यतीन्द्र प्रवण प्रभावम – भाग २१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम

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श्रीशैलेश स्वामीजी और श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै 

श्रीशैलेश स्वामीजी अपने दिव्य मन में यह निश्चित करते हैं कि उन्हें तिरुवनन्तपुरम जाकर श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी का अभिवादन कर उनसे सम्प्रदाय के गूढ़ार्थ सीखना चाहिये। आऴवार  के मुख्य शिष्य होने का गौरव प्रगट कर वें मंदिर के अन्दर जाकर भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा करते हैं जो शेषशैय्या (तिरुवनन्ताऴवार, आदिशेष) पर विश्राम कर रहे हैं जो अपने फन को फैलाये हुए हैं। तत्पश्चात वें श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी के दिव्य चरणों कि पूजा करते हैं जिन्हें “नारायण भी कहा जाता हैं जिन्होंने उलगारियन (श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य) के दिव्य चरणों के शरण हुए हैं जिन्होंने उन्हें भगवान कृष्ण के दोनों दिव्य चरणों के दर्शन करवाये”। उन्होंने उस बगीचे में प्रवेश किया जहाँ श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी निवास कर रहे थे। जैसे कहा गया हैं “गुरुपदाम्भुजं ध्यायेत् गुरोर् नामसदाजपेत्” (हर एक को निरन्तर अपने आचार्य के दिव्य चरण कमलों का ध्यान करते रहना चाहिये और निरन्तर अपने आचार्य के दिव्य नाम का जप करते रहना चाहिये) और

श्रीलोकार्य मुखारविन्दम अखिल श्रुत्यर्थ कोशं सदाम्।

तद्गोष्टींच तदेकलीनमनसा संचिन्तयन्तम सदा॥

(श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी निरन्तर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य मुखारविन्द का ध्यान कर रहे थे जिन्हें सभी वेदों के अर्थों और उनकी गोष्टी जिन्हें सत्पुरुषों (अच्छे पवित्र गुणोंवाले पुरुष) का निवास स्थान माना गया हैं के धनकोष हैं), श्रीशैलेश स्वामीजी को श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी के दर्शन हुए, निरन्तर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य पवित्र रूप का ध्यान करते हुए बिना यह सुद होते हुए कि मकड़ी ने अपना झाल आपके ऊपर बिछाया हैं। श्रीशैलेश स्वामीजी ने उनको साष्टांग दण्डवत कर उन्हें अंजली प्रणाम (दोनों हथेली को जोड़ अभिवादन करना) अर्पण किया। श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी अपने दिव्य नेत्रों को खोल उन्हें पूछा “आप कौन हैं? आप यहाँ क्यों पधारे हो?” श्रीशैलेश स्वामीजी ने अब तक कि हुई पूरी घटना को उनहेम स्मरण करवाया। श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और बड़ी कृपासे श्रीवचन भूषण के आवश्यक और गूढ़ार्थ सिखाये। श्रीवचन भूषण के अलावा श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी ने श्रीशैलेश स्वामीजी को सप्तगाथा (उनके द्वारा रचित प्रबन्ध) के अर्थ भी सिखाये जो ७ पाशुरों में श्रीवचन भूषण के तत्त्व हैं। श्रीशैलेश स्वामीजी अपने साथ श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी के इस सम्बन्ध के कारण जो स्वर्ण के समान हैं अपने जन्म के दोष से मुक्त हो गये; श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी से सभी गूढ़ार्थ सीखने के पश्चात श्रीशैलेश स्वामीजी आऴवार्तिरुनगरि को पधार गये। श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी ज्योतिष्कुडि में अपने आचार्य श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य द्वारा प्रदान किए कार्य को सम्पन्न कर उनसे विनंती किये कि नित्यसूरी और मुक्तामा के साथ भगवद कैंकर्य करने दे और यह कहे कि “से​ऱिपोऴिल अनन्तपुरत्तु अण्णलार कमलपदम अणुगुवार अमररावार” (जो तिरुवनंतपुरम के भगवान के दिव्य चरण कमलों कि ओर जाते हैं जो पूरी तरह धनी आर्किड से घिरा हैं वह श्रीवैकुंठ पहुँचेगा) और दिव्य निवास स्थान श्रीवैकुंठ को प्रस्थान किये। 

