श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
जैसे श्लोक में कहा गया
यानियानिच दिव्यानि देशे देशे जगन्तितेः।
तानि तानि सम्स्तानि स्थानि समसेवत॥
(राह में जहाँ जहाँ भगवान दिव्य स्थान पर निवास किये हैं उन्होंने उन सभी स्थानों पर उनके दिव्य चरणों कि पूजा किये) वें राह में सभी स्थानों पर मङ्गळाशासन् किये जैसे श्रीपरकाल स्वामीजी तिरुनेडुन्दाण्डगम् के ६वें पाशुर में कहते हैं “तान् उगन्द ऊरेल्लाम् तन् ताळ् पाडि” (उन सभी स्थानों पर भगवान के दिव्य चरणों कि पूजा करना जहाँ उन्होंने निवास किया)। उन्होंने दिव्य स्थानों कि पूजा किये जैसे इस श्लोक में कहा गया हैं:
वैकुण्ठनाथ विजयासन भूमिपालान देवश पंकज विलोचन चोरनाट्यान।
निक्षिप्तवित्त मकरालयकर्णपाशान नाथं नमामि वकुळाभरेण सार्थम्॥
(मैं श्रीवैकुन्ठनातर् (श्रीवैकुन्ठम्), विजयासनर्, भूमिपालर्, देवर्पिरान् (तिरुप्पुळिङ्कुडि) अरविन्दलोचनर् (तिरुत्तोलैविल्लिमङ्गलम्), मायक्कूत्तर् (पेरुङ्कुळम्), वैत्तमानिधि (तिरुक्कोळूर्), मकर नेडुङ्कुऴैक्कादर् (तेन्तिरुप्पेरै), आदिनादर् जो आऴ्वार् के साथ हैं और वकुळाभरणर् के नाम से भी जाने जातेहैं उन्के चरणों के पूजा करता हूँ)। श्रीवैकुंठ में श्रीवैकुंठनाथ भगवान कि पूजा करना अष्टथलम प्राप्त करने जैसे प्रतीत होता हैं, अष्ट दिव्य स्थान के अनुरूप वें आऴ्वार्तिरुनगरि पहुँचे जो कर्णिकै के समान हैं। उनके अनुयायी श्रीशठकोप स्वामीजी के पाशुर ४.१० तिरुक्कुरुगूरदनैप् पाडियाडि परविच् चेल्मिन्कळ् (जब आप आऴ्वार्तिरुनगरि में तिरुक्कुरुगूर् कि पूजा कर रहे थे तब उत्साहपूर्वक नाच गा रहे थे) पर नाच गा रहे थे। उन्होंने तामिरबरणि नदी में दिव्य स्नान किया और ॐ केशवाय नमः से प्रारम्भ कर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण किया। वें अपने अनुयायी सहित झील को देखा जहां कोयल गा रही थी, तालाब में लाल रंग के कमल पुष्प खिल रहे थे, भौरा गुन गुना रहे थे, सुनहरा भवन, दिव्य आवासीय भवन, तिरुक्कुरुगूर् का आनंद ले रहे हैं जिसकी पूजा नित्यसूरी कर रहे हैं और यह पाशुर का अनुसंधान किया
पुक्कहत्तिनिन्ऱुम् पिऱन्दगत्तिल् पोन्ददु पोल्
तक्क पुगऴ् तेन्नरङ्गम् तन्निल् निन्ऱुम् – मिक्क पुगऴ्
माऱन् तिरुनगरि वन्दोम् अरङ्गन् तन्
पेऱन्ऱो नेञ्जे! इप्पोदु
(जैसे कोई अपने पति का घर छोड़ और अपने पिता के घर को आती हैं वैसे हीं हम दक्षीण के श्रीरङ्गम् को छोड़ तिरुनारी में आते हैं। हे हृदय! क्या यह अब श्रीरङ्गनाथ भगवान कि कृपा नहीं हैं?)
