श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
अब तिरुमला का वर्णन
भाद्रपद महिने के पहिले दिन तिरुमला पर्वत पर ब्रह्मोत्सव प्रारम्भ होता हैं। उस दिन श्रीपेरिय केळ्वि जीयर् (पर्वत पर प्रधान आचार्य जो मन्दिर कि देख रेक करते हैं) को एक स्वप्न आया जब लोग उन्हें कहते हैं कि उन्होंने एक श्रीवैष्णव को देखा जो आऴ्वार् तीर्थ के तलहटी के पेड़ों के दक्षीण दिशा में श्रीरङ्गनाथ भगवान के समान शयन किये हैं। सम्पूर्ण तिरुमला पहाड़ के समान उनका बड़ा स्वरूप था। दक्षीण दिशा से देखते हुए उनका दिव्य मस्तक पश्चिमी और दिव्य चरण पूर्व दिशा में थे। एक जीयर स्वामीजी उनके दिव्य चरणों में खड़े हुए हैं। जब उन्होंने उनसे पूछा कि वें कौन हैं तब उन्होंने कहा “वें अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् हैं जो ईडु मुप्पत्ताऱायिरम् (ईडु, श्रीसहस्रगीति पर व्याख्या) में निपुण हैं। वो जो उनके चरण कमलों के समीप खड़ा हैं वें श्रीपोन्नडिक्काल जीयर स्वामीजी हैं”। अगले दिन सुबह जल्दी जब श्रीपेरिय केळ्वि जीयर् स्वामीजी भगवान कि पूजा करने हेतु मन्दिर गये तब उन्होंने वहाँ सुबह के इयल् (सुबह का अनुष्ठान जब तिरुप्पल्लाण्डु, तिरुप्पावै, आदि से पाशुर का पाठ किया जाता हैं) के लिए पधारे भक्तों को जो स्वप्न देखा वह बताया जिसे श्रीतोऴप्परजी ने सुना और यह श्लोक कि रचना किए।
स्वप्नेबृहत् यतीन्द्रस्य श्रीशैलसमितोमहान्
शयानः पुरुषोदृष्टः सौम्यजामातृ देशिकः।
तदर्श पश्चात् तस्यैव पादमूले यतीश्वरम्
प्राञ्जलिं निभृतं प्रह्वं स्वर्णादिपतिपदसम्ज्ज्ञकम्॥
(पेरिय जीयर् के स्वप्न में एक विख्यात व्यक्ति जिनका नाम अऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् हैं लेटे हुए थे। पेरिय जीयर् ने उन विशिष्ट व्यक्ति के दिव्य चरणों को भी विनम्रता से देखा और श्रीपोन्नडिक्काल् जीयर् स्वामीजी हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे थे)। यह सुनकर सभी प्रसन्न हो गये। कुछ जन जो मन्दिर में बहुत दूर क्षेत्र से आ रहे थे उन्होंने कहा ये तो मन्दिर के नायनार् हैं। कुछ ने कहा ये उत्सव (ब्रह्मोत्सव) के लिये आये है; कुछ ने कहा “नायनार् अपने शिष्य श्रीवानमामलै जीयर को अपने हृदय से प्रेम करते थे; उन्हें श्रीपोन्नडिक्काल् जीयर् स्वामीजी भी कहा जाता हैं”। सभी जन ब्रह्मोत्सव के समय एक महान घटना के होने कि प्रतिक्षा कर रहे थे।
नायनार् अपने यात्रा के अंग के रूप में श्रीसहस्रगीति का ३.३.