्वामीजी श्रीरामानुज दर्शन के अगले आचार्य हुए तब उनके शिष्यों ने उनसे पूछा “आत्मा का मूल स्वभाव क्या हैं?”। उन्होंने यह कहते हुए उत्तर दिया कि “यह कहा जाता हैं कि ‘यह सब जानते हैं कि जब अहंकार की गंदगी निकाली गयी तब आत्मा का पक्का नाम अडियेन् (दास) हैं’ इसका अर्थ यह हैं कि जब आत्मा इस विचार से अलग होती हैं कि ‘मैं हीं ईश्वर (सभी और सबकुछ को नियन्त्रण में रखनेवाला) हूँ’ तो उसका मौलिक पहचान यहीं होगा कि ‘मैं दास हूँ’”। उन्होंने यह सभी वेदो, शास्त्र, सभी आऴ्वारों के पाशुर और सभी आचार्यों के दिव्य शब्दों का विश्लेषण करने के पश्चात कहा कि हर श्रीवैष्णवों को मोक्ष (श्रीवैकुंठ) आचार्य अभिमान (आचार्य द्वारा यह मान्यता देना कि शिष्य सच में उनके कृपापात्र हैं) से हीं प्राप्त होगा ओर किसी भी राह से नहीं और मोक्ष के लिए सबसे बड़ी बाधा भागवत अपचार (भगवान के दासों के प्रति अपचार) हैं। उन्होंने अपने शिष्यों से अपने आचार्य श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के विषय में कहते हुए कहा कि “क्या अगर भागवत अपचार किया हो तो अनन्त अस्तित्व नही होगा?”। आचार्य अभिमान यानि अपने दिनचर्या में आचार्य कि आज्ञा का पालन करना और इस बात पर दृढ़ रहना कि आचार्य हीं साधन और लक्ष्य हैं जबकि अंतिम अपराध एक भागवत के प्रति प्रायश्चित करना नहीं हैं; ऐसा कार्य आत्मा के अस्तित्व को अंधेरा कर देता हैं, आत्मा को एक जले हुए कपड़े के समान कर देता हैं। [एक जला हुवा कपड़ा सामान्य दिखता हैं जब तक हवा उस पर चलती हैं और सभी दिशाओं में उड् जाती हैं] और उसे नष्ट कर देती हैं।
इस मार्ग पर सभी को उपर उठाकर श्रीकृष्णपाद स्वामीजी ने अपने दिव्य पुत्रों श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य और श्रीअऴगिय मनवाळ पेरुमाळ् नायनार को इस सम्प्रदाय के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करने हेतु पूर्णत: समर्पित किया और अपने आचार्य श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी को स्मरण करते हुए कुछ समय पश्चात श्रीवैकुंठ को पधार गये। श्रीपिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी बहुत व्यथित होकर कहे “हम एक विशिष्ट अस्तित्व खो दिये हैं जिनका दोनों संस्कृत और द्राविड (तमिऴ्) वेदों से सम्बन्ध था” और उचित ढंग से उनका अंतिम संस्कार किया।
श्रीकृष्णपाद स्वामीजी का दिव्य नक्षत्र स्वाती हैं और उनकी तनियन हैं
श्री कृष्णपादपादाब्जे नमामि शिरसा सदा ।
यत्प्रसादप्रभावेन सर्वसिद्धिरभून् मम॥
(मैं निरन्तर अपने मस्तक से श्रीकृष्ण (श्रीवडक्कुत्तिरुवीदिप्पिळ्ळै) के दिव्य चरण कमलों कि पूजा करता हूँ जिनके अद्भुत कृपा से मैंने सभी पुरुषार्थ प्राप्त किया हैं)
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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