श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
आण्डपेरुमाळ् कन्दाडै अण्णन् के शरण होते हैं
एक दिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी शुद्धस्तवम् अण्णा को बुलाकर बड़ी दया से उन्हें कहते हैं “श्रीमान बहुत भाग्यशाली हैं जैसे श्रीमधुरकवि स्वामीजी श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति थे वैसे श्रीमान भी पसंद किये जानेवाले व्यक्ति अण्णन् के प्रति हैं। जब तक आचार्य इस संसार में हैं तब तक हम उनकी सेवा कर सकते हैं। अण्णन् कि सभी आवश्यकता को पूरा करके बनाये रखे” और आशीर्वाद प्रदान किये। उन्होंने फिर आण्डपेरुमाळ् को बुलाया जो कुमाण्डूर् आच्चान् पिळ्ळै के पौत्र हैं जो ज्ञानी, सभी शास्त्र में प्रवीण हैं और अण्णन् से कहा “आप इसे अपने चरणों का विश्वासपात्र बना लीजिए और इसे सम्प्रदाय के प्रवर्तकर (वह जो श्रीरामानुज स्वामीजी के तत्त्वों का प्रचार करें) बनाये” और आण्डपेरुमाळ् को अण्णन् के पास छोड़ा जिन्होंने उसे स्वीकार किया।
जीयर् नायनार् का दिव्य अवतार
इस प्रकार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के चरणों के शरण होने वाले सभी को ऊपर उठाने का वैभव था और उनके पूर्वाश्रम (सन्यासाश्रम ग्रहण करने के पूर्व) का पुत्र रामानुजअय्यन् आऴ्वार्तिरुनगरि में बढा हो रहा था। उचित समय पर उसका विवाह हो गया और कुछ समय पश्चात उसे एक पुत्र हुआ। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उसका नाम “अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् ” रखा। पश्चात रामानुजअय्यन् श्रीविल्लिपुत्तूर् में आकार निवास करने लगे जहां उन्हें एक और पुत्र प्राप्त हुआ। उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सन्निधी में एक संदेश भेजा और एक उचित नाम प्रदान करने को कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कृपाकर कहा “जब शिशु का जन्म श्रीविल्लिपुत्तूर् में हुआ हैं तो उचित नाम के लिये संदेश क्यों बिजवाया! उसका नाम विष्णुचित्त हीं रखना”। उस शिशु का नाम पेरियाऴ्वारैय्यन् रखा गया। जब वें बड़े हुए और एक आचार्य के दिव्य चरणों में उन्हें छोड़ने का समय आया तो उनके पिता ने उन्हें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सन्निधी में रखा। इन दोनों में अऴगिय मणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् जीयर स्वामीजी के दिव्य चरणों को एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ता और उनके प्रति सेवा करते रहते। क्योंकि जिन्होंने भी जीयर् स्वामीजी के दिव्य चरणों में शरण लिया हैं उन्होंने अपने पुत्र का नाम नायनार् (सन्यासाश्रम ग्रहण करने के पूर्व जीयर का नाम नायनार था) रखा हैं और जीयर के पहिले पौत्र का नाम जीयर् नायनार् था और उन्हें उस नाम से बुलाया गया। जीयर् ने कृपाकर विशिष्ट दया से उसे आशीर्वाद प्रदान किया और उसे सम्प्रदाय का प्रवर्तकर माना जैसे श्रीनाथमुनी स्वामीजी ने श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी को माना। आचार्य पौत्र होने के कारण वह बहुत भव्य था जैसे उज्जवल दीपक। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के अनुयायी उनके विषय में कहे हैं
अस्मासु वत्सलतया कृपया च भूय:
स्वेच्छावतीर्णमिव सौम्यवरं मुनीन्द्रम् ।
आचार्यपौत्रम अभिरामवर अभिधानम्
अस्मद्गुरूं गुणनिधिं सततम् आश्रयामः॥
(मैं निरंतर अभिरामवरर् (अऴगिय मणवाळ) के नत मस्तक होता हूँ जो हमारे प्रति अपने मातृ सहनशीलता और दिव्य करूणा से अपनी इच्छा से हमारे मध्य आये जैसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अपरावतार हुआ हो; वह दिव्य गुणों का खजाना और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का पौत्र हैं) और इस पर ध्यान करते रहे।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर आऴ्वार्तिरुनगरि के लिये प्रस्थान करते हैं
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जिन्हें श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रेम के अनुयायी माना जाता हैं के दिव्य मन में श्रीशठकोप स्वामीजी के जन्म स्थान आऴ्वार्तिरुनगरि जाने कि इच्छा हुई जिसका “भगवन् भगवद् उत्पवस्थली भवतु श्रीनगरी गरीयसि” (ओ जो सभी दिव्य गुणों से परिपूर्ण हैं! आऴ्वार्तिरुनगरि जो श्रीमान का दिव्य जन्मस्थान हैं सभी स्थानों से भी श्रेष्ठ स्थान के रूप में चमके) ऐसे प्रशंसा हुई और आऴ्वार् के दिव्य चरणों कि वहाँ पूजा करने कि इच्छा हुई। जैसे कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु के पाशुर में कहा गया हैं “कुरुगूर् नम्बि मुयल्गिन्ऱेन् उन्दन् मोय् कऴऱक्कु अन्बैये” (ओ कुरुकापुरी के स्वामी! मैं आपके श्रेष्ठ पादारविंदों में भक्ति करने का ही प्रयत्न कर रहा हूँ) हृदय में खुशी लेकर वें श्रीरङ्गनाथ भगवान के पास गये और आऴ्वार्तिरुनगरि जाने कि आज्ञा प्राप्त किये। राह में श्रीरङ्गम् के एक साथी को अपने संग ले गये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कुंतीनगर पहुँचे जो श्रीशैलेश स्वामीजी का अवतार स्थल हैं और वहाँ तीन रात्रि निवास किये। उन्होंने यह पाशुर श्रीशैलेश स्वामीजी के वैभव में गाया
चित्तम् तिरुमाल् मेल् वैत्तरुळुम् सीर् मन्नर्
नत्तम् इदु काणुम् नाम् तोऴिल – मुत्तराय्प्
पोनारेयागिलुम् पूङ्कमलत्ताळ्गळ तनै
तामार वैत्तार् तलम्
(यह दिव्य स्थान उस महान राजा (श्रीशैलेश स्वामीजी) का हैं जिन्होंने अपना दिव्य मन श्रियः पति जो अम्माजी के स्वामी हैं पर लगाया। हालांकि वें मुक्तामा (वह जो इस संसार से मुक्त होने के पश्चात श्रीवैकुंठ को प्राप्त कर लिया हो) हो गये उन्होंने अपना दिव्य चरण कमल इस स्थान पर प्रचुर मात्रा में रखा)। उन्होंने उस स्थान कि पूजा कर और आगे कि ओर प्रस्थान किये।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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