यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ३६

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर वरदराज भगवान के मन्दिर जाते हैं 

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तिरुमला से प्रस्थान कर राह में दो दिन के लिये विश्राम कर काञ्चीपुरम् में श्रीवरदराज भगवान की पूजा करने पहुँचे जैसे पाशुर में कहा गया हैं “उलगेत्तुम् आऴियान् अत्तियूरान् ” (वह जो दिव्य शंख धारण कर काञ्चीपुरम् में निवास कर रहे हैं)। श्लोक के अनुरूप  

दूरस्तितेपि मयिदृष्टि पदम्प्रपन्नेदुःखं विहाय परमं सुखमेश्यतीति।
मत्वेवयत्गगनकम्पिनतार्तिहन्तुः तत गोपुरं भगवतश्शरणं प्रपद्ये॥

(मैं उस मन्दिर के गोपुर के नीचे शरण लेता हूँ जो आकाश तक चढ़ता हैं और जिनके नीचे प्रणतार्तिहरन् पेररुळाळन् (काञ्ची श्रीवरदराज भगवान) खड़े हैं। यद्यपि वें बड़े हीं दूर हैं अगर वो किसी के नेत्र के लिये दृश्यमान हो तो वो व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो जायेगा और निश्चित रूप से उच्चतम स्तर प्राप्त करेगा), उन्होंने मन्दिर के तिरुक्कोपुर नायनार् (दिव्य मन्दिर का गोपुर) को साष्टांग दण्डवत किया। उन्होंने मन्दिर में प्रवेश कर पुण्यकोटी विमान कि भी पूजा किये, मन्दिर के अन्दर दिव्य अनन्त पुष्करणी (दिव्य अनंतासरस) में दिव्य स्नान किया। उन्होंने द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण कर सही शैली से आऴ्वारों  कि पूजा कर बलिपीठ के सामाने साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर मन्दिर में प्रवेश किया और सेर्न्दवल्लि नाच्चियार्, चक्रवर्ती तिरुमगन् (श्रीराम) और आदिशेष कि पूजा किये। उन्होंने तत्पश्चात परिक्रमा लगाते हुए वह स्थान जहाँ श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी पर कृपा बरसाये, श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के दिव्य आंगन और करियमाणिक्क सन्निधि  जहाँ उन्होंने दिव्य तिरुमाळिगै लियें उस स्थान कि पूजा किये और फिर तिरुमडप्पळ्ळि नाच्चियार् (मन्दिर में श्रीमहालक्ष्मीजी का रसोई घर) कि पूजा किये। उन्होंने तत्पश्चात श्रीपेरुंदेवी तायार् (श्रीवरदवल्लभा अम्माजी) (श्रीमहालक्ष्मीजी) जो श्रीवरदराज भगवान कि दिव्य अम्माजी हैं कि पूजा किये जो इस तरह प्रशसनीय हैं 

