श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कुछ समय वहाँ विश्राम करने के पश्चात फिर आगे चढ़ने लेगे। यह सुनकर पेरिय केळ्वि जीयर् स्वामीजी अन्य श्रीवैष्णव जन और सभी मन्दिर के कर्मचारी सहित बड़ी कृपा से भगवान श्रीवेङ्कटेश कि श्रीशठरी (जिसे पूवार्कऴल्गळ् भी कहते है), पेरीय परिवट्टम् (दिव्य वस्त्र जिसे माते पर पहनते हैं), श्रीपाद, अभयहस्त, आदि नादस्वर सहित श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और उनके शिष्यों का स्वागत किया। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को मन्दिर का सम्मान प्रदान किये जिन्होंने दिव्य विमान, तिरुनारायणगिरी, द्वजस्तम्भ (गर्भगृह पर कलश) का दर्शन किया।
उन्होंने अवावरच्चूऴ्न्दान् प्रवेश द्वार पर साष्टांग दण्डवत किया, दिव्य गलीयों और दिव्य भवनों कि ओर प्रसन्नता से देखा, मन्दिर कि परिक्रमा लगाये, स्वामी पुष्करणी में स्नान किया, ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया, वराह भगवान कि पूजा किये, श्रीतीर्थ, श्रीशठरी और चन्दन का लेप स्वीकार कर सन्निधी से प्रस्थान किये; दिव्य रथ को देखते हुए उन्होंने अऴगियमणवाळन् के दिव्य मण्डप (यह वह स्थान हैं जहां आक्रमण के समय नम्पेरुमाळ् कुछ समय के लिये रूखे थे) कि ओर गये और वहाँ साष्टांग दण्डवत किया। बलीपीट, दिव्य सेण्बगा के प्रवेश द्वार और अट्टाणिप्पुळि के पास दण्डवत प्रणाम किया। चेण्बगच्चुट्रु के प्रवेश द्वार कि परिक्रमा लगाते समय उन्होंने नेय किणऱु को देखा और तिरुमडप्पळ्ळि (दिव्य रसोई घर श्रीवेङ्कटेश भगवान को अर्पण होनेवाला प्रसाद बनाया जाता हैं) और यमुनैत्तुऱैवन् कि पूजा किये, मन्दिर के तालाब से जल लिया, सुवर्ण मण्टप के ऊपर गये, नारायण गीरी कि पूजा किये, चेण्बग वासल में प्रवेश किया और पोन विंजु पेरुमाळ् कि सन्निधी में पूजा किये जहाँ पहिले श्रीवरदराज भगवान विराजमान थे (इसे वरदराज स्वामी सन्निधी भी कहते हैं), अऴगप्पिरानार् और दिव्य बुर्जु कि पूजा किये। तत्पश्चात उन्होंने तिरुमडप्पळ्ळि नाच्चियार् (दिव्य रसोई घर में विराजमान श्रीमहालक्ष्मीजी) कि पूजा किये, दशावतार कि पूजा किये, याग मण्टप में उभय नाच्चियार् के साथ भगवान के विग्रह कि पूजा किये, श्रीतीर्थ और श्रीशठारी को स्वीकार किया, दिव्य बुर्जु कि पूजा किये, श्रीविश्वक्सेन कि पूजा किये, श्रीरामानुज स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत कर “रामानुजस्य चरणौ शरणं प्रपध्ये” का अनुसन्धान कर श्रीतीर्थ, श्रीअनन्दाऴवान् (तिरुमला में श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों को अनन्दाऴवान् कहा जाता हैं और अन्य स्थानों में दाशरथी) और चन्दन के लेप को स्वीकार किया। तत्पश्चात उन्होंने अऴगिय चिङ्गर् (श्रीनरसिंह) और पेरिया तिरुवड़ी नायनार् (श्री गरुडजी) जो भगवान के दर्पण के समान हैं कि पूजा किये, हुंडी में अपनी सेवा अर्पण कर द्वार पालकों कि आज्ञा पाकर गर्भ गृह में प्रवेश किया। उन्होंने भगवान श्रीराम कि पूजा किये, कुलशेखरन् पडि (भगवान के प्रवेश द्वार कि सन्निधी) के समीप जाकर श्रीवेङ्कटेश भगवान कि पूजा किये जैसे कहा गया हैं “सिशेवे देवदेवेशं शेषशैल निवासिनम् ” (नित्यसूरी के स्वामी श्रीवेङ्कटेश भगवान कि पूजा किये जो निरन्तर तिरुमला में विराजमान हैं)। जब वें श्रीवेङ्कटेश भगवान के दर्शन प्राप्त कर रहे थे तब भगवान ने उन्हें श्रीतीर्थ और श्रीशठारी अर्पण किया जिसे उन्होंने स्वीकार किया और वे बड़े आभारी हुए।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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