श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
एऱुम्बियप्पा के आराध्य देव चक्रवर्ती श्रीराम उनके स्वप्न में आकर उन्हें आज्ञा करें “आपने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के प्रति अपराध किया हैं जो आदिशेष के अपरावतार हैं। क्या तुम देवऋषि नारद की कथा नहीं सुनेहो ‘भगवद् भक्तसम्भुक्त पात्र शिष्टोधनारात् कोपिदासि सुतोप्यासि समृतो वै नारदोऽभवत् (नारदजी जो पूर्व जन्म में दासीपुत्र थे भक्तों के उच्छिष्ट प्रसाद को प्रेम से सेवन करने के कारण ब्रह्मा के पुत्र हुए)’ जब तक आप श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण नहीं होते हैं और क्षमा नहीं मांगोगे हम आपसे तिरुवाराधनम् स्वीकार नहीं करेंगे। तुरंत जाओं”। प्रात: काल स्वप्न की बात स्मरण करके एऱुम्बियप्पा बड़े ही चकित हुए और स्वप्न को यथार्थ समझ तुरन्त श्रीरङ्गम् के लिये चल दिये और यह श्लोक का निवेदन किया
अङ्गेकवेर कन्यायाः तुङ्गेभुवन मङ्गळे।
रङ्गेधाम्नि सुखासीनं वन्दे वरवरं मुनिम्॥
(मैं श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरणों के शरण होता हूँ जो कृपाकर दिव्य श्रीरङ्गम् में निवास कर रहे हैं जो पूर्ण संसार के लिये कावेरी नदी के मध्य में एक मंगल स्थान है)। एऱुम्बियप्पा श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ में पहुँचे उस समय वें मठ से श्रीरङ्गनाथ भगवान के दर्शन हेतु उनके सन्निधी की ओर चल चुके थे। तब तक बीच में हीं एऱुम्बियप्पा उनके सामने जाकर साष्टांग दण्डवत प्रणाम कर कहा “दण्डवत् प्रणमेत् भूमावुपेद्य गुरुमान्वहम् ” (प्रतिदिन आपने आचार्य के समीप जाकर दण्डे के समान भूमि में पड़कर उनको प्रणाम करें)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन्हें अपने सामने प्रणिपात कर पड़े हुए देख अपने सुशीतल अवलोकन से उठने की अनुमति प्रदान कर कहे “लोचनाभ्यां पिपन्निव”. एऱुम्बियप्पा भी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य और मंगल स्वरूप को पूर्ण निरत होकर मयि प्रविशिति श्रीमन से प्रारम्भ कर मयि प्रसाद प्रवणं से समाप्त कर पूर्व दिनचर्या का अनुसंधान किया।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी एऱुम्बियप्पा को पूर्णत: ऊपर उठाने में निरत हैं और आत्मलाभम से अधीक कोई अन्य लाभ नहीं हैं यह जानकर मठ में लौट गये और एऱुम्बियप्पा को स्वीकार करने कि इच्छा से अपने अन्य शिष्यों को कहे “मन्दिर जाकर श्रीरङ्गनाथ भगवान कि पूजा कर लौटकर आये”। जब भगवान कि पूजा कर वें लौटे तब स्वामीजी ने उनसे कहा आज भगवान का वस्त्र इस रंग का हैं, आज भगवान ने अमुक अमुक भूषण धारण किये हैं, भगवान के भोग में अमुक अमुक वस्तुएँ हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की बात सुनकर के सभी शिष्य आश्चर्य चकित हुए और आपस में कहने लगे हमने तो भगवान के वस्त्र, आभूषण और भोग को प्रत्यक्ष देखा हैं और ये बिना देखे ही कैसे जान गये?। एऱुम्बियप्पा ने विचार किया स्वामीजी ने अपनी सर्वज्ञता प्रगट करने के लिये ही ऐसा किया है जैसे भूखा व्यक्ति अन्न छोड़ दूसरे का ध्यान नहीं करता। जैसे कि पूर्व दिनचर्या में कहा गया हैं “भवन्तमेव नीरन्रं पश्यन्वस्येन चेतसा” (दास आपके सर्वोच्च मंत्र के चरणों के नीचे आप महामहिम को देखते रहेगा), स्वामीजी के दिव्य रूप को धारक, पोषक और भोग्य ऐसे ध्यान किया।
दूसरे दिन ब्राह्म मुहूर्त में अण्णन् और अन्य श्रीवैष्णव स्वामीजी के मठ के द्वार पर खड़े होकर निम्मलिखित सुप्रभात गाने लगे
रविरुदयत्यतापि नविनश्यतिमे तिमिरम्
विकसति पङ्कजं हृदयपङ्कजमेव नमे।
वरवरयोगिवर्य वरणीय गुणैकनिधे
जयजयदेव जाग्रहि जनेषु निधेहि दृशम्॥
(श्रीवरवरमुनि स्वामीजी नामक ज्ञान रूप सूर्योदय तो हुआ किन्तु मेरा अज्ञान रूप अंधकार अभी भी दूर न हुआ। सूर्योदय होनेपर तो कमल खिल जाया करते हैं किन्तु मेरा हृदयरूप कमल तो अभी भी विकसित नहीं हुआ। भजन करने योग्य गुणों से पूर्ण सन्यासियों में श्रेष्ठ हे वरवरमुनि! आप जगे आपका सुप्रभात हो! आप सदा विजयी हो! और निज भक्तों पर दया करें! उस सुप्रभात गान को सुनकर चरित्रनायक श्रीवरवरमुनि स्वामीजी गुरूपरम्परा एवं रहस्यत्रय का अनुसंधान करते रहस्यत्रय के मूलमंत्र से परवासुदेव, चार व्यूह एवं अंतर्यामी भगवान के गुणों का ध्यान करते, चरमश्लोक से विभवावतार भगवान कृष्ण के सौलभ्य, सौशिल्य और वात्सल्य आदि गुणों का ध्यान करते, मंत्ररत्न से सौलभ्य आदि गुणों से परिपूर्ण अर्चावतार भगवान का ध्यान करते हुए उठे।)
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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