आकारत्रयसम्पन्नाम् अरविन्दनिवासिनीम्।
अशेषजगदीशित्रीं वन्दे वरदवल्लभाम्॥

(मैं श्रीवरदवल्लभा अम्माजी के दिव्य चरणों में नत मस्तक होता हूँ जिनके पास तीन स्थितियाँ हैं अनन्य शेषतत्व (भगवान छोड़ अन्य किसी का भी दास न होना), अनन्य शरणतत्व (भगवान छोड़ अन्य किसी के शरण न होना) और अनन्य भोग्यत्त्व (भगवान छोड़ अन्य किसी का भी आनंद का वस्तु न बनना) जो निरन्तर दिव्य कमल पुष्प पर विराजमान हैं, जो सम्पूर्ण संसार को अपने नियंत्रण में रखता हैं और जो श्रीवरदराज भगवान कि दिव्य पत्नी हैं) श्रीवरदवल्लभा अम्माजी के दिव्य कृपा से उन्होंने श्रीगरुडजी, श्रीनरसिंह भगवान, चूडिक्कोडुत्त​ नाच्चियार् (आण्डाळ्) और श्रीविष्वक्सेनजी कि पूजा किये। तत्पश्चात परिक्रमा लगाते हुए हस्तगीरी के समीप गये (दिव्य हाथी का पर्वत) जैसे कहा गया हैं “येशतं करिगिरिं समाश्रये ” (मैं हाथी के पर्वत के नीचे शरण लेता हूँ), सीढ़ी के समीप साष्टांग किया, मलयाळ  नाच्चियार् कि पूजा किये, सही ढंग से सीढ़ीयों पर चढ़ कच्चिक्कु वाय्त्तान्  (त्याग मण्टप भी कहते हैं) के दिव्य मण्टप में प्रवेश किया जहां काञ्चीपुरम् के श्रीवरदराज भगवान ने श्रीरामानुज स्वामीजी को तिरुवरङ्गप्पेरुमाळ् अरयर्  स्वामीजी को श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी के उपस्थिती में सौंप दिया और विस्मय होकर कहा “क्या यह वह दिव्य स्थान नहीं हैं!” और उन सभी की सिफारिश के साथ जिन्होंने उस दिव्य स्थान में स्थायी निवास किया है और जैसे कि कहा गया हैं 

सिन्धुराजशिरोरत्नम् इन्दिरावास वक्षसम्
वन्दे वरदं वेदिमेदिनी गृहमेदिनम्॥​

(उन्होंने श्रीवरदराज भगवान के दिव्य चरणों में शरण लिये जो हस्तगीरी के शिखर पर रत्न के समान विराजमान हैं, जिनका दिव्य वक्षस्थल हैं जहाँ लक्ष्मीजी निरंतर निवास करती हैं जो यागभूमी (वह स्थान जहाँ ब्रह्माजी पवित्र संस्कार करते हैं) कि स्वामी हैं)। उन्होंने श्रीवरदराज भगवान कि पूजा किये जो पुण्यकोटि विमान के केन्द्र में हैं जैसे श्लोक में कहा गया हैं  

रामानुजाङ्रि शरणेस्मि कुलप्रदीपः यामुनमुनेः सच नाथवम्शतयः।
वम्शयः पराङ्गुशमुनेः स च देव्याः दासस्तवेदि वरदास्मि तवेक्षणीयः॥

(ओ श्रीवरदराज! मैंने श्रीरामानुज स्वामीजी का शरण लिया हैं; वह श्रीरामानुज स्वामीजी जो श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी के ज्ञान के वंशज के दिव्य दीपक हैं; वें श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी जो श्रीनाथमुनि स्वामीजी के दिव्य वंशज से हैं; वें श्रीनाथमुनि स्वामीजी जो श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य ज्ञान के वंशज हैं; वें श्रीशठकोप स्वामीजी अम्माजी के दास हैं; अत: इस वंश के जरिये दास आपके दिव्य कृपा का पात्र हो गया)। वें श्रीवरदराज भगवान के सामाने साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर तिरुप्पल्लाण्डु, वरदराज अष्टकम्, स्तोत्ररत्नम्, गध्यत्रयम् का अनुसन्धान कर मङ्गळाशासन्  किया। श्रीवरदराज भगवान भी अपनी कृपा यह सोचकर बरसाई “नम्मिरामानुसनैप् पोले इरुप्पार् ओरुवरैप् पेऱुवदे” (हमारे श्रीरामानुज स्वामीजी के समान हम कैसे महानता प्राप्त करेंगे) और उन्हें श्रीतीर्थ और श्रीशठारी प्रदान किये। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को जाने कि आज्ञा प्रदान किये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी काञ्ची में अन्य दिव्य स्थान जैसे तिरुवेक्का, आदि के दर्शन प्राप्त किये। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/20/yathindhra-pravana-prabhavam-36-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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