श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
तत्पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जैसे श्लोक में कहा गया हैं
ततः सजमूलजितस्याम कोमलविग्रहे।
पीतकौशेयसं विधे पीनव्रुत्त चतुर्भुजे॥
शन्खचक्र गदाधरे तुङ्ग रत्न विभूषणे।
कमला कौस्तुभोरस्के विमलायत लोचने॥
अपरादसहे नित्यं दहराकास गोचरे।
रेमेधाम्नि यथाकाशं युज्ञानो ध्यान सम्पदा॥
सतत्र निश्चलं चेतः चिरेण विनिवर्तयन्।
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ध्यान समृद्धि में बैठकर अपने हृदयाकाश में विध्युत के समान पीताम्बर धारण किये हुए सजलजलद के समान भगवान के मनोहर श्यामल विग्रह का ध्यान करने लगे, प्रभु के श्रीविग्रह के एक अंगकी शोभा कोटि कोटि अंगों के दर्प को दूर करनेवाली हैं। उनकी वृत्ताकार दिव्यायुद्धों शंख, चक्र, गधा से सुसज्जित चार भुजायें ऐसी जान पड़ती हैं जैसे कल्पवृक्ष ने अपनी चार शाखाओं को विविधालंकार से सजाया हो, उनके समुन्नत वक्षस्थल पर लक्ष्मी एवं कौस्तुभमणि की अनोखी छटा निहार हो गये। इस प्रकार कुछ देर तक निज मनमंदिर में परमप्रकाशमय श्रीवैकुण्ठनाथ का ध्यान कर वहाँ से किसी प्रकार चित्त हटाकर यतीन्द्र श्रीरामानुजाचार्य के चरणकमलों में लगाये और फिर देरसे उनके ध्यान विश्रांति की प्रतीक्षा में बैठे हुए शिष्यों को यतिराज विंशति, श्रीवचनभूषण आदि रहस्य ग्रन्थों का उपदेश दिये। फिर सायंकाल का कृत्य सम्पन्न कर स्वयं भगवान की विधिवत पूजा कर तिरुप्पलाण्डु से भगवान का मङ्गळाशासन् करते थे। उसके बाद शयन के लिये शेष शय्यापर शयन करते जैसे श्लोक में कहा गया हैं
ततः कनकपर्यङ्के तरुणद्युमणिद्युतौ।
रत्नदीपद्वयोतस्त महतस् स्तोमस मेदिते॥
सोपदाने सुखासीनं सुकुमारे वरासने।
अनन्यहृदयैः धन्यैः अन्तरङ्कैः निरन्तरम्॥
शुश्रूषमाणैः शुचिभिः द्वित्रैर्पृत्यैः उपासितम्।
प्राचामाचार्यवर्याणां सूक्तिवृत्यनुवर्णनैः॥
व्याचक्षाणां परम्तत्वं व्यक्तं मन्दतियामपि।
(तत्पश्चात दो या तीन गोपनीय अनुयायियों द्वारा बिना किसी विराम के सेवा कि जा रही थी जो श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अलावा और किसी के बारें में सोचते भी नहीं थे जो पलंग पर एक नरम और सुन्दर आसन पर बैठे थे जो माणिक से बने दो दीपक के चमक में चमकते हुए सोने से बना था। अपने चरम पर सूर्य की दीप्ति, मुलायम तकिये के साथ पूर्वाचयों की दिव्य रचनाओं को इस तरह समझाते थे कि निम्म स्तर के बुद्धिवाले लोग भी विशेष विषय को स्पष्ट रूप से समझ सके।) वें अपने दिव्य शयन कक्ष में प्रवेश कर दिव्य शय्या में आराम किये और करुणा से पूर्वाचार्यों के बोधमनुष्ठान (जिसे उन्होंने कहा और जिसका उन्होंने पालन किया) को समझाया। ऐसे विस्तृत व्याख्याओं का आनन्द लेते हुए और साथ ही श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के सुरक्षा के विषय पर अनावश्यक रूप से चिंतित होने के कारण वें उनकी ऐसे प्रशंसा निरंतर करते रहे जैसे कहा गया हैं
मङ्गळं रम्यजामातृ मुनिवर्याय मङ्गळम्।
मङ्गळं पन्नकेन्द्राय मर्त्यरूपाय मङ्गळम्॥
एवं मङ्गळवाणीभिः एनं साञ्जलिभन्धनाः।
सत्कृत्य सम्प्रसीदन्तं प्रणेमुः प्रेम निर्प्पराहः॥
(यह दिव्य घटना श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को हो जो आचार्यों में महान हैं; यह दिव्य घटना आदिशेष को हो जिन्होंने मनुष्य रूप में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के रूप में अवतार लिया हैं; इस तरह से नमस्कार कर भक्ति से अनुयायियों ने अपने हथेलीयों को थपथपाया और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की पूजा किये जो ऐसे दिव्य शब्दों को सुनकर प्रसन्न हुए)। अंजलीहस्थ कर बड़े प्रेम से उनको साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया। उन्होंने उन्हें जाने कि आज्ञा प्रदान किये। जैसे कि श्लोक में देखा गया हैं
ततस्सज्जीकुरुतं भृत्यैः शयनीयं विभूशयन्।
युयोज हृदयम्धाम्नि योगीत्येय पदत्द्वये॥
(फिर शिष्यों द्वारा बनाये शय्या पर शयन किये और अपना दिव्य मन परमपुरुष के दिव्य चरण कमलों में लगाया) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी जो स्वयं भगवान के शेषशैया हैं शैय्या में शयन किये। शयन से पहिले अपना दिव्य मन को भगवान के दिव्य चरण कमलों में लगाया जो आदिशेष पर शयन किये हैं।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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