यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४१

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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तिरुमञ्जनमप्पा कि पुत्री श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शरण हुई 

एक प्रात: काल जब जीयर् अपने दिव्य स्नान हेतु कावेरी नदी कि ओर जा रहे थे तब अचानक ज़ोर से वर्षा होने लगी। इसलिये जीयर् राह में किसी के तिरुमाळिगै के बैठक में वर्षा रुकने कि प्रतीक्षा किये। यह देख उस घर के यजमान कि स्त्री जीयर् के प्रति बड़े प्रेम भाव से अपने साड़ी के पल्लू से उस बैठक को साफ किया उनसे अनुरोध किया की “स्वामी कृपा कर यहाँ विराजमान होहिये” और बड़े नम्रता और भक्ति से उनकी चरण सेवा किये। जीयर् अपने चरण पादुका को उसी स्थान में छोड़ कर और उस बैठक पर विराजमान हो गये। उस स्त्री ने उन चरण पादुका को अपने सर पर रख वहीं खड़ी हो गयी और वर्ष का जल चरण पादुका के माध्यम से उस पर गिर रहा था। तत्पश्चात उसने चरण पादुका को साड़ी के आंचल से सूखाया। यह सब देख श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उससे पूछा “तुम कौन हो? आपका नाम क्या हैं? यह किसकी तिरुमाळिगै हैं?” उसने कहा “दासी तिरुमञ्जनमप्पा कि पुत्री हैं जिनका आप श्रीमान के दिव्य चरणारविन्द से सम्बन्ध हैं। दासी का नाम आच्चि हैं। यह उनके जवाई कन्दाडै अय्यङ्गार् कि तिरुमाळिगै हैं”। तिरुमञ्जनमप्पा का नाम सुन जीयर् बहुत प्रसन्न हुए और कहा “ओ हमारे अप्पाच्चियार्  [तिरुमञ्जनमप्पा कि पुत्री हैं]”। उन्हें आशीर्वाद प्रदान कर वर्षा रुकने पर कावेरी कि ओर प्रस्थान किये। 

आच्चि जीयर् के चरण पादुका से घीरे हुए जल से भीग गई और उसी क्षण उसे भगवत ज्ञान प्राप्त हुआ। उसे उसी क्षण जीयर् के दिव्य चरणों में शरण होने कि इच्छा हुई। वह अपने पिता कि तिरुमाळिगै में गई और उन्हें इस विषय पर बताया। वें बहुत प्रसन्न हुए और उससे कहा कि उसके पुत्रों को इसके बारें में पता न चले। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों कि शरण होने का विषय किसी के जाने बिना उसे अपने तिरुमाळिगै में रखने कि इच्छा किये और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै मे लेकर गये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को साष्टांग दण्डवत कर उन्होंने अपना निर्णय श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कहा “क्या हमें इस पहलू कि ओर नहीं देखना चाहिये कि यह कन्दाडै अय्यङ्गार् के वंश से हैं? यह काम नहीं करेगा”। [कन्दाडै अय्यङ्गार् श्रीदाशरथी स्वामीजी के वंशज से आते हैं और वें स्वयं आचार्य हैं]। तिरुमञ्जनमप्पा के मन में निराश का भाव नहीं था। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से उत्कट प्रार्थना किये और अपने बेटी के भगवद विषय में संलिप्तता के विषय में और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणों कि शरण होने कि इच्छा और उसकी प्रार्थना के विषय में कहा। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहा “आप श्रीमान जो बाधाए सोच रहे हैं वह नहीं घटित होगी। कृपया उस पर दया करिये”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने सोचा कि “सम्पूर्ण कन्दाडै दिव्य वंश को इससे लाभ होगा” और आच्चि का समाश्रयण (एक आचार्य किसी व्यक्ति को अपने शिष्य रूप में यह पाँच संस्कार कर स्वीकार करते हैं यानि ताप: (तप्त दिव्य शंख चक्र को अपने दोनों बाहु पर अंकित करना), पुण्ड्र (द्वादश ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धरण करना), नाम (आचार्य से दिया गया दास नाम करना), मन्त्र (आचार्य से मन्त्र सीखना – अष्टाक्षर मन्त्र, द्वय मन्त्र और चरम श्लोक) और याग (आचार्य शरण होना। उनके द्वारा सीखाये गये भगवद पूजन की विधी को समझना)) किया। अप्पा ने उसे अपने तिरुमाळिगै में ले गये, कुछ समय अपने साथ रखा और उसके भाई और अन्यों को उसे वहाँ रखने का कोई और कारण दिया। जीयर के चरण पादुका से वर्षा का जल गिरकर आच्चि पर कृपा होना और यह आच्चि  कि घटना को जिन्होंने देखा वें इस श्लोक में कहे

श्रीपादुकाम्बुजनितात्म विवेकरङ्ग भूनाथ तीर्थ जलधातजमातृदेवम्।
द्वन्द्वच्चितं निखिलदेशिक वन्द्यपादं सौंयोपयन्तृ मुनिवर्यमहं नमामि॥

(मैं उन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को नमन करता हूँ जो तिरुमञ्जनमप्पा कि बेटी के आचार्य हो गये जो अपने दिव्य चरण पादुका से बहते हुए जल से धोए जाने के परिणाम स्वरूप उसे बुद्धी प्राप्त होने कारण जो गरम/ठंडा, सुख/दुख जैसे जुड़वा प्रभावों को नष्ट कर देता हैं और सभी आचार्य द्वारा पूजे जाते हैं)।  

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/25/yathindhra-pravana-prabhavam-41-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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