श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
अततस्य गुरुः श्रीमान मत्वादं दिव्य तेजसम्।
अभिरामवरादीश इति नाम समाधिशत्॥
(उस बालक को दिव्य दीप्ति प्राप्त हैं यह मानकर अण्णर उस बालक के पिताजी और एक श्रीमान (जो भगवान का कैंकर्य करते हैं) ने उस बालक को अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ का दिव्य नाम प्रदान किया), उस बालक को यह दिव्य अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ नाम दिया जो बहुत समय तक अपने फण फैलाये आदिशेष के शैय्या पर शयन किए हैं। जैसे श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी ने श्रीकृष्ण के लिए पेरियाऴवार तिरुमोऴि के १.१.७ में कहा हैं “आयर पुत्तिरन अल्लन अरुंदेय्वम” (वह गाय चरानेवाला नहीं हैं वह दिव्य अस्तित्त्व हैं) और पेरियाऴवार तिरुमोऴि के २.५.१ में “एन्नैयुम एङ्गळ कुडि मुऴुदाट्कोण्ड मन्नन ” (वह जिसने मुझपर और मेरे सम्पूर्ण वंश पर विजय प्राप्त किया हो) उनके माता पिता ने उन्हें सिक्कल किडारम ले गये अण्णर से बातचीत करने हेतु और वहाँ उनका पालन पोषण किया। वें भी जैसे कहा गया हैं
पर भक्ति: परज्ञानं परमाभक्तिरिद्यापि ।
वपुषावर्तमानेन तत्तस्य ववृतेत्रयम् ॥
(प्राकृतिक रूप के साथ अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ नायनार के तीन गुण परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति भी बढ़ रहा थे) [परभक्ति अवस्था में भगवान को जानने कि दशा है, परज्ञान में भगवान को देखने कि दशा हैं और परमभक्ति दशा वह हैं जहाँ वह भगवान को प्राप्त करने पूर्व उनसे अलग नहीं रह सकता वह अवस्था हैं], वें बढ़े जैसे उनके दिव्य गुण भी उनके प्राकृतिक रूप के साथ बढ़े। उनके पिता अण्णर भी अपने पुत्र के सभी संस्कार किये जो एक ब्राह्मण के वर्ण में जन्में हुए का करते थे जैसे इसमे कहा गया हैं
प्राप्तान् प्राथमिकेवर्णे कल्पज्ञा: कल्पयन्ति यान् ।
कालेकाले च संस्कारान् तस्य चक्रे क्रमेण स: ॥
(पहिले वर्ण यानि ब्राह्मण कुल के उन लोगों से जो भी संस्कार करने का विधान बनाते हैं जो कल्पसूत्रम को जानते हैं वह सभी अण्णर (उनके पिताजी) ने अपने पुत्र के लिए किया)।
अण्णर ने चौलम, उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीतम्) जैसे शास्त्र में बताया गया हैं उस आयु में हीं किया। उन्होंने अपने पुत्र को वेदों के अर्थ भी सिखाया। पुत्र भी बड़ा हुआ जैसे कहा गया हैं
आतांपरपादम् आजानुभुजम् अम्बुजलोचनम्।
आकारमस्य सम्पश्यन् मुक्तोपि मुमुने जनः॥
(हालांकि सामान्य जन भी जिनमे ज्ञान कि कमी हैं अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ के दिव्य रूप को लाल दिव्य चरण से देखते हैं जो लाल कमल के समान हैं, दिव्य भुजाओं जो उनके दिव्य घुटने तक और दिव्य नेत्र जो लाल कमल के समान हैं तक विस्तारित हैं के समरूप हैं और बहुत प्रसन्न हुए) और जैसे कहा गया हैं
सौशील्येन सुहृत्वेन गाम्भीर्येण गरीयसा ।
रञ्जनेन प्रजानाञ्च रामोsयमिति मेनिरे ॥
(लोगों ने अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ कि ओर श्रीराम समान देखा, उनका स्वभाव जो अति हिन जनों के संग भी बहुत सरलता से रहना, सभी से प्रेम करना, उनका उच्च आत्मसंयम और सभी जनों को खुश रखना) जो उनको देखते उन्हे खुश रखते। जैसे चंद्रमा प्रति दिन अपने किरणों को बढ़ाता वैसे ही अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ भी बडे होते हैं जैसे की कहा गया हैं
कालेन सकलानाञ्च कलानामेकमास्पदम् ।
शुशुभे सततं पूर्णस्सुधांशुरिव निर्मल: ॥
(अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ सभी कलाओं के प्रतिष्ठित भंडार, बिना दागवाले चंद्रमा), जिन्हे पूर्ण ज्ञान के कारण अप्राप्य महानता प्राप्त है।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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