उसी समय तिरुवनंतपुरम मंदिर के अर्चक (नम्बूधिरी) अनन्तपद्मनाभन भगवान के तिरुवाराधन का कार्य कर रहे थे। उन्होंने श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी को अनन्तपद्मनाभन के गर्भगृह में प्रवेश कर उनके दिव्य चरणों कि पूजा करते देखा। यह निर्णय करते हुए कि वें मंदिर में उस व्यक्ति के साथ नहीं रह सकते जो चतुर्थ वर्ण का हो और अर्चक भगवान के मूर्ति को दिव्य सुरक्षा लगाकर गर्भगृह को छोड़ मंदिर के बाहर आ गये। उसी समय श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी के शिष्य मंदिर में श्रीरामानुज नूऱ्ऱन्दादि  का पाठ करते हुए पधारे और यह घोषणा किये कि उनके आचार्य श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण हो गये हैं और उन्हें उनके शरीर को सझाने के लिये भगवान के दिव्य परिवट्टम (दिव्य वस्त्र जिसे सर पर पहनते हैं) और दिव्य पुष्प हार चाहिये। यह देख मन्दिर के अर्चकों ने उनके साथ मन्दिर में हुए अद्भुत अनुभव को सहभाजीत किया। यह घटना को सुनकर आचार्य जो श्रीशैलेश स्वामीजी के शरण हुए हैं ने कहा 

गत्वानन्तपुरं जगद्गुरु पदध्यानेरतम कुत्रचित तं

   नारायणदासमेत्यविमलं गत्वा तदङ्ग्रिं मुदा।

तस्मादार्यजनोक्तिमौक्तिककृतं वेदान्त वाग्भूषणं

   श्रीवाग्भूषणमभ्यवाप्यसगुरुं श्रीशैलनाथोभवत ॥

(श्रीशैलेश स्वामीजी तिरुवनंतपुरम पहुँचकर नारायणदास (श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी) से सम्पर्क किये जो शहर के बाहर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के दिव्य चरणों के ध्यान करने के लिए इच्छुक थे; खुशी से उनके चरणों के नत मस्तक हुए और श्रीवचन भूषण को प्राप्त किया जो पूर्वाचार्यों के वेदान्त (उपनिषद) की माला हैं और एक महान आचार्य बने)। यह समाचार सुनकर कि श्रीविळाञ्चोलैप्पिळ्ळै स्वामीजी श्रीवैकुंठ पधार गये श्रीशैलेश स्वामीजी उनकी सभी चरम कैंकर्य पूर्ण किये जो एक आचार्य के शिष्य और पुत्र को करना चाहिये। 

कोट्टूर अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ पिळ्ळै श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के एक शिष्य, अपने आचार्य के प्रस्थान के पश्चात तिरुपुल्लाणि (कुरुकापुरी) के समीप सिक्कल किडारम  नाम गाँव पहुंचे और कुछ समय तक वहाँ निवास किया। तत्पश्चात तिग​ऴक्किडन्दान तिरुनावीऱुडैयपिरान तदरण्णणरैयर  उनसे सम्पर्क कर उनकी पुत्री श्रीरङ्गनाचियार  से विवाह कर उनके तिरुमाळिगै में हीं रहने लगे। उन्होंने अपने श्वसुर को श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य के समान मानकर उनसे वह सब कुछ सीखा जो श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी से पाने से चुक गये थे। उन्हें सभी गूढ़ार्थ सिखाने के पश्चात अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ पिळ्ळै श्रीवैकुंठ के लिए प्रस्थान किये।  

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/05/yathindhra-pravana-prabhavam-21-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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