श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
वेडलप्पै के सहायता से कुदृष्टि को अस्वीकार करना
एक व्यक्ति जो कुदृष्टि तत्त्व में संलग्न था श्रीरङ्गम् के मन्दिर में आया और तत्त्वों को सिखाने में बड़ा अभिमानी था। जबकी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी सभा में उनसे बहस करने और उन्हें चुप करने में सक्षम थे जैसे श्रीभक्ताङ्घ्रिरेणु स्वामीजी तिरुमालै के ८वें पाशुर में कहते हैं “कलै अऱक् कट्र मान्दर् काण्बरो केट्परो ताम्?” (क्या कोई व्यक्ति जिसने शास्त्र का अध्ययन किया हो अन्य तत्त्वों के बारें में विश्लेषण करके या उन्हें सुनकर अन्य तत्त्वों को स्वीकार कर सकता हैं?) उन्होंने उसके साथ घास के समान व्यवहार किया और प्रतिज्ञा कि “हम इस व्यक्ति को जो भगवान से सम्बंधीत विषयों का अनुभव करने के लिये शत्रुतापूर्ण हैं, इस स्थान से बाहर निकाल देंगे”। वह जानता था कि यह व्यक्ति पहिले वेडलप्पै का शिष्य था जो कि वधूला (श्रीदाशरथी स्वामीजी के वंशज) वंश में जन्म हुआ और अनुचित संगति क कारण वह भ्रमित हो गया और बौद्ध/जैन जैसी शत्रुतापूर्ण ताकतों में शामिल हो गया और अन्य तत्त्वों का अनुयायी बन गया। इस कारण से वह त्रीशंकु बन गया एक कर्म चाण्डाल (वह व्यक्ति जो अपने कर्मों के कारण नीच जन्म से व्यक्ति का दर्जा प्राप्त करता हैं)। उनके साथ बहस में शामिल होने के लिये अनिच्छुक महसूस करते हुए उन्होंने वेडलप्पै को उन्हें अस्वीकार करने के लिये संदेश भेजा। वें भी वहाँ पधारे उस कुदृष्टि को देखा और उसे कहा “ओ नीच प्राणी! क्या आप इधर भी पधार गये?” जैसे हीं उस कुदृष्टि ने वेडलप्पै को देखा वह घबरा गया जैसे एक सर्प गरुड को देखकर महसूस करता हैं। उसने उनकी पूजा किये और वहाँ से पलायन कर दिया। वेडलप्पै की विशेषज्ञता को देखकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी चकित हो गये और उनसे वहीं निवास करने का अनुरोध किया। अपने आयु को ध्यान में रखते हुए उन्होंने जीयर् मठ में अपने प्रतिनिधि के रूप में दाशरथियण्णन् को रखा और अपने गाँव को चले गये।
श्री प्रतिवादि भयङ्कर् अण्णा स्वामीजी पर वर्णन
वेडलप्पै के प्रस्थान के पश्चात श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने सोचा कि अब विशिष्टाद्वैत सिद्दान्त (चित्त और अचित को साथ साथ रखने का भगवान के तत्त्व) को कौन जीवित रखेगा, जो अन्य तत्त्वों का प्रचार कर रहे हैं अगर वें व्यर्थ हैं तो भी, उनसे कौन वाद विवाद करेगा। उस समय एक यजमान थे जिन्हें “हस्तगिरीनाथ अण्ण” नाम से जान जाता था जो श्रीरामानुज संप्रदाय का विरोध करनेवालों से बहस करते थे और उन पर विजय प्राप्त करते थे और इसलिये उन्हें “प्रतिवादी भयङ्कर्” उपाधि प्राप्त हुई जो बिना समानता के लौकिक (सांसारिक सम्बन्ध) और वैदिक (वैदिक सम्बन्धीत) के साथ परिचित थे। उन्होंने कुछ समय के लिये काञ्चीपुरम् में निवास किया और फिर स्थायी रूप से तिरुमला में निवास किया। तिरुमला में रहते हुए उन्हें ३ दिव्य पुत्र हुए। वें शास्त्र में बहुत विद्वान थे। उनकी पत्नी आण्डाळ् (श्रीकुरेश स्वामीजी कि पत्नी) समान शास्त्र में निपुण थी। प्रतिवादी भयङ्कर् अण्णा श्रीकुरेश स्वामीजी के जैसे भौतिक धन से घृणा करते थे क्योंकि वह भगवत्प्राप्ति में बाधा हैं। वह सत्वनिष्ठा (पूर्णत: अच्छे गुण और कैङ्कर्य में निरत थे) के थे, “अर्थसम्पत्विमोहाय” (धन व्यग्र बना देगा) जैसे व्याख्यानों पर मनन करते, अपना धन भगवान और भागवतों में लगाते और उनके मन में दृढ़ विश्वास था कि भगवान के प्रति कैङ्कर्य ही पुरुषार्थम हैं। उन्होंने निश्चय किया कि बिना किसी विराम के उन्हें श्रीवेङ्कटेश भगवान के दिव्य चरणों में दोष रहित कैङ्कर्य करना हैं जैसे श्रीसहस्रगीति के ३.३.१ पाशुर में कहा गया हैं “ओऴिविल् कालमेल्लाम् उडनाय् मन्नि वऴुविला अडिमै सेय्यवेणुम् ” (मुझे बिना कोई रुकावट के तिरुमला के भगवान के दिव्य चरणों में दोष रहित कैङ्कर्य करना हैं)। उनकी इच्छा सुनकर तिरुमलै तोऴप्पर् बहुत प्रसन्न हुए और जैसे कहा गया हैं “अन्यत् पूर्णादपां कुम्भात् अन्यत् पदावनेजनात अन्यत् कुशल सम्प्रश्ना न च इच्छेति जनार्दनः” (कण्णपिरान् जो जनार्धन हैं वह पूर्णकुंभम (जल से भरा हुआ घड़ा) के अलावा ओर कोई भी इच्छा न चाहेंगे, उनके दिव्य चरणों को धोना या उनके विषय में जानना) अण्णा को चाँदी का घड़ा दिये और उन्हें कहा “आकाशगङ्गा (तिरुमला के करीब एक धारा) से जल लावों, उसमें तीर्थ मसाला का मिश्रण करों (तिरुमला के श्रीवेङ्कटेश भगवान के लिये)” अण्णा बहुत प्रसन्न हुए, जल भरने के लिये घड़े को लिये और सोचे “यह एक महान शेषत्वम और इसे इस हद तक महसूस किया” और इस नित्य कैङ्कर्य को प्रारम्भ किया।
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अडियेन् केशव् रामानुज दास्
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