यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४३

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

<< भाग ४२

कन्दाडै अण्णन्  का स्वप्न 

एक श्रीवैष्णव सीढ़ी से ऊपर से नीचे आये और उसके साथ लाये एक कोड़े से कन्दाडै अण्णन्  पर बरसे। हालाकि अण्णन् में उनके दण्ड को रोखने कि क्षमता थी पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने यह विचार किया कि उन्हें ऐसी सजा इसलिये प्राप्त हुई क्योंकि उनके गुण मूल प्रकृति के विरुद्ध थी। “शस्त्रक्षारग्नि कर्माणि स्वपुत्राय यथा पिता ” (यह केवल उनके पुत्र के घाव को उपचार करना हैं जो एक पिता गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं जैसे चर्म को चाकू से काटना या चुभनेवाली दवा को लगाना या गरम छड़े से दागना) इन शब्दों को स्मरण कर वें शान्त रहे। कुछ समय पश्चात वह चाबुक टुट गया और उस श्रीवैष्णव ने अण्णन् को अपने दिव्य हाथों से उठाया। अण्णन् ने उन्हें पूछा क्या करना था; उन श्रीवैष्णव ने कहा सीढी से ऊपर जावों। अण्णन् सीढ़ी के माध्यम से ऊपर गये। उन श्रीवैष्णव ने उन्हें दीवार के उस ओर लेगये जहाँ पर एक जीयर् स्वामीजी एक चरण को नीचे लटका कर और दूसरे चरण को सिकुड़ा कर कांधे के आधार से त्रीदण्ड (चित्त, अचित और ईश्वर को संबोधित करता हुआ ध्वज) लिये, दिव्य हाथों में कोडा लिये और उग्र नेत्रों से बैठे थे। उन श्रीवैष्णव ने अण्णन् को उन जीयर् स्वामीजी के समीप ले गये। जीयर स्वामीजी अण्णन् को कोड़े से अपने दिव्य हाथों से दण्ड देना प्रारम्भ किया। वह कोडा भी टुट गया। आगे और दण्ड देने के लिये जीयर् स्वामीजी ने अपने त्रीदण्ड से एक लकड़ी को निकाले। उन श्रीवैष्णव ने जीयर् स्वामीजी के समक्ष साष्टांग दण्डवत किया; अंजली मुद्रा में हाथ जोड़े, जीयर् स्वामीजी के दिव्य मुख कि ओर देखकर उन्हें कहा “यह तरुण व्यक्ति हैं और बहुत दण्ड भी मिला हैं। श्रीमान के दिव्य मन से कृपाकर उस पर दया कर क्षमा करिये”। जीयर् स्वामीजी ने अण्णन् पर दया कर उसे अपने गोद में बैठाया और अपने दिव्य स्वरूप से अण्णन् के दिव्य मस्तक को स्पर्श किया। उन्होंने अण्णन् से कहा “उत्तम नम्बी और आपने अपराध किया हैं” अण्णन् ने कहा “श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के महानता को जाने बगैर दास का मन साफ न था। मेरे दुष्कर्म को क्षमा करें”। जीयर स्वामीजी ने उन पर दया कर कहा “हम भाष्यकार हैं और वह श्रीवैष्णव दाशरथी हैं” और यह पद कहा 

त्वदीयान् अपराधन्यीरन् त्वत्सम्बन्धि कृत्नापि।
क्षमांयहं दाशरथेः सम्बन्धं माऽन्यथाकृतः ॥

(हमने आपको और आपसे सम्बन्धीत सभी जनों कि गलतियाँ को हम क्षमा करते हैं। आप श्रीदाशरथी से नीरर्थक होने के लिये सम्बन्ध न बनाये।) और आगे अण्णन् से कहा “हम आदिशेष हैं; हम श्रीवरवरमुनि हैं। आप और आपक्र सम्बन्धीयों को स्वयं इनके चरणों कि शरण होकर ऊपर उठना चाहिये”। तुरन्त अण्णन् स्वप्न से उठ गये और बहुत समय तक सोचे “यह स्वप्न कैसे हुआ!” अचम्बीत होकर वें स्वप्न में हुए सभी घटनाओं पर विचार करने लगे। वें अपने भ्राताओं को जगाकर स्वप्न कि घटनाओं को उन्हें बताया। बताते समय बहुत बार वें अवाक हो गये और कई बार रोंगटे खड़े हो गये। 

जो घटनाये श्रीरामानुज स्वामीजी के माध्यम से कन्दाडै अण्णन् के साथ हुआ उसे कई विशेष व्यक्तियों ने इस श्लोक के माध्यम से लिखा हैं 

वादूलदुर्य वरदार्य गुरोः पपाण
स्वप्नेयतीन्द्र वपुरेत्य कृपापरोन्यः।
शेषोप्यहं वरवरोमुनिरप्यहं त्वम्
मामश्रयेतितम् अहं कलयामि चित्ते॥
अत्यन्त पापनिरतः कथमार्यवर्य
त्वमाश्रयेहमिति तं कृपणं वदन्तम्।
दृष्ट्वा क्षमामि ननुदाशरथेः त्वदीय
सर्वापरादमिति तं प्रवदन्तमीडे॥

(मैं उन कृपालु जीयर् स्वामीजी कि पूजा करता हूँ जो स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी के रूप में कन्दाडै अण्णन् जो वाधूला वंश के प्रख्यात व्यक्ति हैं के स्वप्न में प्रगट हुए। उन्होंने उस स्वप्न में कहा था “हम आदिशेष हैं; हम श्रीवरवरमुनि हैं। आप हमारे शरण हो जाये”। मैं अपने मन में उनका ध्यान करता हूँ। जब धीमे स्वर से कन्दाडै अण्णन् से कहा कि वें कुकर्म में संलग्न हैं और यह सोच रहे थे कि वें कैसे उनके शरण होंगे तब श्रीरामानुज स्वामीजी ने अण्णन् से कहा “ओ अण्णा! श्रीदाशरथी के लिये हम आपके सभी पापों को क्षमा कर देंगे” अण्णन् अपने भाइयों के संग गये जैसे श्रीविष्णु पुराण ५-१७-३ में कहा गया हैं “अद्यमे सफलं जन्म सुप्रभातासमे निशा ” (मेरे जन्म का लक्ष्य आज प्राप्त हो गया हैं; कल कि रात्री मेरे लिये एक नया सबेरा लाया हैं)) आच्चि से कहा और आच्चि को साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। यह सुनिचित कर कि वो डरी नहीं अण्णन् ने पिछले रात्री के स्वप्न के बारे में बताया। आच्चि ने उन्हें कहा कि उसने जीयर् स्वामीजी के शरण ले लिया हैं और अपने माते पर उनके चरण पादुका के लेने कि घटना और कैसे वह जल उसे पवित्र किया यह बताया। उसने वह घटना भी बतायी कि कैसे उसके पिताजी उस स्थान पर कावेरी नदी में स्नान करते जहां जल जीयर् स्वामीजी के स्नान के स्पर्श के पश्चात बहता और उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ। यह सुनकर अण्णन् बहुत उन्मत्त हो गये और सिङ्गरैयर्  के पास गये और दया पूर्वक सभी समझाया और दिव्य कावेरी नदी में जाकर स्नान किया और नित्य दिनचर्या कर जीयर् स्वामीजी से मिलने पहुँचे। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/28/yathindhra-pravana-prabhavam-43-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

प्रमेय (लक्ष्य) – https://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – https://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – https://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – https://pillai.koyil.org

3 thoughts on “यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४३”

Leave a Comment