श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
इसी बीच में एऱुम्बियप्प्पा उस समय के दौरान जब वें वहाँ थे श्लोक के अनुसार
इत्थं दिने दिने कुर्वन्वृत्तिं पद्युः प्रसादिनीम्।
कृतीर् कडापदं चक्रे प्राक्तनीं वर्तनीम्॥
इत्थं दिने दिने कुर्वन्वृत्तं भर्तु: प्रसादिनीम्।
कृति कण्ठा पदज्चक्रे प्राक्तनीं तत्र वर्तनीम्॥
श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने भगवान के मन को प्रसन्न करने वाली अपनी उपरोक्त दिनचर्या को चलाते हुए पूर्वाचार्यों के संकुचित मार्ग को विस्तृत बना दिया। फिर देवराजगुरु ने भी उनकी सेवा में संलग्न रहकर सभी रहस्य ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनकी सन्निधी में बहुत दिनों तक निवास किया। फिर जीयर ने उन्हें प्रसन्न करने हेतु जैसे श्लोक में कहा गया हैं
वरवरमुनिर्यपादयुग्मं वरदगुरोः करपल्लव द्वयने।
रहसि शीरसिमे निधीयमानं मनसिनिदम्य निधानवान भवामि॥
(कन्दाडै अण्णन् के दो कोमल हाथों से श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों को मेरे सिर पर रखते हुए, जब हम एकान्त में थे तो उनके कार्यों को स्मरण कर मुझे अपना पोषण मिलता था) अण्णन् को अपना दिव्य चरण अर्पण कर उन्हें कहे “कृपा अपने स्थान कि ओर प्रस्थान करिये”। अप्पा बड़े दु:ख के साथ दयापूर्वक एऱुम्बि कि ओर प्रस्थान किये।
नायनार् सात गोत्रों का नियमन करते हैं
अप्पा का एऱुम्बि कि ओर प्रस्थान करने से पूर्व श्रीरङ्गम् में एक घटना हुई। कुछ जन जो अप्पा से सम्बन्ध रखते थे और कन्दाडै अण्णन् के ससुरालवाले कन्दाडै नायन् कि धर्मपत्नी को उनके जन्म स्थान से कन्दाडै अण्णन् के तिरुमाळिगै से लाये। उन्होंने उन्हें एक अनुचित वाहन में लेकर आये। यह देखा अप्पा को बहुत पीड़ा हुई और उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहा। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को भी अपने दिव्य हृदय में बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने कन्दाडै अण्णन् को बुलाया जिन्होंने उन्हें कहा “यह सही नहीं हैं। उनका त्याग करना हीं सही हैं”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उनसे अनुरोध किया “क्या हम उनके स्वरूप के विषय पर उन्हें निर्देश नहीं दे सकते हैं?” अण्णन् ने कहा “वें एम्बा के करीबी सम्बन्धी हैं और बहुत अभिमानी जन हैं” तब श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कहा “उस स्थिति में हम चिन्ता नहीं करेंगे”। फिर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने कन्दाडै अण्णन् और उनके सम्बंधीयों को बुलाया जो सभी मुदलियाण्डान् के वंशज हैं उनसे इस विषय पर पूर्ण जानकारी प्राप्त किये, उनपर अपनी कृपा बरसाये और उन्हें अदिष्ट उपदेश प्रदान किये। उन्होंने फिर उन्हें एक व्यवस्था के विषय में बताया। उन्होंने कहा वादूल गोत्र (श्रीदाशरथी स्वामीजी का गोत्र) और हारिता गोत्र (श्रीरामानुज स्वामीजी का गोत्र) के जनों को केवल ७ गोत्रों के जनों से हीं विवाह करना चाहिये (वादूल, श्रीवत्स, कौण्डिन्य, हारीत, आत्रेय, कौशिक और भारद्वाज)। उन्होंने अपने नियम का हस्तलिपि बनाया, श्रीपरकाल मन्नन् तिरुमाळिगै (श्रीपरकाल स्वामीजी की दिव्य तिरुमाळिगै) में एक फलक बनाया और उन सभी स्थानों में जहाँ इस गोत्र के जन निवास करते हैं उन्हें यह संदेश बिजवाया। उन्होंने कृपाकर एऱुम्बियप्प्पा को इस कार्य से प्रसन्न किया। इस समय के दौरान जो न केवल उनके दिव्य चरणों के प्रतिकुल थे, अपितु उनके बारे में निन्दा करते थे, वे दरिद्रता में परिश्रम कर अपना जीवन नष्ट करते हुए दुर्भाग्य में पड़ जाते थे।
एक दिन श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और उनके शिष्य “आलिन्मेलमर्न्दान् अडियिणैगळे” के पाशुर पर चर्चा कर रहे थे; आल् शब्द दो स्थान में आया। उन्होंने चर्चा किया की एक शब्द बरगद के पत्ते को संभोधीत करता हैं और दूसरा शब्द कोमल बरगद के पत्ते को संभोधीत करता हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी दयाकार कहे आल् पत्ते को संभोधीत नहीं करता हैं। उस पर कन्दाडै नायन जो अपने जीवन के चंचल अवस्था में थे और जो एक बालक समान दिख रहे थे कहे “ओ श्रीवरवरमुनि स्वामीजी! क्या यह मूसलधार बारीश को संभोधीत नहीं करता हैं?” तुरन्त श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने उन्हें बुलाया और अपने गोद में लेकर समझाया “क्या आप उस वंश से नहीं हैं जो पूजनीय हैं?” और उन्हें सम्प्रदाय के प्रवर्तकर (रामानुज तत्त्व में पूर्णत: निरत होना) होने का आशीर्वाद प्रदान किया।
आदार – https://granthams.koyil.org/2021/09/10/yathindhra-pravana-prabhavam-55-english/
अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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