८ “तिरुवेङ्गडमामलै ओन्ऱुमे तोऴ नम विनै ओयुमे” (जैसे हीं हम तिरुमला के दिव्य पहाड़ों कि पूजा करते हैं अपने पूर्व दुष्ट कर्म मिट जायेंगे) का पाठ करते हुए तिरुमला पहाड़ों कि पूजा किये। उन्होंने तिरुमलैयाऴ्वार् को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया, बिना पलके झपकाये पहाड़ों को अपने नेत्रों से देखते रहे, स्वर्णमुखी नदी पहुँचे जैसे कहा गया हैं “स्वर्णमुखरीं तत्रसङ्कतां मङ्गळस्वनाम्” (सुवर्णमुखी अपने मधुर ध्वनी से तिरुमला से बह रही हैं), उसमे दिव्य स्नान किया और ॐ केशवाय नम: से प्रारम्भ कर द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किये। जब अभय हस्त, मधुर सुगन्ध और श्रीगोविन्दराज भगवान के दिव्य पुष्पहार वहाँ आये तो उन्होने उन्हें स्वीकार कर अपने शिष्यों को भी दिया। उन्होंने बड़ी करूणा से गोविन्द भगवान कि सन्निधी में जाकर उनका मङ्गळाशासन् किया और मन्दिर का सम्मान (श्रीतीर्थ, श्रीतुलसी, शठारी, आदि) प्राप्त कर पहाड़ पर नरसिंह भगवान कि पूजा किये। जैसे उपनिषद में उल्लेख हैं “एवम्वित् पादेन अद्यारोहति” (जो ऐसे पूजा करता हैं वह अपने पैरों से ऊपर चढ़ता हैं) और वें पहाड़ चढ़ते गए। राह में उन्होंने परिषद तिरुवेङ्गडमुडैयान् कि पूजा किये (परिषद तिरुवेङ्गडमुडैयान् भगवान के अर्चा रूप हैं जब भगवान तोण्डैमान् चक्रवर्ती कि रक्षा करने हेतु उनके दुश्मनों से लड़ने के लिये दिव्य शंख और चक्र के साथ पधारे; तोण्डैमान् चक्रवर्ती तिरुवेङ्गडमुडैयान् के सच्चे भक्त थे)। तत्पश्चात समीप के कपूर के बगीचे में बड़ी कृपा से जल लेकर काट्टऴगिय चिङ्गर् और माम्पऴ श्रीरामानुज स्वामीजी कि पूजा किये।
(माम्पऴ श्रीरामानुज स्वामीजी के विषय में एक आनंद दायक कथा हैं: जब श्रीरामानुज स्वामीजी तिरुमला के पहाड़ पर चढ़ रहे थे तब श्रीवेङ्कटेश भगवान एक श्रीवैष्णव का रूप धारण कर श्रीरामानुज स्वामीजी के एक शिष्य श्रीअनन्दाऴ्वान् स्वामीजी के शिष्य बताकर दही के चावल और आम लेकर श्रीरामानुज स्वामीजी के पास गये और कहा कि यह श्रीवेङ्कटेश भगवान ने उनके लिये भेजा हैं। जब पूछा गया उनके आचार्य कौन हैं तब उन्होंने कहा श्रीअनन्दाऴ्वान् स्वामीजी। फिर श्रीरामानुज स्वामीजी ने उन्हें अपने आचार्य कि तनियन् बोलने को कहा तब तुरंत उस श्रीवैष्णव ने तनियन गाया
अखिलात्म गुणावासम् अज्ञान तिमिरापहम् ।
आश्रितानां सुचरणं वंदे अनन्तार्य देशिकम् ॥
यतीन्द्र पादाम्बुज सन्चरीकं श्रीमद्दयापाल दयैकपात्रम्।
श्रीवेङ्कटेशाङग्रि युगान्तरं नमामि अनन्तार्यम् अनन्तकृत्वः॥
और लुप्त हो गये। यह देख श्रीरामानुज स्वामीजी विस्मित हो गये; उन्हें यह अहसास हो गया कि यह श्रीवेङ्कटेश भगवान हैं जो प्रसाद लेकर पधारे। उन्होंने उसी स्थान में दही के चावल को पाया और आम के फल को खाकर उसके बीज को वहाँ लगाया। जब बाद में श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य चरण वहाँ आये और उस काल में जो लोग वहाँ पधारे श्रीरामानुज स्वामीजी कि एक विग्रह कि वहाँ स्थापना किये और उस विग्रह को माम्पऴ श्रीरामानुज कहकर बुलाते हैं)।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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