श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
एक दिन श्रीशैलेश स्वामीजी ने अपने उपवन में उत्पन्न ताजी सब्जीयाँ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के तिरुमाळिगै में भेजा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रभावित होकर श्रीशैलेश स्वामीजी से पूछे “आप दास के तिरुमाळिगै में भेजने के बजाय यह सब आऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामीजी के मन्दिर) के रसोई (मडप्पळ्ळि) में क्यों नहीं भेजते हो?” श्रीशैलेश स्वामीजी ने उन्हें कहा “क्योंकि दास के पास देवरीर् (आप के समान) कोई नहीं मिला और इसलिये दास अब तक अर्चा पूजन में हीं तल्लीन था” और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को अपनी मन की बात बताए। उस दिन से वें प्रतिदिन ताजी सब्जीयाँ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के लिये भेजते थे और उनकी हर जरूरत का खयाल रखते थे। वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ बैठकर दोपहर का प्रसाद साथ में पाते थे। यह सब देखकर श्रीशैलेश स्वामीजी के कुछ शिष्यों को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति ईर्ष्या हुई। एक सर्वज्ञ पुरुष होने कारण श्रीशैलेश स्वामीजी को इसका पता चला और प्रारम्भ में हीं इस आग को आगे बढ़ने के लिये रोकने का प्रयास किया ताकि वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति ऐसा अपराध दोबारा न दोहराये। उन्होंने उनसे कहा कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं वों एक सज्जन व्यक्ति हैं। कुछ सूक्ष्म संकेत से उन्होंने उन सब को यह अहसास दिलाया कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आदिशेष के अपरावतार हैं और उनके विशिष्ट योग्यता के कारण वें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति एक विशेष सम्बन्ध रखे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य मन को जानकर उन शिष्यों के प्रति नम्र थे। इस समय के दौरान श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ईडुमुप्पत्ताऱायिरम् (श्रीसहस्रगीति के लिये व्याख्या) और अन्य व्याख्यानों का अध्ययन किया।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उन्होंने श्रीशैलेश स्वामीजी के पास जाकर उस शिशु के लिये एक नाम सुझाने को कहे। श्रीशैलेश स्वामीजी ने कहा “एक बार एक सौ आठ बार यह उच्चरित किया गया हैं!” (रामानुस नूट्रन्दादि को संभोधित करते हुए)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने पुत्र का नाम एम्मैयन् ईरामानुसन् (मेरे भगवान, रामानुज) रखा। आद्रा नक्षत्र के दिन जब श्रीशैलेश स्वामीजी और अन्य आचार्य गण प्रसाद ग्रहण कर रहे थे तब श्रीशैलेश स्वामीजी ने यह पद्य सुनाया
इन्ऱो एदिरासर् इव्वुलगिल् तोन्ऱिय नाळ्
इन्ऱो कलियिरुळ् नीङ्गुनाळ्
(क्या यह वों दिन नहीं हैं जब श्रीरामानुज स्वामीजी का अवतार हुआ? क्या यह वों दिन नहीं हैं जब कलियुग से अंधकार दूर होगया?) और आगे न बढ़ते यही दो पंक्तियाँ दोहराते रहे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस पाशुर को यह कहते हुए समाप्त किया
इन्ऱोदान्
वेदियर्गळ् वाऴ विरैमगिऴोन् तान् वाऴ
वादियर्गळ् वाऴ्वडङ्गु नाळ्
(यहीं वों दिन हैं जब वेदों कि राह पर चलनेवाले आनंदित हुए; यही वों दिन हैं जब श्रीशठकोप स्वामीजी आनंदित हुए और जो तर्क (जो वेदों में विश्वास नहीं रखते और जो वेदों का गलत अर्थ निकालते और बताते हैं) में अपना जीवन व्यतित करते हैं उनका जीवन थम गया)। यह सुनकर श्रीशैलेश स्वामीजी खुश होकर संतुष्टि से प्रसाद पाये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आनंदित होकर बचे हुए प्रसाद के भाग को पाये।
इस तरह आचार्य (श्रीशैलेश स्वामीजी) और शिष्य (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) के मध्य में सुव्यवस्था अच्छी तरह से चल रही थी। जैसे श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीमहापूर्ण स्वामीजी के शरण होने के पश्चात वैशिष्ट्यता प्राप्त किये वैसे हीं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी श्रीशैलेश स्वामीजी के शरण होने के पश्चात वैशिष्ट्यता प्राप्त किये। सभी जन उनकी प्रशंसा करने लगे कि यही उडयवर् के अपरावतार हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीशैलेश स्वामीजी के लिये यह तनियन् कि रचना किये:
वडमामलैमुदल् मल्लनन्दपुरियिल्लै मल्गित्
तिडमाग वाऴुम् तिरुवुडैय मन्नरिल् तेसुडैयोन्
तिडमान ज्ञान विरक्ति परम इवै सेरनिन्ऱ
सठकोपतादर् कुरुगूर्वाऴ् पिळ्ळैयैच् चेरु नेञ्जे
(हे मेरे हृदय! मैं श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य चरणों तक पहुँचना चाहता हूँ जिन्हें शठकोपदासर् भी कहते हैं जो तिरुक्कुरुगूर् में निवास करते हैं; जिनके पास भगवान और सांसारिक विषयों से अलग होने के संबन्धित दृढ़ ज्ञान हैं; वें उत्तर में तिरुमलै और दक्षिण में तिरुवनन्तपुरम् क्षेत्र में दीप्तिमान हैं) और
सेन्दमिऴ् वेदत् तिरुमलैयाऴवार् वाऴि
कुन्तिनगर्क्कु अण्णल् कोडै वाऴि – उन्दिय सीर्
वाऴियवन् अमुदवाय् मोऴि केट्टु अप्पोरुळिल्
ताऴुम् मट्रन्बर् तिरुत्ताळ्
(श्रीशैलेश स्वामीजी अमर रहे जो द्राविड वेद (दिव्य प्रबन्ध) के बहुत महान विद्वान हैं; कुन्तीनगर् (श्रीशैलेश स्वामीजी का जन्म स्थान) के स्वामी कि उदारता अमर रहे; जिन्होंने उनके दिव्य मुख से अमरूत वाणी सुनी हैं वें अमर रहे और वह दिव्य चरण जो उनके कहे अनुसार जीवन व्यतित किए वें अमर रहे)। इस समय के दौरान उनके शिष्यों ने उनके वैभव पर यह श्लोक की रचना किए:
अप्यर्च्य नन्दतनयं करपङ्कजात्त वेणुं तदीयचरण प्रवणार्त्रचेताः।
गोदाभिदुर्गहन सूक्तिनिबन्धनस्य व्याक्यां वयदात् द्राविड वेदगुरुः प्रसन्नाम्॥
(गाय चरानेवाले उस भगवान और वह जिनके लाल कमल जैसे हाथों में दिव्य बांसुरी हैं उनकि पूजा करना, श्रीशैलेश स्वामीजी जिनका दिव्य मन भगवान कृष्ण के दिव्य चरणों के प्रेम में निरत हैं ने श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी के पाशुरों पर व्याख्या किये)।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/12/yathindhra-pravana-prabhavam-27-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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