श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और तिरुनारायणपुरम् आयि के मध्य में बैठक
जब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कृपाकर आचार्य हृदयम् [श्रीशठकोप स्वामीजी के श्रीसहस्रगीति पर श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य के अनुज श्रीअऴगियमणवाळप्पेरुमाळ् नायनार् द्वारा रचित गूढ संकलन] के २२वें सूत्र को समझा रहे थे तो जो वें अर्थ दे रहे थे उससे वें बहुत संतुष्ट नहीं थे। वें सोच रहे थे कौन इसे समझा सकेगा। उन्हें अपने दिव्य मन में तिरुनारायणपुरत्तु आयि का स्मरण हुआ और उनसे सूत्र के गूढ़ार्थ सीखने कि इच्छा हुई। उन्होंने श्रीशठकोप स्वामीजी से तिरुनारायणपुरत्तु आयि से मिलने कि आज्ञा प्राप्त कर तिरुनारायणपुरम् कि ओर प्रस्थान किये। इस समय आयी भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव के विषय में बहुत सुने थे और उनकी पूजा करना चाहते थे। वें भी तिरुनारायणपुरम् से निकल गये और आऴ्वार्तिरुनगरि के समीप थे जहां राह में वें दोनों मिल गये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कहा “एण्णिन् पलम् एदिरिले वरप्पेऱुवदे” (दास कितना भाग्यशाली हैं कि जिस लाभ के विषय में दास ने सोचा वह उसके समक्ष आ गयी)। दोनों ने एक दूसरे के प्रति बड़े प्रेम से अभिवादन किया। दोनों एक दूसरे के विषय में बात किये। दोनों को देख श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के शिष्य खुशी से कहे “ऐसा प्रतीत होता हैं कि श्रीमहापूर्ण स्वामीजी और श्रीरामानुज स्वामीजी आमने सामने आये हैं!”। तत्पश्चात वें आऴ्वार्तिरुनगरि में आये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने आयि से आचार्य हृदयम् के अर्थों को सुना जिसकी उन्होंने इच्छा प्रगट किये थे और आयि के तनियन् कि रचना किये
आचार्य हृदयमयार्थास्सकला येन दर्शिता:
श्रीसानुदासममलं देवराजन्तमाश्रये
(में आयि (देवराजर्) के नत मस्तक होता हूँ जो श्रीसानुदासर् (तिरुत्ताऴ्वरैदासर् ) के नाम से भी जाने जाते हैं जिनके माध्याम से आचार्य हृदयम् के सभी गूढ़ार्थों को पूर्णत: समझाया गया)। आयि को स्वयं कि प्रशंसा पसंद नहीं आयि और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के ऊपर रचना किये
पूदूरिल् वन्दुतित्त पुण्णियनो? पूङ्गमऴुम्
तातारुमगिऴमार्बन् तानिवनो – तूदूर्
वन्द नेडुमालो ? मणवाळ मामुनिवन्
एन्दै इवर् मूवरिलुम यार् ?
(क्या ये वहीं दिव्य पुरुष हैं जिनका अवतार भूतपुरी (श्रीरामानुज स्वामीजी) में हुआ? क्या ये वह हैं जिनके स्तन पर सुगन्धीत पुष्प माला हैं (श्रीशठकोप स्वामीजी)? क्या ये तिरुमाल् (भगवान) हैं (श्रीमहालक्ष्मीजी के स्वामी) जो संदेश देने का कैङ्कर्य कर रहे हैं? इन तीनों में मेरे स्वामी श्रीवरवरमुनि कौन हैं?) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को एक विशिष्ट अवतार के रूप में पोषित करना। वें आऴ्वार्तिरुनगरि में कुछ समय के लिये निवास किये।
तिरुनारायणपुरम् के कुछ जन जो उनके प्रति ईर्ष्या रखते थे उनके बहुत दिनों तक तिरुनारायणपुरम् से दूर रहने के कारण यह गलत संदेश फैलाये कि इनका परमपद हो गया हैं और उनके तिरुमाळिगै में जो भी था सब कुछ मन्दिर में सौंप दिये जिसे सेल्वप्पिळ्ळै (तिरुनारायणपुरम् में भगवान का नाम) ने स्वीकार किया। आयि उस समय आऴ्वार्तिरुनगरि से तिरुनारायणपुरम् पधारे सभी घटनाओं को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और गीताजी के श्लोक को स्मरण किया “यस्यानुग्रम् इच्छामि तस्य वित्तं हराम्यहम्” (जिस पर भी मैं अपनी कृपा बरसाना चाहता हूँ मैं उसका धन चुरा लेता हूँ)। क्योंकि उनका धन भगवान ने हीं ले लिया हैं वें प्रसन्न हो गये कि वें उनके कृपा के पात्र हो गये। नेत्रों से खुशियों के आँसू यह सोच कर गिर रहे थे “यस्यैते तस्यतद्धनम्” (अपने संपत्ति पर अधिकार करनेवाला स्वामी हीं उपयुक्त हैं)। तत्पश्चात उन्होंने ज्ञानप्पिरान् (वराह भगवान) के विग्रह को अपने नित्य पूजा में रखा और शेष यादवगिरिनिलैयन् (सेर्वेश्वरन् यादवगिरि के निवासि) के मंदिर के लिये अर्पण कर दिया)।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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