यतीन्द्र प्रवण प्रभावम् – भाग ४५

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

यतीन्द्र प्रवण प्रभावम्

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अण्णन् का अपने सम्बंधीयों सहित जीयर् स्वामीजी के मठ कि ओर प्रस्थान करना 

जीयर् स्वामीजी के मठ में समाश्रयण के लिये नहीं जाने के लिये उन सम्बंधीयों में एम्बा ने कुछ का मन परिवर्तन कर दिया। कन्दाडै अण्णन् को इस विषय कि जानकारी दी गई; वें दयाकर ग़ुस्से से कहा “उन्हें छोड़ दो” और अन्य को अपने साथ ले जाने का निश्चय किया। उन्होंने आच्चि को बुलाकर कहा श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को सही समय कि जानकारी कर दे। वें भी मठ के लिये गई और उन्हें ज्ञात हुआ कि स्वामीजी तिरुमलै आऴ्वार्  [कालक्षेप मण्टप] में श्रीवैष्णवों के सभा में हैं। उन्हें स्वयं को वहाँ जाकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को सूचना देने में संकोच हुआ। इसलिये उन्होंने वहाँ उपस्थित एक श्रीवैष्णव को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पास एक संदेश के साथ भेजने का विचार किया। उन्होंने उसे बुलाकर कहा ‘कृपया श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को बिना किसी और के सुने यह कहे कि कृपया अंदर पधारे’ उन वैष्णव ने पूछा “किसके लिये?” उन्होंने उसे कहा “अण्णन् और  कन्दाडै अय्यङ्गार् वंश के अन्य उपदेशक एक समूह में पधार रहे हैं” और अंदर गये ताकि जीयर् स्वामीजी आये और वह स्वामीजी को उन्नती से अवगत कराये। 

बुद्धु (अज्ञानी)! 

उस श्रीवैष्णव ने आच्चि के शब्दों का गलत अर्थ निकाला। वें तुरन्त भीतर गये और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहे “स्वामीजी! तुरन्त आइये। कन्दाडै अय्यङ्गार् पधार रहे हैं”। स्वामीजी तुरन्त उठकर पीछे चले गये। क्योंकि वें अन्दर नहीं पधारे आच्चि को थोड़ी चिंता हुई कि उस श्रीवैष्णव ने स्वामीजी से क्या कहा और उन्हें यह आनन्द दायक संदेश सुनाना चाहा। उन्हें पीछे जाकर स्वामीजी से यह संदेश सुनाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। तबतक अण्णन् और अन्य प्रसाद और फल लेकर द्वार पर आगये। वहाँ वें वानमामलै जीयर् स्वामीजी से भेंट कर और अपना शिष्टाचार अर्पण किया। अण्णन् बड़ी करुणा से वानमामलै जीयर् स्वामीजी से कहे “हम यहाँ पर जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों में प्राप्यप्रापकम प्राप्त करने हेतु पधारे हैं। आप श्रीमान को यह पुरुषकार करना होगा”। यह सुनकर वानमामलै जीयर् स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए और एक क्षण के लिये स्तब्ध रह गये। फिर वें स्वामीजी को यह सूचना देने हेतु भीतर गये। इस बीच में आच्चि सही क्षण देख जीयर् स्वामीजी से मिलने भीतर चली गयी। आच्चि ने उनके दिव्य चरणों में साष्टांग प्रणाम कर कहा “आज यह बहुत आनन्द का प्रसंग हैं। अण्णन् और अन्य आप श्रीमान के दिव्य चरणों के शरण होने पधार रहे हैं”। उसी समय वानमामलै जीयर् बड़ी करुणा से भीतर पधारे और उन्मत्त तरीके से जीयर् स्वामीजी को द्वार पर हुए घटना से अवगत करवाये। यह सुनकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा “क्या यह सब के लिये आच्चि मुख्य कारण नहीं हैं!”। उन्होंने तत्पश्चात उन श्रीवैष्णवों को बुलाया जो उन्हें तिरुमालै कालक्षेप मण्टप में सावधान करने आये थे और उन्हें अनोखे तरीके से पूछा “आप श्रीमान का नाम क्या हैं?” उन श्रेवैष्णव ने उत्तर दिया “अड़िएन् रामानुजदासन् (श्रीरामानुज स्वामीजी के दासों का दास)”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उपहास करते हुए कहा “यह ऐसे नहीं हैं। श्रीमान बुद्धु (अज्ञानी) हैं (मूर्ख व्यक्ति)”। 

 अण्णन् जीयर् स्वामीजी को सम्मान प्रदान करते हैं 

जीयर् दया से कहे 

विद्या विमुक्तिजननी विनयाधिकत्वम् आचारसम्पतनुवेल विकासशीलम्।
श्रीलक्ष्मणार्य करुणा विशयीकृतानां चित्रं नदाशरथिवम्श समुध्भवानाम्॥