(जैसे हीं वें कृपा कर नगर में प्रवेश करते हैं महान जन जो तिरुक्कुरुगूर् में निवास करते हैं उनके स्वागत के लिए पधारते हैं और उनके दिव्य चरणों में साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हैं। उन्होंने उन सभी पर अपनी कृपा बरसाये और उनके साथ गये और पहिले चतुर्वेदीमङ्गलम् में श्रीरामानुज स्वामीजी के सन्निधी में गये।) उन्होंने यतिराज विंशति का पहिला श्लोक जिसकी रचना उन्होंने आऴ्वार्तिरुनगरि में किया था को गाया
श्री माधवांघ्रि जलज … रामानुजं यतिपतिं प्रणमामिमूर्ध्ना (मैं श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरणों में साष्टांग निवेदन करता हूँ जो यतियों के राजा हैं और जो नित्य अम्माजी के स्वामी भगवान श्रीमन्नारायण कि पूजा करते हैं)। उन्होंने उस सन्निधी में उन्हें दिया हुआ तीर्थप्रसाद को ग्रहण किया। उस स्थान से आगे बढ़ते हुए वें अपने आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी के दिव्य तिरुमाळिगै में प्रवेश कर साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और उनके आराध्य श्रीगोपालकृष्ण का मङ्गळाशासन् कर अपने आचार्य कि तनियन् ‘नमः श्रीशैलनाथाया’ का निवेदन कर उस स्थान में प्रवेश किया जहां उनके आचार्य श्रीशैलेश स्वामीजी उपदेश करते थे और कहा “क्या हमारे उद्धार का सर्वोत्तम पथ – प्रदर्शक स्थान यहीं हैं?”। पहाड़ के समान भवनों को देखते हुए वें उस स्थान से आगे निकल गये जो सुनहरे रंग के हैं। जैसे ॐ शब्द प्रधानरूप से जीवात्मा का बोधक होने पर भी परमात्मा का भी निर्देशक होता हैं वैसे ही वह मंदिर और श्रीशठकोप सूरि दोनों का ही प्रकाशक हैं। जैसे कहा गया हैं वकुळाभरण देवम स्वकुलाभरण ययौ (वें श्रीशठकोप स्वामीजी के पास गये जो उनके वंश के लिये आभूषण समान हैं) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पहले इमलीवृक्ष के नीचे आसीन प्रपन्नकुलकूटस्थ श्रीशठकोप स्वामीजी की सन्निधी में पधारे, वह स्थान मौलेसरी पुष्प की सुगन्धी से व्याप्त था। श्रीसूरि का वक्षस्थल भी उस पुष्प की माला से अलंकृत था। उनकी तनियन् से प्रारम्भ कर माता पिता … कुलपतेर्वकुळाभिरामं श्रीमत्तदंघ्रियुगलं प्रणमामि मूर्ध्ना और उन्होंने श्रीमधुरकवि स्वामीजी द्वारा रचित कण्णिनुण्चिऱुत्ताम्बु कि पाठ कियें। जैसे कि पाशुर में कहा गया हैं अन्नैयाय् अत्तनाय् उन्होंने श्रीशठकोप स्वामीजी को अपने माता, पिता और अन्य सभी सम्बन्धीयों के समान समझा, उत्साह से पूजा किये और अंजली मुद्रा में खड़े हो गये। श्रीशठकोप स्वामीजी भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को करुणा से देखे जैसे माता पिता अपने पुत्र को देखते हैं जो अन्य स्थान में निवास करता हैं और बहुत दिनों पश्चात अपने तिरुमाळिगै में लौटता हैं। श्रीशठकोप स्वामीजी ने उन्हें श्रीपाद तीर्थ, श्रीशठारी जिन्हें आऴ्वार्तिरुनगरि में श्रीरामानुजाचार्य कहते हैं प्रदान किये। उन्होंने बड़ी करुणा से सेल्वच्चठकोपर तेमलर्ताट्कु एय्त्तिनिय पादुकमाम् एन्दै इरामानुसनै वाय्न्दु एनदु नेञ्जमे वाऴ् (हे मेरे हृदय! सेवा के धन से परिपूर्ण श्रीशठकोप स्वामीजी के मधु रूपी दिव्य चरणों के लिये चन्दन रूपी श्रीरामानुजाचार्य को स्वीकार कर स्वयं को धारण करे) और वकुळालन्कृतं श्रीमच्चठकोप पदद्वयं अस्मद्कुलधनं भोग्यमस्तुते मूर्ति भूषणम् (श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य चरण जो सेवा के धनी हैं दास के सर के आभूषण जैसे हो) से अनुसंधान किया। तत्पश्चात श्रीकुरुकापुराधीश समृद्धिमत्स्थिपकारक भगवान के समीप जाकर उनका मङ्गळाशासन् एवं दण्डवत प्रणाम करके जीवन को सफल माने। उसके बाद अपने प्राचीनमठ में जाकर सुखपूर्वक भक्तजनों को उपदेश देते हुए निवास करने लगे। उनके अलौकिक गुणों को देख वहाँ के सभी लोग श्रीरामानुजाचार्य का अवतार मानकर संसार से उद्धार के लिये उनके शिष्य हुए। उन्होंने भी कृपा कर उन सब लोगों को श्रीशठकोप स्वामीजी के दिव्य प्रबन्ध से निर्देश प्रदान किया।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/02/yathindhra-pravana-prabhavam-48-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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