यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग २५

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् श्रीशैलेश स्वामीजी का आश्रयण लेना 

तिग​ऴक्किडन्दान् तिरुनावीऱुडयपिरान् तादरण्णर्  को अपना दिव्य पुत्र अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् प्राप्त हुआ और समय रहते उनका विवाह करवाया। उन्होंने उन्हें दिव्य प्रबन्ध, रहस्य (गूढ़ार्थ विषय), आदि सिखाया। नायनार् भी अपने पिता द्वारा प्राप्त लाभ से कार्य में लग गये जैसे उन्होंने अपने पिता के लिए तनियन् में रचित में बताया गया हैं 

श्रीजिह्वावददीशदासम् अमलम् अशेष शास्त्रविदम्।
सुन्दरवरगुरु करुणा कन्दळित ज्ञानमन्दिरं कलये॥

(पहिले शब्द के लिये श्री जीह्वार्क्याधिसम अनुवाद भी स्वीकारणीय हैं; तनियन् का अर्थ हैं: मैं तिरुनावीऱुडयपिरान् तादरण्णर् का ध्यान करता हूँ जो ज्ञान के भण्डार हैं जो कोट्टूर अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  पिळ्ळै के कृपा से विकसित हुए हैं और जिन्होंने पूर्ण शास्त्र बिना अभाव के सीखे हैं)। 

वाऴि तिरुनावीऱुडय पिरान तदनरुळ्
वाऴियवन मामै वाक्किन्बन – वाऴियवन्
वीरन मणवाळन विरैमलर्त्ताळ सूडि
बारमदैत् तीर्त्तळित्त पण्बु

(तिरुनावीऱुडयपिरान् तादरण्णर् के दया का वैभव; उनके सुन्दर शब्दों के मिठास का वैभव; श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य चरण कमलों के सजावट का वैभव और उनके बाधाओं को घटाने के गुण)

कुछ समय पश्चात अण्णर वैकुंठ धाम को पधार गये। अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार् ने अण्णर के अंत्येष्टि क्रिया को किया। इस बीच आऴ्वार्तिरुनगरि​ में श्रीशैलेश स्वामीजी जो सम्प्रदाय के प्रमुख थे यह सोच रहे थे कि अब सम्प्रदाय को कौन आगे लेकर जायेगा। वें श्रीसहस्रगीति जो श्रीवैष्णवों जिन्हें निलत्तेवर् (जैसे संसार में नित्यसूरि) माना जाता हैं जो शब्दों के गूढ़ार्थ, अर्थ और भावों में निरत रहते हैं उनके अमृतमय भक्ति के शब्दों कि माला का निरन्तर ध्यान कर रहें थे। वें गहराई (गंभीरता) से उसी में निरत थे और अन्य सभी ग्रन्थों को घास समान मानते थे। इसलिये उन्हें उत्कृष्ट रूप से उन्हें तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै नाम से जाना जाता था और श्रीसहस्रगीति के सम्बन्ध से अपनी पहचान बनाये। वें श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों में अपनी सेवा को करते रहे। अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार् पर श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै कि दिव्य कृपा हो गई। जैसे कहा गया हैं “तिरुवनन्दाऴवान् चकन्दन्नै तिरुत्त मरुविय कुरुगूर् वळनगर् वन्दु” (आदिशेष इस संसार को सुधारने के लिये प्रचुर निवास स्थान तिरुक्कुरुगूर् पहुँचे), अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार् सिक्कल् किडारम् में अपने दादाजी कि तिरुमाळिगै को छोड़ अपने जन्म स्थान आऴ्वार्तिरुनगरि​ पहुँचे। जैसे एक कहावत हैं “पोरुन​ऱसङ्गणित्तुऱैयिले सङ्गुगळ सेरुमापोले” (वैसे हीं जैसे शंख तामिरबरणि जो दिव्य क्षेत्र सङ्गणित्तुऱै के समीप में एकत्रीत होना) शंख के रंग के समान अवतार लेना और जिसका शुद्धस्वभाव हो, अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार् श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै के दिव्य चरण कमलों में आगये जो सच्चे ज्ञान कि राह हैं। उन्हें श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै से भिन्न सम्बन्ध प्राप्त हुआ जैसे कहा गया हैं “अशिश्रियतयं भूयः श्रीशैलादीश देशिकम्” (अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार् श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै के दिव्य चरण कमलों के शरण हुए) और जैसे कहा गया हैं “देसम् तिग​ऴुम् तिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै वासमलर्त्ताळ् अडैन्दु” (श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै के दिव्य, सुगंधित चरणों तक पहुँचना जो सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध हैं)। 

तत्पश्चात जैसे कहा गया हैं 

तदः शृतितरस्सोयं तस्माद तस्य प्रसादनः।
अशेषानशृणोद्दिव्यान प्रबन्दम बन्धनच्छिदः॥

(तत्पश्चात उन्होंने अंगम्स (सहायको) से वेद को सीखा और श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै के कृपा से अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ्  नायनार् ने सभी दिव्य प्रबन्धों के अर्थों को सीखा जिससे संसार के सम्बन्ध गंभीर होगा)। उन्होंने श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै के निर्देशानुसार द्राविड वेद (दिव्य प्रबन्ध) अंगम्स और उपांगम्स से अर्थ सहित सीखा। उन्होने दृढ़ता से चरम पर्वनिष्ठ होकर  श्रीतिरुवाय्मोऴिप्पिळ्ळै के तीन उद्देश शेषी, शरण्य और प्राप्य पर मनन किया, यह अभी वेदों के तत्त्व हैं जैसे कि कहा गया हैं “मिक्क वेदियर् वेदत्तिन् उट्पोरुळ्” (वेदों के आंतरिक अर्थ)। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/09/yathindhra-pravana-prabhavam-25-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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