(इसमे कोई आश्चर्य कि बात नहीं हैं कि जो ज्ञान मोक्ष प्राप्त करने में सहायता करता हैं, अद्भुत विनम्रता और अच्छे आचरण का महान धन श्रीदाशरथी स्वामीजी के महान वंश में देखा जाता हैं जो श्रीरामानुज स्वामीजी की दया का लक्ष्य हैं) और मठ के सामाने के आगन में पधारे। उन्होंने वहाँ दल को देख कहा 

श्रीरामानुज योगीन्द्र करुणा परिभ्रुंहिताम्।
श्रेयसीम अनघां वन्दे श्रीमद्वाधूल सन्ततिम्॥

(मैं वधूला वंश को नमन करता हूँ जो यतियों के राजा श्रीरामानुज स्वामीजी के कृपा से बढ़ा हैं, जो महान और दोष रहित हैं)। सभी कन्दाडै अय्यङ्गार् जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों में साष्टांग किये, वैदिक श्लोक जैसे “नकर्मणा नप्रजायतनेन​”, “वेदाहमेतम्” आदि का अनुसंधान किया और अपना प्रसाद अर्पण किया। जीयर् ने उन्हें अपनाया और कृपाकर भीतर ले गये। उन्होंने दिव्य सभा में जो लोग एकत्रीत हुए थे उन्हें श्रीसहस्रगीति के पाशुर पोलिग पोलिग पोलिग के अर्थ और तिरुप्पल्लाण्डु के पाशुर पर कालक्षेप किया। ऐसे श्रीवैष्णव के आगमन पर सभी जन ने अपना मङ्गळाशासन् अर्पण किया। अण्णन् वानमामलै जीयर् को समाश्रयण के लिये संकेत कर रहे थे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एक कोने में निवृत्त हुए और वानमामलै जीयर् और अण्णन् को बुलाकर अण्णन से कहे “श्रीमान एक उच्च वंश से आते हैं और सभी के लिए आचार्य हैं। ऐसा क्यों?”। अण्णन् ने उत्तर दिया “कृपाकर ऐसे न कहिये”। उन्होंने अपने पिछले स्थिति के लिये क्षमा मांगी (जीयर स्वामीजी को आदर प्रदान न करने हेतु) और स्वप्न में हुए सम्पूर्ण घटना को समझाया। जीयर् स्वामीजी ने उसे स्वीकार कर कहा “श्रीरङ्गनाथ​ भगवान ईयान के वंशज के जनों को शरण होने के लिये कहेंगे। आज से चौथे दिन हम सभी को समाश्रयण करेंगे”। सभा में उपस्थित सभी को प्रसाद और ताम्बूल प्रदान किया गया और सभी मठ से चले गये। 

कुछ जनों को सुधारने हेतु भगवान अपने दिव्य मन में कुछ निश्चित किये 

पुनस्स्वप्नापदेशेन देशे देशे निरङ्कुशः।
अयमर्चावतारत्व समाधिमवधीरयत्॥
अद्यमर्त्यन तदेतस्य तत्वमाद्यन्तिकं हितम्।
असन्कुचितम् असक्यौ भुजङ्गशयनः पुमान्॥

(भगवान श्रीमन्नारायण जो आदिशेष के शैय्या पर शयन कर रहे हैं स्वपन के बहाने कई स्थानों पर गये क्योंकि उन्हें रोकने वाला कोई नहीं हैं अर्चावतार तत्व को किनारे रखकर – किसी से विग्रह रूप में वार्ता नहीं करे – कृपाकर सभी को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सच्चे स्वभाव को समझाया जो देवताओं से भी आगे निकल गये और जो अंतिम लक्ष्य जो मोक्ष (श्रीवैकुंठ) हैं प्रदान करने के लिये तत्पर हैं और जैसे कहा गया हैं “गुरुश्च स्वप्नदृष्टश्च​” (स्वयं के आचार्य को स्वप्न में देखना) वें उनके स्वप्न में अर्चा रूप में पधारे और उन्हें कहे “हम आचार्य के रूप में अवतार लिये हैं। आप भी इस पंक्ति समान रहे ‘आचार्यं मां विजानीयात् भवबन्ध विमोचनम्’ (हम सभी यह जान ले कि हमें इस संसार बन्धन से मुक्त करने हेतु श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अवतार लिया हैं) उनमें विशेष आत्मविश्वास बताए और उनके शरण हो जाइए”)। 

आदार – https://granthams.koyil.org/2021/08/29/yathindhra-pravana-prabhavam-45-english/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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