श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
<< भाग ४९
आऴ्वार्तिरुनगरि में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के कुटीर में आग लगना
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का अक्षुण्ण यश और बढ़ती हुए विभूति को देखकर कुछ दुष्ट उनसे जला करते थे। एक दिन जब वें रात में अकेले अपने कुटीर में ध्यान लगाये हुए थे तब कुछ दुष्टों ने अच्छा अवसर देखकर उस कुटीर में आग लगाकर भाग गये। यह देख उनके शिष्य हताश हो गये और बड़े संकट में आ गये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आदिशेष का रूप धारण कर अपने शिष्यों के मध्य में आकर खड़े हो गये जिसे देख उनके शिष्य आनंद से झूम गये। इस घटना को उस देश के राजा ने सुना और प्रभावित होकर उनके दर्शन के लिये आये और आग लगाने वाले दुष्टों को पकड़ कर प्राणदण्ड देने का विचार करने लगा। जिस तरह अशोकवाटिका में सीतादेवी ने युद्ध मैं लंकापति रावण का वध होनेके बाद “पापानां वा शुभानां वा” यह केहकर राक्षसियों का वध करने के लिये प्राणपण से तैयार हनुमान से उनका प्राण बचाया था वैसे ही दुष्टो की प्राणरक्षा करके श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भी क्षमा के द्वारा क्रोध को जीत लिया। जैसे श्रीवरवरमुनि शतकम के १४वें श्लोक में कहा गया “देवी लक्ष्मीः भवसिदयया वत्सलत्वेन सत्वम्” (आप श्रीमहालक्ष्मी अम्माजी हैं क्योंकि आपमें कृपा और सहनशीलता गुण हैं) और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी भी अपने कृपा और सहनशीलता गुण के कारण उन्हें क्षमा कर दिया। तत्पश्चात वें दुष्ट अत्यन्त लज्जित हुए और अपने किये हुए महापराध के लिये क्षमायाचना करते हुए आचार्य चरणों में गिर पड़े। वें बहुत समय तक उनके साथ रहे।
तिरुक्कुरुगूर् और तिरुक्कुरुङ्गुडि में कैङ्कर्य
तदनंतर उस देश का राजा भी उनकी अनुकरणीय क्षमा से प्रभावित होकर उनका शिष्य बन गया। उस राजा की उनमें अत्यन्त भक्ति देखकर उन्होंने उसका दास्यनाम (पञ्चसम्सकार के बाद) शठकोपदास रखा और उसके हित का उपदेश देते हुए कहा “हे राजन! लौकिक कार्यों मे चौथाई भाग आशा रखकर पौने भाग मोक्ष प्रधान देनेवाले कैङ्कैर्योमे तुम्हे ध्यान देना होगा। । राजा ने भी इन दिशा निर्देश का पालन किया। राजा ने बहुत कैङ्कर्य किया जैसे कालमेघ मंडप, दिव्य मार्ग, आदि बनाया। उन्होंने अऴगियमणवाळन् दिव्य मण्डप भी बनाया।
तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी तिरुक्कुरुङ्गुडि दिव्यदेश पधारे और वहाँ एक ब्राह्मण पर अपनी कृपा बरसाये जिसका नाम तिरुवेङ्कडमुदैयान था। उन्होंने उन्का दास्यनाम तिरुवेङ्कडदासर् रखा और तिरुक्कुरुंगुडि के मंदिर में कैङ्कर्य करने कि आज्ञा दियें। तिरुवेङ्कडदासर् ने भी उनके आदेश को शिरोधार्य कर वहां के तिष्ठपूर्ण, आसीनपूर्ण, शयानपूर्ण, पय:पयोधिपूर्ण, अचलोपरिपूर्ण और पञ्चपूर्ण भगवान के मन्दिर बनवाये। और श्रीशठकोप स्वामीजी के लिये एक दिव्य मण्डप भी बनवाया। इस तरह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने वहाँ से चल कर अनेकों दिव्य देशों का दर्शन करते हुए एवं सभी स्थानों में सुयोग्य व्यक्तियों को रख भगवान की समृद्धि बढ़ाते हुए श्रीकुरुकापुरी चले आये। फिर उन्होंने श्रीरङ्गम् जाने का निर्णय किया।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीरङ्गम् को लौट गये
उन्होंने यह पाशुर गाया
पिऱन्दगत्तिल् चीराट्टुप् पेट्रालुम् तन्नैच्
चिऱन्दुगक्कुम् चीर्कणवन् तन्नै – मऱन्दिरुक्कप्
पोमो मणवाळर् पोन्नडियै विट्टिरुक्क
लामो कल्वियऱिन्दाल्
(भले ही किसी के जन्म स्थान में उसकी बहुत अच्छे से पालन पोषण कि जाती हो, तो क्या उस खुशी को भुलना सम्भव हैं जो उसके पति को मिलती हैं जब वह उसे बहुत प्यार करता हैं? अगर किसी के पास थोड़ा ज्ञान हो तो क्या यह सही हैं श्रीरङ्गनाथ भगवान के दिव्य सुनहरे चरणों से अलग हो?)। उन्होंने तुरंत श्रीशठकोप स्वामीजी से श्रीरङ्गम् पुनः लौटने कि आज्ञा मांगी। वें श्रीरङ्गम् लौटकर श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा किये और रामानुज सम्प्रदाय के तत्त्वों को स्थापित किया, अन्य सम्प्रदाय के अनुयायी से चर्चा किये और बड़ी दया से श्रीरङ्गनाथ भगवान के सन्निधी में रहने लगे और अपने गुण प्रगट किये जिससे यह पता चला कि वें आदिशेष के अवतार हैं।
एक बहुत विद्वान व्यक्ति जिसका नाम अप्पिळ्ळार् हैं उत्तर दिशा में गये और अनेक अन्य तत्त्वों के अनुयायीयों से चर्चा का उन पर विजय प्राप्त किये। शोऴिङ्गपुरम् के समीप एऱुम्बि नाम एक गाँव में एऱुम्बियप्पा से चर्चा करने हेतु वहाँ पहुँचे। उनके वैभव के विषय में जानकर वें विस्मित हो गये। अप्पा के चर्चा करने के बजाय उन्होंने उनसे मित्रता कर ली और उनसे गूढ़ार्थ सीखा। वें वहाँ तीन दिन तक रूखे और फिर प्रस्थान करने का निश्चय किया। अप्पा ने उनसे पूछा आप कहाँ जा रहे हो। अप्पिळ्ळै ने उत्तर दिया “श्रीरङ्गम् में एक व्यक्ति हैं जिसका नाम श्रीवरवरमुनि हैं। दास को उन्हें देख और उनके साथ तर्क वितर्क करना है”। यह सुनकर अप्पा ने उन्हें अच्छे नियत से कहा “श्रीमान को यह शोभा नहीं देता हैं। दास को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के वैभव का पता हैं। उन्होंने किडम्बी नायनार से श्रीरङ्गनाथ भगवान के मंदिर में श्रीभाष्यम् पर कालक्षेप सुना हैं। उस समय नायनार् ने दास को बुलाया था और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के क्षमता कि परीक्षा लेने को कहा था। वें सबी अर्थों पर एक साथ कालक्षेप कर सकते हैं। उनसे तर्क वितर्क करना सभी के वश कि बात नहीं हैं। इन सब से ऊपर वें यतियों के राजा हैं और जो श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का विकसित करते हैं। हम सभी को उनके प्रति सम्मानित रहना चाहिये। दास सही समय पर यह समझाये गा” और उन्हें भेज दिया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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